Jyoti Khari

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होली की पौराणिक कथाएँ।।।

होली की पौराणिक कथाएँ।।।

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होली हिंदुओं का सर्वश्रेष्ठ त्योहार माना जाता है। होलिका दहन या रंगोत्सव मनाने के पीछे कुछ विशेष पौराणिक कथाएँ एवं मान्यताएं प्रचलित हैं। रंगोत्सव के विषय में साहित्य, पुराण व इतिहास में अनेक कथाएँ मिलती हैं। होलिका दहन असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक माना जाता है। प्रत्येक भारतीय हिंदु नागरिक होली को विजय उत्सव के रूप में मानता है। यह दुराचार पर सदाचार की विजय का उत्सव है। 

हिन्दू कैलेंडर के में वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन माह पूर्णिमा को होलिका दहन होता है। 

होलिका दहन एवं रंगोत्सव से सम्बंधित अनेक कथाएँ हैं। 

होलिका दहन एवं रंगोत्सव परंपरा की छः पौराणिक कथाएं है जिसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भक्त प्रह्लाद एवं होलिका की है। होली का त्योहार

मनाने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है। परंतु छः ऐसी पौराणिक कथाएं हैं जिनके कारण होली का पर्व या रंगोत्सव मनाया जाता है।पहली होलिका और भक्त प्रह्लाद की, दूसरी श्री कृष्ण और पूतना वध की, तीसरी शिव पार्वती और कामदेव की, चौथी राजा पृथु और राक्षसी ढुंढी की। पाँचवी

राधा और कृष्ण की कथा और अंतिम होली पर्व को मनाने की प्रचलित कथा एवं मान्यता है- आर्यों का होलका। 

होलिका एवं भक्त प्रह्लाद की कथा- ऋषि कश्यप और दिति के दो पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु थे और दो पुत्रियां सिंहिका और होलिका थीं।भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया था। सिंहिका को हनुमानजी ने लंका जाते वक्त रास्ते में मार डाला था। किन्तु होलिका दहन की कथा सम्बंधित है होलिका एवं हिरण्यकशिपु से होलिका जो इनकी बहन थी। त्रैलोक्य पर विजय प्राप्ति के लिए हिरण्यकश्यपु ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या करता है और कुछ समय पश्चात हिरण्यकशिपु की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे वर मांगने को कहा तो उसने वर में वरदान माँगा-अमरता का वरदान। ब्रह्माजी ने कहा कि ये असंभव है किन्तु तुम मुझसे कुछ और माँगो वो वरदान मैं अवश्य दूँगा। 

तब हिरण्यकशिपु ने वरदान में माँगा- मैं पृथ्वी पर मौज़ूद समस्‍त प्राणियों पर राज्‍य करूं।आपके बनाए किसी प्राणी, मनुष्‍य, पशु, देवता, दैत्‍य, नागादि,पंछी किसी से मेरी मृत्‍यु न हो पाएँ। मुझे कोई न दिन में मार सके न रात में, न घर के अंदर मार सके न घर के बाहर मार सके।न हीकिसी अस्त्र के प्रहार से मेरी मृत्यु हो सके और न किसी शस्त्र के प्रहार से कोई मुझे मार सके। न ही कोई आकाश में मुझे मार सके और न पाताल में ही और न स्वर्ग में मेरी मृत्यु हो सके। न ही पृथ्वी पर मेरी मृत्यु हो सके। न किसी मनुष्य के द्वारा मेरी मृत्यु हो सके और न ही किसी पशु के द्वारा मेरी मृत्यु संभव हो सके। 

ब्रह्माजी तथास्तु कहकर हिरण्यकशिपु को वर प्रदान करके अंतर्धान हो गए।

हिरण्यकशिपु जब कठोर तपस्या में लीन था तब देवों ने असुरों पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था और देवराज इन्द्र हिरण्यकशिपु की गर्भिणी पत्नी कयाधु को बंधी बनाकर के ले गए । 

किन्तु जब रास्ते में नारद जी उन्हें मिले तो उन्होंने देवराज इंद्र को इस अनुचित कार्य के लिए कुछ महत्वपूर्ण उपदेश दिये जिससे इंद्र को अपनी गलती का आभास हुआ और कयाधु को महर्षि के आश्रम में छोड़कर स्वयं देवलोक चले गए। नारद जी ने कयाधु को विष्णु भक्ति और भागवत तत्व से अवगत कराया। यह ज्ञान गर्भ में पल रहे भक्त प्रहलाद ने भी प्राप्त किया जिसके कारण जन्म के पश्चात प्रह्लाद की अद्भुत भक्ति के बारे में हिरण्यकशिपु को पता चला। 

दूसरी ओर वरदान मिलने के कारण उसमें अहम बढ़ता चला गया और उसने पृथ्वी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उसके अंदर अमरता का भाव उत्पन्न हो गया। ऋषि-मुनियों एवं विष्णु भक्तों को तंग करने लगा, यज्ञों को नष्ट करने लगा। उसने वरदान में मगरूर होकर देवों को अपना बंदी बनाना शुरू कर दिया। 

