ईश्वर एक अवधारणा
ईश्वर एक अवधारणा
ईश्वर_एक_अवधारणा ‘ईश्वर’ शब्द की अभिव्यक्त्ति से एक ऐसी शक्ति-सत्ता का बोध होता है, जो सर्वस्व और सर्वोच्च हैं। ईश्वर शब्द को अलग-अलग धर्म संप्रदाय और भाषा में भिन्न-भिन्न नामो से जाना जाता है, जैसे -अंग्रेजी में ‘गॉड(God), पंजबी में ‘रब’और इस्लाम में ‘अल्हा’ । ईश्वर के अन्य समतुल्य शब्द हैं – प्रभु, भगवान, अंतर्यामी इत्यादि।
सभी धर्मावलम्बी और सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने धर्म एवं सम्प्रदाय में विश्वास करते हैं। वे अपने विश्वास को विभिन्न माध्यमों एमं अनेक तरकीबों से व्यक्त करते हैं। धर्म को लोगों की श्रद्धा और आस्था से जोड़ा जाता है।
मन में विचार आता है, ये ईश्वर है कौन ? इनकी शक्ति का स्रोत क्या है ? ये कैसे मिलेंगे ? ये कहाँ रहते हैं ? क्या करते हैं ? क्या नहीं करते ? इत्यादि।
हम विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय के माध्यमों से समझने का प्रयत्न करेंगे। सबसे पुराना एवं प्राचीन धर्म सनातन धर्म है । इसकी विशेष चर्चा के पहले मैं अपनी जीवन की छोटी सी बात यहाँ रखना चाहूँगा।
मेरी माँ स्वर्गीय श्रीमती निर्मला देवी, शिक्षित तो नहीं थी, पर उनके पास व्यवहारिक ज्ञान बहुत था। हम चार भाई हैं, जिसमें एक भाई, जो थोड़ा ज्यादा ही मौज-मस्ती में रहता था। माँ चाहती थी, हम सभी पूजा-पाठ में रुचि लें और हम लोग लेते भी थे। मेरा छोटा भाई की परीक्षा चल रही थी। वह देर तक सोता रहा और उठा तो जल्दी-जल्दी तैयार होकर उसने नाश्ता किया और चलता रहा। माँ ने उसे टोका, कभी तो भगवान के आगे हाथ जोड़ लिया करो। वह हँसते हुए बोला अच्छा माँ, ये बाता, मैं किसकी पूजा करूँ ? हिन्दू भगवान को मानते हैं, मुस्लिम अल्ला को नमाज अदा करते हैं, ईसाई चर्च में प्रभु ईशा की प्रार्थना करते हैं, सिक्ख गुरुग्रंथ साहब का पाठ करते हैं। हमारे तो इतने देवी-देवता, मैं किस-किस की पूजा-अर्चना करूँ ? अगर कोई छूट गया और हमें परीक्षा में फेल करा दिया तो। हम सभी हंस दिए, पर माँ बोली- भाग बदमाश, देवता ऐसा नहीं करते, तू देवता का अर्थ भी समझता है। अनुज बोला- ठीक है माँ, मैं जा रहा हूँ, शाम को आऊँगा तो बात करेंगे और आप हमें अर्थ समझाइएगा।
संध्या काल का वेला था, हम सभी घर के सदस्य आँगन में बैठे हुए थे और भूंजा फांक रहे थे। मेरा अनुज सुबह वाली चर्चा शुरू किया, वह बोला – माँ आपने सुना होगा बज्रभूमि में जब गोकुलवासियों ने श्रीकृष्ण के कहने पर इंद्र की पूजा नहीं की, तो इंद्र कुपित होकर वहाँ प्रलय लाने पर तुल गये और उन्होंने क्या किया, ये तो आपने सुना ही होगा। माँ बोली – ठीक है, पर तुम्हें जब किसी की जरूरत होगी, तब तुम्हारी कौन मदद करेगा ? अनुज बोला- आपकी बात ठीक है, हमें भी इसमें संलिप्त होना पड़ेगा। माँ बोली – सुनो देवी-देवता वह हैं, जो सभी का भला सोचे और भला करें । तूने यह पढ़ा होगा या सुना होगा, अमुक व्यक्ति देवतुल्य है। यानी वह व्यक्ति सदविचारवान है, सच्चा और सही कर्म