जाड़े की रात
जाड़े की रात


जाड़े की रात दूर तक पसरा सन्नाटा चारों तरफ कोहरे की धुंध बर्फीली हवाएं जैसे शरीर को बिल्कुल मानो चुभों सी रही थी।मैं अपने दिन के रोजमर्रा की तरह साइकिल से अपने गंतव्य नौकरी से अर्थात गांव की ओर चला आ रहा था।उस ठंड की रात बड़ी मुश्किल से साइकिल की हैंडल पकड़ में आ रही थी।गरीबी की मार और वेतन कम होना मानो जिंदगी जी नहीं कट सी रही थी ऊपर से घर की जिम्मेदारी,
मानो मैं नीरस पत्थर सा हो गया था।अमूमन मुझे जाड़े की रात की बात मुझे क्यों याद आ रहा था
मैं आज घर जैसे लौट रहा था रात का अंधेरा और कोहरे के गहरी धुंध से मुझे कुछ दिख नहीं रहा था।अचानक से मुझे झाड़ी में किसी बच्चे के रोने की आशंका लगी अर्थात आवाज आई
कुछ लोग उसकी अस्मत लूट रहे थे वह चीख रही थी बिलख रही थी।मैंने सोचा कि कौन इतनी रात मुसीबत मोल लेने जाएऔर उन सभी व्यक्तियों से कौन फालतू मुंह लगे कौन फंसे समस्या से, मेरी बेटी
थोड़ी ना होगी कि मैं परेशान होऊ।
नजर अंदाज करते हुए मैं अपने घर के करीब पहुंचा तो जैसे ही मैं साईकिल सदरी के ओट में खड़ा किया।घर में घुसते ही किसी अनहोनी घटना का अंदाजा लगा।मेरी श्रीमती सिर पकड़ कर रोते हुए कहा अपनी छोटी बेटी सुबह से लापता है।अब रास्ते की घटना मुझे याद आ गई मेरी रूह कांप गई मैं पूरी तरह स्तब्ध रह गया डर गया।मैं तुरंत वहां से रोते हुए साइकिल निकाल कर खेत की ओर भागा।मुझे देखते ही वह सभी युवक भाग पड़े और।यह बच्ची कोई और नहीं मेरी बच्ची ही थी।
वह खून से लथपथ तड़प रही थी वह मेरे सामने ही तड़प तड़प कर प्राण त्याग दि,मुझे उस दिन से अफसोस हुआ कि सभी की बेटी हमारी बेटी जैसी ही होती है।काश मैं उसदिन नजरअंदाज ना किया होता तो शायद मेरी बेटी भी जीवित होती।आज मेरी बेटी का जन्मदिन था इस जाड़े की रात मैं उसे याद करके रो रहा था।और यह दिन मेरे लिए हमेशा के लिए यादगार हो गया था।