उसने अपने राज्य में यह उद्घोषणा कर दी की उसके राज्य में उसके अलावा और किसी भी देवता की पूजा नहीं होगी। उसके इन अत्याचारों से पूरे राज्य में सभी के मन में डर का भाव उत्पन्न हो गया और सभी उसके अत्याचारों से तंग आ गए थे।

 हिरण्यकश्यपु के चार पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, संहल्लाद और प्रहलाद।

 प्रह्लाद के जन्म के पश्चात उसको गुरुकुल भेज दिया गया था। 

प्रह्लाद के शिक्षा ग्रहण करके अपने घर लौटने के पर अपने प्रभु की महिमा का वर्णन किया। अपने पुत्र के मुख से अपने शत्रु विष्णु का नाम सुनकर हिरण्यकश्यपु क्रोधित हो गया और अपने पुत्र को आदेश दिया की उसका पुत्र सिर्फ़ उसकी भक्ति करे। किन्तु इसके बावजूद भी प्रह्लाद ने विष्णु भक्ति करना बंद नहीं किया। और फ़िर असुरराज हिरण्यकश्यपु ने अपने पुत्र की हत्या का आदेश दे दिया।

 प्रह्लाद को विषधरों के सामने छोड़ा गया, हाथियों के पैरों तले कुचलवाने की कौशिश की, सैनिकों के द्वारा उसे विष देने का भी प्रयत्न किया गया। किन्तु फिर भी प्रह्लाद की विष्णु भक्ति कम नहीं हुई। 

प्रह्लाद को मारने की अनेक चेष्टा की गई किन्तु सभी विफल रही। पर्वत से नीचे भी फिंकवाया, लेकिन विष्णु कृपा से प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ।प्रहलाद को बंदी बनाकर पूरे आठ दिन तक त्रास दिया गया किन्तु सभी प्रयास विफ़ल ही रहे। 

हिरण्यकश्यपु ने अंत में अपनी बहन होलिका को अपनी समस्या के निदान के लिए बुलाया।होलिका को ब्रह्मा से वरदान प्राप्त था कि वह किसी भी प्रकार से अग्नि में जलकर नहीं मर सकती।

लेकिन होलिका को यह वरदान था कि उसे अग्नि तब तक कभी भी हानि नहीं पहुंचाएगी, जब तक कि वह किसी सद्वृत्ति वाले मनुष्य का अहित नहीं करती है और होलिका यह बात भूल गयी थी। 

फाल्गुन माह की पूर्णिमा को होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गई थी और स्वयं ही उस में जलकर भस्म हो गई और प्रह्लाद जीवित बच निकला था। 

और फिर हिरण्यकश्यपु ने क्रोध में आकर प्रह्लाद को एक खंभे से बांध दिया।हिरण्यकश्यपु ने क्रोध में आकर उससे सवाल किया की तू मेरे सिवा किसी और को जगत का स्‍वामी बताता है। कहां है वह तेरा ईश्वर? क्‍या इस खंभे में है जिससे तू बंधा है?

ये बोलकर हिरण्यकश्यपु ने खंभे को गिराने का प्रयास किया तभी खंभा फट गया और उसमें से एक भयंकर डरावना रूप प्रकट हुआ जिसका सिर सिंह का और धड़ मनुष्‍य का था। 

वह विकराल चेहरा नृसिंह अवतार था। उन्होंने हिरण्यकश्यपु को अपनी भुजाओं में पकड़ लिया वह समय संध्या का समय था। न था दिन और न ही रात थी। बीच देहली पर न न ही अंदर था न ही बाहर था। नृसिंह अवतार के रूप में ना ही मनुष्य के रूप में और न ही पशु के रूप में थे। अपने नाखूनों से उसका वध किया न ही कोई अस्‍त्र था न शस्‍त्र था। तभी से होलिका दहन पर्व की मान्यता प्रचलित है। इस कारण से इसे होलिकात्वस कहा जाता है।

और तभी से बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में होलिका दहन होने लगा और ये त्योहार मनाया जाने लगा।