करने वाला है। तुमने यह भी देखा होगा, कुछ देवी-देवताओं की बहुत कम या नहीं के बराबर पूजा होती है। कुछ सभी जगह पूजनीय हैं और पूजे भी जाते हैं, ऐसा उनके कर्म के कारण हैं। हम सभी -देवता, भगवन, ईश्वर – को एक ही शब्द में ले लेते हैं, परन्तु तीनों में भिन्नता है। जो दूसरे को न सताये, दूसरे का उपकार करें, देवतुल्य या देव है। जो हमारे कर्म के अनुसार हमारे भाग्य में ‘अपना अंश प्रदान करें, वह भगवान, ईश्वर या सर्वस्व हैं। ईश्वर, ‘ईह’ और ‘स्वर’ दोनों में पाया जाता है। ईह का अर्थ ब्रह्मांड से लगाया जाता है और स्वर समुद्र, नदी, नाला, झरना, तालाब का हो या जीव-जंतु का हो।
हम तीनों शब्दों (देवता, भागवान,ईश्वर) को एक ही अर्थ में लेते हैं, क्योंकि इनका कुछ सदगुण तीनों में समान रूप से पाया जाता है। मैं बोला – कुछ वैज्ञानिकों ने हल ही में एक शोध-पत्र प्रकाशित किया है, जिसमें लिखा गया है कि इस ब्रह्माण्ड में कुछ तत्वों की बनावट ही ऐसी है, जो इस सारी प्रक्रिया – प्रजनन, वृद्धि, पोषण को अपने तरीके से सुदृढ़ करती है और जिसमें थोड़ा बहुत अंतर होता है तो विसंगतियाँ उत्पन्न होती है। माँ बोली – तुम लोगों को कैसे समझायें, इसमें कौन-सी नई बात है। अब वैज्ञानिक बोलते हैं दूध-दही पौष्टिक है,दाल में प्रोटीन है, तो तुम विश्वास करते हो और वही हमारे ग्रांथों में लिखा है, तो तुम्हें मजाक लगता है। गीता में भी तो श्रीकृष्ण ने कहा है –“मैं अजन्मा हूँ, मैं कण-कण में विराजमान हूँ, मैं सभी में हूँ, मेरी शक्ति से सबकुछ देख सकते हो, सब कुछ सुन सकते हो, पर मुझे देख सुन नहीं सकते, क्योंकि मैं अगोचर हूँ। “ यहाँ ये शब्द श्रीकृष्ण के लिए नहीं हैं। यह उसी शक्ति के लिए हैं, जिसे हम ‘ईश्वर’ कहते हैं। सतयुग में हिरण्कश्यप अपने पुत्र प्रहलाद को खम्भे से बांधकर कहता है – अब बता, तुम्हारा भगवान कहाँ है ? तो प्रहलाद बोलता है – “हम में तुम में खड्ग-खम्भ में, घट-घट व्याप्त राम” ।
इस कथन पर हिरण्यकश्यप प्रहलाद को मारना चाहता है,तो हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अनुसार विष्णु नरसिंह रूप में खम्भा के अंदर से प्रकट होते हैं और हिरण्यकश्यप का वध करते हैं। आपको बता दूँ की हिन्दू धर्म में राम किसी व्यक्ति विशेष का नाम भर नहीं है। यह व्यक्ति विशेष से बड़ा है, तभी तो हनुमान जी राम का नाम लेकर समुद्र लांघ जाते हैं। राम के नाम से समुद्र में इतना बड़ा सेतु बंध जाता है। रामायण में वर्णन है – अश्वमेघ यज्ञ के समय एक राजा, श्री रामचन्द्र जी के घोड़े को पकड़ लेता है। तब वह सोचता है की अब तो वह मारा जायेगा और छोड़ता है, तो राजा होना लानत है। फिर उसे एक तरकीब सूझती है, और वह राम नाम का शब्द लिखकर एक अटारी बनता है और उस पर चढ़ जाता है वहीं से श्री राम जी के सैनिकों से युद्ध करता है और श्री राम जी को आने पर मजबूर कर देता है। फिर तुम्हारे वैज्ञानिक बंधुओं ने कौन-सी नई बात कह दी या लिख दिए।
