जाइए, आप बड़े वो हैं
जाइए, आप बड़े वो हैं
आज सुबह जैसे ही मैं जगा तो देखा कि सामने श्रीमती जी हाथ में चाय का प्याला लेकर खड़ी हैं। सुबह सुबह जल्दी उठकर, नहा धोकर पूजा करके चाय भी बना लाई थीं वो। नहाने के बाद वो ऐसे चमक रहीं थीं जैसे ओस की बूंदों में नहाकर घास और भी निखर जाती है। वह और भी कोमल, नर्म, मुलायम, सुहानी हो जाती है। कुछ लटें चेहरे पर ऐसे बिखर रहीं थीं कि जैसे किसी बदली को हवा ने तितर बितर कर दिया हो और बदली की ये नन्ही नन्ही धारियां पूनम के चांद को आवरण ओढ़ाने का असफल प्रयास कर रहीं हों। लेकिन चांद तो चांद है। नन्ही बदलियों की इतनी बिसात कहां जो वे चांद की आभा को रोक सकें। बल्कि लटों को चीरकर चांद अपना प्रकाश सरवत्र फैला रहा था। माथे के बीचों-बीच लाल बिंदी गजब ढा रही थी और जैसे मुझे अपनी ओर आमंत्रित कर रही थी कि कुछ शायरी के दौर हो जाये। हमारे कवि मन ने भी उस आमंत्रण को स्वीकार कर चंद पंक्तियां उनकी शान में पेश कर दीं।
भोर की किरण सी कितनी मासूम लग रही हो
सावन की फुहारों में नहाई गुलाब लग रही हो
चेहरे पे गिरी लटों ने लूट लिया है दिल हमारा
बिजलियां गिराती कातिल हसीना लग रही हो
"सुबह सुबह से ही शुरू हो गए ? आपको तो कोई काम है नहीं, मगर हमें तो है। आप अपनी शायरी कीजिए अपनी चाय की चुस्कियों के साथ और हमें अपना काम करने दीजिए।" इतना कहकर वो जाने लगीं।
भला हम उन्हें ऐसे कैसे छोड़ देते। नर्म कलाई पकड़कर उन्हें अपनी ओर खींचते हुए कहा।
हाय, किस पत्थर दिल से पाला पड़ा है हमारा
कैसे बतलाएं कि दिल कितना बेकरार है हमारा
काम को छोड़, मुहब्बत के फसाने सुन, बेरहम
बस, एक बार तो कर दे नशीली नजर का इशारा
इन पंक्तियों ने गजब का जादू किया और शर्म से उनका चेहरा लाल सुर्ख हो गया। हाथ छुड़ाने की एक्टिंग करते हुए वे कहने लगीं। "जाइए, आप तो बड़े 'वो' हो। हमें नहीं सुनने आपकी मोहब्बत के फसाने। बच्चे जाग जाएंगे तो" ?
हमने मदहोशी के आलम में अलसाते हुए कहा
दिल में इकरार मगर लबों पर इनकार रखती हो
तिरछी नजरों से छुप छुप के वार हजार करती हो
ना फेंको इस तरह कातिल मुस्कान इस दिल पर
नाजुक से दिल पे सितम क्यों बार बार करती हो
"छोड़िए भी। आप बड़े वो हैं, वो हैं, वो हैं।" और इस तरह दिल पर बिजलियां गिराकर, हाथ झटक कर, अरमानों को कुचल कर वो भाग गईं। हम चाय की प्याली में खोये हुए यह सोचते ही रह गए कि हम "वो" हैं। मतलब क्या हैं ? "वो" का मतलब क्या है ? क्या हम बदमाश हैं ? शैतान हैं ? शरारती हैं ? दुष्ट हैं ? झूठे हैं ? चालबाज हैं ? दगाबाज हैं ? बेईमान हैं ? आखिर हैं क्या हम ?
हमने अपने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा लिए मगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाये। अंत में थक-हारकर हर आदमी श्रीमती जी की शरण में ही जाता है क्योंकि एक वही तो हैं जो ब्रह्म ज्ञानी, तत्व वेत्ता, सिद्धि प्राप्त और महा मनीषी हैं। बाकी सब तो केवल दंभ पालते हैं ज्ञानी होने का। तो हमने भी पत्नी देवी की शरणागति जाने में ही अपनी भलाई समझी।
हमने सीधे जाकर उनके चरण कमलों में ढोक लगाई और अपनी अर्जी प्रस्तुत कर दी कि प्रिय प्राणेश्वरी, हमारी शंका का निवारण करो। हमें "वो" का तत्वज्ञान समझा कर कृतार्थ करो। अकारण संशय के बादल जो घिर आये हैं उनका अपनी मीठी वाणी में उच्चारण करके संहारण करो। आज हमें उस "दिव्य ज्ञान" से साक्षात्कार करवा ही दो जिससे हम आज तक वंचित थे। आखिर हम "वो" क्या हैं, जो अक्सर आप कहती रहती हो" ? आज उस रहस्य से परदा हटा ही दीजिए।
वो पहले तो हमें अपलक निहारती रहीं। बड़े बड़े नेत्रों से प्रेम वर्षा करती रहीं। फिर मुस्कुरा कर कहने लगीं। "इतने बड़े लेखक बने फिरते हो। श्रंगार रस पर इतना लिखते हो मगर "वो" का मतलब नहीं जानते ? कमाल है जी " ।
उनके इस धोबी पछाड़ से हम तो चारों खाने चित्त हो गये। अब आप सुधी लोगों के हाथ में हमारी लाज है। आप ही बताइए कि "जाइए, आप बड़े वो हैं" में "वो" का क्या मतलब है ? देखो, हमारी लाज अब आप सबके हाथ में है।

