इन्कार से डर था
इन्कार से डर था
“झूठे, तुमने तो कहा था कि तुम्हें मैथ ज़रा भी नहीं आती!” हैरत से आँखों को थोड़ा चौड़ा करते हुए वो बोली।
“तो और तरीका भी क्या था तुमसे पढ़ने का?” मुस्कुराते हुए उसने कुर्सी खींची।
“देखा, मेरी सहेलियां सही बोलती थीं कि ये समीर ना हमेशा तुझसे मिलने के बहाने ढूंढता है। मैं ही बुद्धू थी।” गहरे महरून रंग का फुल फ्रेम वाला चश्मा उतारते हुए उसने कहा।
“बनो मत, स्कूल से लौटते वक़्त मेरे लिए जान-बूझकर साइकिल धीरे चलाते कई बार देखा है मैंने तुम्हें।” कॉफ़ी आर्डर करते हुए मैं बोला।
अंजली (एक काल्पनिक नाम ) और मैं आज दस सालों बाद अचानक एयरपोर्ट पर मिले थे। ज़िंदगी की दौड़ में दोनों इतनी तेज़ी से दौड़ रहे थे कि अब तक अतीत से अपॉइंटमेंट फिक्स ही नहीं हो पाया था। आज जब अचानक एक दूसरे को देखा, तो कुछ देर तक तो दोनों चुपचाप खड़े रहे। शायद लफ्ज़ ढूंढ रहे थे, फासले कम करने के लिए।
“स्कूल ख़त्म हुए इतने साल हो गए समीर, तुम्हें मेरी याद भी नहीं आई?”
“शहर की खासी मशहूर डॉक्टर हो तुम। मुझे लगा पहचानोगी भी नहीं। वैसे याद तो तुम भी कर सकती थी ना?” कॉफ़ी का पहला सिप लेते हुए मैं बोला।
“तुम्हारा कुछ पता ही नहीं था।”
“अच्छा, सारा शहर जानता है मुझे। तुमने कभी नहीं सुना मेरे बारे में?”
“तुम तो जानते ही हो, मुझे ये लिटरेचर वगैरह में ज़रा भी इंट्रेस्ट नहीं। कैसे जानती मैं तुम्हें? अच्छा वीकेंड पर मिलोगे?”
“अगर यहाँ रहा तो कोशिश करूँगा।”
“अकड़ू! तुम आज भी वैसे ही हो।” चिढ़ते हुए अंजली ने कहा।
“तुमसे ही तो सीखा है चश्मिश।” कुछ याद करते हुए मैं बोला।
चलो, अच्छा अगर मिल सको तो फ़ोन करना। हॉस्पिटल जाने का टाइम हो रहा है।”
“ये आज भी वैसी ही है, अपनी दुनिया में खोयी,” सोचते हुए मैं मुस्कुराया।
अगली मुलाकात में औपचारिकता कुछ कम हो गयी थी और हम दोनों को अच्छा लगा था अपने अतीत से कुछ लम्हें चुराना। बीते दस साल में कैसे-कैसे उनके रास्ते अलग हुए थे, उसकी पूरी तहकीकात, सारे शिकवे, सारी शिकायतें करने के बाद दोनों जैसे दोबारा स्कूल के वो बच्चे बन गए थे।
डॉक्टर अंजली वापिस पिंक साइकिल वाली पढ़ाकू स्कॉलर लड़की बन गयी थी और अपने सबसे अच्छे दोस्त यानी मुझसे लड़ रही थी, बिना बताये उसकी ज़िंदगी से गायब हो जाने के लिए।
“एक फ़ोन तो कर देते समीर , क्या ज़रूरत थी ऐसे अचानक गायब होने की?”
“तुम्हें फर्क भी कहाँ पड़ता था अंजली, मेरे होने ना होने का।”
“तुम इडियट हो। जाने से पहले एक बार कुछ कहा, कुछ पूछा तो होता।”
“तुम अपनी दुनिया में खोयी थी, मौका ही नहीं मिला।”
“इसलिए तुम चुपचाप चले गए। बिना मेरे बारे में सोचे।”
“हाँ, मुझे इंकार से डर था।”
कुछ पलों की ख़ामोशी और हम दोनों उठकर अपनी-अपनी गाड़ियों की तरफ बढ़ गये। यादें हमेशा खुशनुमा हों, ये ज़रूरी नहीं होता ना।
रिश्तों पर जमी बर्फ, जो उस रोज़ थोड़ा पिघली थी, अब फिर से सख्त हो गई थी । मैंने सोचा था अंजली मुझसे माफ़ी माँगेगी, बरसों पहले मेरी मोहब्बत को अनदेखा करने के लिये। और अंजली ने सोचा था कि मैं उससे माफी मांगूगा, उसे अकेला छोड़कर जाने के लिये। मगर दोनों ने कुछ नहीं कहा, हम दोनों एक जैसे जो थे।
आज उस बड़े शहर में मेरा आखिरी दिन था। मैं शायद हमेशा के लिये वहां से अपना तामझाम समेट अपने घर लौटने की तैयारी कर रहा था। इस शहर से बहुत दूर, एक नयी दुनिया में। मैंने जाने से पहले अंजली से एक बार बात करने की कोशिश की।
मुझे याद था कि अंजली ने कहा था, “जाने से पहले एक बार बताया तो होता समीर ।”
मगर उसका फोन सुबह से बंद जा रहा था।
“ये कभी नहीं बदलेगी,” चिढ़ कर मैं बड़बड़ा रहा था।
मैं कोशिश कर रहा था मन कहीं और भटकाने की, मगर हर बार उसे अंजली से जुड़ी कोई बात याद आ रही थी। हार कर मैने अस्पताल फोन मिलाया।
“ जी, क्या डॉक्टर अंजली से बात हो सकती है?”
“जी, आप कौन?”
“मैं उनका दोस्त हूँ, समीर ।”
“मैडम तो दस दिनों से नहीं आयीं। उनका एक्सीडेंट हुआ है। वो रेस्ट पर हैं।”
अस्पताल से अंजली का एड्रेस लेकर मैं पागलों की तरह भागा। घर पहुँचा तो मेड ने बताया कि मेमसाब सो रही थी। मैं उसके कमरे में गया और चौंक गया।
उस कमरे की दीवारों पर हर जगह मैं था। मेरी तस्वीरें थीं। इन दस सालों का पूरा हिसाब था उन दीवारों पर। शायद वो मुझसे एक पल को भी दूर नहीं हुई थी।
“बड़ी देर लगा दी लेखक महोदय,” आहट से जागी अंजली ने कहा।
भावुक पलों पर संयम रखने की असफल कोशिश करते हुए मैं बोला, “ए चश्मिश, तुमने कुछ कहा या, कुछ पूछा क्यों नहीं कभी?”
“तुम अपनी ही दुनिया में खोये थे समीर, और मुझे भी इंकार से डर था।”