मैंने कहा- माँ, हम लोग यानी हिन्दू पेड़-पौधा, नदी-नाला, खेत-बाधार पता नहीं क्या-क्या पूजते हैं इतना किस लिये ? माँ ने कहा – देखो पुत्र हमारी समझ से हमारे पूर्वजों में बहुत लोग जानकर यानी ज्ञानी थे और कुछ लोग जड़-बुद्धि थे, उन्हें डर दिखाकर ही नियंत्रित किया जा सकता था। हमारे जीवन की अनेक बातें, जिसमें हमारी भलाई थी, ज्ञानी तो इस बात को समझते थे और उसका पोषण-संरक्षण करते थे, पर जड़-बुद्धि वालों का क्या करते, उनमें कुछ उदंड भी थे और कुछ बलवान भी। उनको नियंत्रित करने के लिए इसे धर्म से जोड़ दिया गया। इन सभी के पूजा-पाठ का एक और कारण है। हमें ये बताओ तुम लोग हम बूढ़ों को इतना आदर क्यों देते हो ? हमने कहा -आप क्या बात करती हैं! आपने हमें जन्म दिया, पालन-पोषण किया, संस्कार दिया,आप अपनी नींद, चैन, ख़ुशी ........... माँ बोली – बस-बस, हमने तुम्हें कुछ दिया, वो हमारा धर्म और कर्तव्य था। हम सभी चुप हो गये। यही बात हिन्दू संस्कृति और धर्म के साथ है। हमें यानी मानव जाती को जिससे भी कुछ प्राप्त होता है, हम उसका आदर करते हैं। हिन्दू धर्म में विभिन्न पूजा का यही अर्थ है। सभी पूजा के पीछे वैज्ञानिक और सामाजिक कारण हैं।
हमारी सनातन धर्म के जो ग्रन्थ हैं, वेदों में जो वर्णन है, वो सभी सत्य हैं। आज के वैज्ञानिक उसे ही सिद्ध कर रहे हैं। मैंने कहा- माँ, हमने बहुत जगह पूजा-पाठ की पद्धति देखी है। कुछ का तो समान होता है, तो कुछ का हर जगह अलग-अलग । कोई पूजा एक स्थान पर होता है, तो दूसरे स्थान पर नहीं। इसका क्या कारण है। हमने देखे है, जो हमारे यहाँ छठ-पूजा होता है, उसी प्रकार अन्य घरों में भी होता है। पटना में एक श्रीवास्तव जी का परिवार है, वहाँ खरना के दिन दाल,चावल (भात), सब्जी बनता है और हमारे यहाँ खीर और अखरा रोटी। माँ बोली- सुनो पुत्र, ये जो पूजा-पाठ की पद्धतियाँ हैं, कुछ इस तरह बनाई गई हैं, जो हमारे मन-मस्तिष्क को नियंत्रित करती हैं या ये कहो की वातावरण में सम्मोहन पैदा करती हैं, जिससे मानव क्या जीव-जंतु भी सम्मोहित और आकर्षित होते हैं। कुछ पद्धति है, जो मैं सीखी हूँ, वही तुम बचपन से देख रहे हो और जो तुम करोगे, तुम्हारे बच्चे वही देखेंगे, वे भी वैसा ही करेंगे, उनकी पीढ़ी भी वैसा ही करेगी और यह पद्धति हममें रच-बस जाती है। किसी की हिम्मत नहीं होती की उसे तोड़ दे या परिवर्तित कर दे। हम उसी से नियंत्रित होते हैं।
अगर कोई परिवर्तन करने की सोचता है या करता है, तो उसे समाज के लोग प्रोत्साहित नहीं करते। उस धर्म-कर्म से नियंत्रित होने के कारण हमारे मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जो हमारे कार्य में कष्ट, बेचैनी या अपशकुन का अनुभव कराती हैं। मैं तुम्हें एक बात बताती हूँ, तुम सभी इसे अनुभव कर के देखना। अगर तुम कोई भी कार्य लगातार करते हो और वह गलती से किसी दिन छूट गया, तो उस दिन हर समय तुम बेचैन रहोगे, लगेगा की कुछ भूल गए हो या तुम्हारे साथ कोई अशुभ घटना घटने वाली है। मन लो, तुम सौ दिनों से प्रातः जगते हो, भूमि स्पर्श कर तिलक लगाते हो या अपने पूर्वज या किसी देव की तस्वीर को देखकर दिन की शुरुआत करते हो और एक सौ एकवाँ दिन उस कार्य को नहीं करते हो, तो तुम दिन भर चिंतित रहोगे। अनेक बातें तुम्हारे मन-मस्तक में आती रहेंगी। ये बात नहीं है की तुम्हें कोई परेशान कर रहा होगा, तुम्हें तुम्हारे मन की शंका परेशान कर रही होगी । तुम्हें बता दूँ की हम जैसा सोचते हैं, उसका प्रभाव थोड़ा या ज्यादा हमारे हर कार्य पर पड़ता है। जैसा सोच होगा, वैसा ही तुम्हें वातावरण मिलेगा, कार्य भी तुम उसी प्रकार का करोगे और फिर फल तो वैसा ही मिलना है।
ईश्वर शब्द में गजब की शक्ति है। जब इंसान चारों तरफ से थक जाता है, तब वह ईश्वर को मानता है। ऐसा अनेक वैज्ञानिकों ने अपनी जीवनी में भी लिखा है। वैज्ञानिक भी जीवन के अंतिम पल में ईश्वर को मानने लगते हैं।
सभी धर्मों में ईश्वर प्राप्ति के अनेक विधि-तरीके बताये गए हैं। मानवता का पालन ही ईश्वर प्राप्ति का उत्तम माध्यम है। ईश्वर तो सभी जगह व्याप्त हैं। हममें, तुममें, कण-कण में। हमें उस मृग की तरह नहीं भटकना चाहिए, जो कस्तूरी को ढूँढता रहता है। जब वह मारा जाता है, तब उसे मालूम होता है की जिस सुगंध को वह ढूँढ रहा था, वह तो उसके पास ही है। ईश्वर ऐसा प्रकाश पुंज है, जो सभी को प्रकाशित करता है, उसे देखा नहीं जा सकता। उसकी शक्ति से ध्वनि सुनी जाती है, पर उसे नहीं सुना जा सकता। हमारे वैज्ञानिकों ने प्रकाश और ध्वनि को कई भागो में बाँटा है। प्रकाश को दृश्य और अदृश्य प्रकाश में और ध्वनि को तीन भागों में विभाजित किया है। ईश्वर इससे भी परे हैं।
ईश्वर ऐसी शक्ति है, जिसके परे कुछ भी नहीं। किन्तु लोगों को वह उतना ही और वैसा ही देता है, जितना वह सम्हाल सके और जैसा उसका कर्म है, वैसा ही देता है। ईश्वर सभी जगह विराजमान है। वह समस्त ब्रह्माण्ड में सामान रूप से व्याप्त है। वह अपना बनाया हुआ नियम कभी नहीं तोड़ता। नियम टूटने पर उसकी भरपाई वह अवश्य करता या करवाता है। ईश्वर समय है, काल है पर वह काल से परे भी हैं वह समय से नहीं बंधा है।
ईश्वर का प्रकाश पुंज या शक्ति जो हमारे अंदर है, वह कितनी सूक्ष्म है, उसे नहीं लिखी जा सकती । वैज्ञानिक गणना में गणना वहाँ तक पहुँची ही नहीं है। बहुत लोगों ने इस पर शोध करने का कोशिश की है। ऐसी सुनी-सुनाई बात है की एक व्यक्ति या जीव को शीशे के कमरे में बंद किया गया था और उसे जीवित रहने के लिए उचित आवश्यकता की पूर्ति की जाती थी। ऐसा इसलिए किया जा रहा था की मालूम किया जा सके की जीव शक्ति कैसी है और वह कैसे निकलती है ? जब उसकी जीव-शक्ति ने शरीर को छोड़ा, तो शीशे का कमरा टूट गया तथा कुछ भी दृश्य उपस्थित नहीं हुआ। इससे ज्ञात होता है की कोई तो शक्ति है, जो बलवान एवं सर्वशक्तिमान है। उसका कोई अंश इतना बलवान है, जो गणना से परे है और इस छोटे अंश से जीव-शक्ति इतना कर सकता है, तो जो इसका स्रोत है, उसका क्या कहना ! वह किसी वर्णन से परे है। अन्त में मैं यही कहूँगा की ईश्वर के प्रति अपने अंदर सही अवधारणा उत्पन्न करनी चहिए।