श्री कृष्ण और पूतना वध- कंश ने मथुरा के राजा वसुदेव से उनका राज्य छीनकर अपने अधीन कर लिया था और अपनी बहन एवं वसुदेव को कारावास में बन्दी बनाकर डाल दिया था और स्वयं शासक बनकर प्रजा पर आत्याचार करने लगा। भविष्यवाणी द्वारा उसे पता चला था कि वसुदेव और देवकी का आठवाँ पुत्र उसके मृत्यु का कारण होगा। यह जानकर कंस चिंतित हो उठा और उसने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में डाल दिया था। कारागार में जन्म लेने वाले देवकी के सात पुत्रों की कंस ने मृत्यु कर दी थी। आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण का जन्म हुआ और खुद ही कारागार के द्वार खुल गए थे। वसुदेव रात में हीकृष्ण को गोकुल में नंद और यशोदा के घर पर ले गए थे और उस रात तेज वर्षा के कारण स्वयं शेषनाग ने वर्षा से उनकी रक्षा की थी।कृष्ण को यशोदा को देकर और उनकी नवजात कन्या को अपने साथ लेते आए। कंस ने जब उस कन्या को मारने का प्रयास किया तो वह अदृश्य हो गई और आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाले तो गोकुल में जन्म ले चुका है। कंस इस बात को सुनकर डर गया और उसे वो भविष्यवाणी सच होती प्रतीत होने लगी और उसने उस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले प्रत्येक शिशु की हत्या कर देने की योजना बनाई। इसके लिए उसने अपने आधीन काम करने वाली पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया। वह सुंदर रूप धारण करके महिलाओं में आसानी से घुलमिल जाती थी। उसका कार्य स्तनपान के बहाने शिशुओं को विषपान कराना था। अनेक शिशु उसका शिकार हुए लेकिन कृष्ण उसकी सच्चाई को समझ गए और उन्होंने पूतना का वध कर दिया। यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था। तभी से पूतनावध की खुशी में होली मनाई जाने लगी। उस दिन बुराई का अंत हुआ और इस खुशी में नंदगांववासियो ने खूब जमकर रंग खेला, और जमकर उत्सव मनाया। तभी से होली में रंग और भंग का समावेश होने लगा। 

शिव पार्वती और कामदेव- शिव और पार्वती से संबंधित एक कथा के अनुसार हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह शिव से हो किन्तु शिव अपनी कठोर तपस्या में लीन थे। कामदेव पार्वती की सहायता को आए और कामदेव ने उसी समय वसंत को याद किया और अपनी माया से वसंत का प्रभाव फैलाया उन्होंने पुष्प बाण चलाया और भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिव को ये देख कर अत्यंत क्रोध आया होली के दिन भगवान शिव की तपस्या भंग हुई थी और उन्होंने रोष में आकर कामदेव को भस्म कर दिया। क्रोध की ज्वाला में कामदेव का शरीर भस्म हो गया था।कामदेव ने सभी देवताओं के कहने पर शिवजी की तपस्या को भंग किया था क्योंकि सभी देवता चाहते थे कि शिवजी अपनी तपस्या से जागकर मां पार्वती से विवाह करें और उनका जो भी पुत्र होगा वह उनकी तारकासुर से रक्षा करे। पार्वती की कई बर्षों की आराधना सफल हुई और शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। इस कथा के आधार पर होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है और अन्य मान्यता के अनुसार कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति ने विलाप किया और शिव से कामदेव को जीवित करने की इच्छा प्रकट की। खुश होकर उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। यह दिन होली का दिन था। आज भी रति के विलाप को लोक संगीत के रूप मे गाया जाता है और चंदन की लकड़ी को अग्निदान किया जाता है ताकि कामदेव को भस्म होने मे पीड़ा ना हो। साथ ही बाद मे कामदेव के जीवित होने की खुशी मे रंगो का उत्सव मनाया जाता है।

राजा पृथु और राक्षसी ढुंढी - राजा पृथु के राज्य में ढुंढी नामक एक राक्षसी थी। उसको शिव से अमरत्व प्राप्त था और इस कारण वह लोगों को खासकर बच्चों को सताया करती थी। वहाँ की प्रजा उससे बहुत भयभीत थी।अनेक प्रकार के जप-तप से उसने बहुत से देवताओं को प्रसन्न कर के वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे कोई भी देवता, मानव, अस्त्र या शस्त्र नहीं मार सकेगा, ना ही उस पर सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई असर होगा। इस वरदान के बाद उसका अत्याचार बढ़ गया क्यों कि उसको मारना असंभव था। पृथु ने ढुंढी के अत्याचारों से तंग आकर पंडित से उससे अंत का उपाय पूछा। तब पंडित ने कहा कि यदि फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब न अधिक सर्दी होगी और न गर्मी होगी सब बच्चे एक एक लकड़ी लेकर अपने घर से निकलें। उसे एक जगह पर रखें और घास-फूस रखकर जला दें। ऊँचे स्वर में मंत्र पढ़ें और अग्नि की प्रदक्षिणा करें। तो राक्षसी मर सकती है। पंडित की सलाह का पालन किया गया और जब ढुंढी इतने सारे बच्चों को देखकर अग्नि के समीप आई तो बच्चों ने एक समूह बनाकर ढुंढी को घेरा।किंतु शिव ने यह कहा था कि खेलते हुए बच्चों का शोर-गुल या हुडदंग उसकी मृृत्यु का कारण बन सकता है। और इसी कारण उसकी मृत्यु हुई थी। कहते हैं कि इसी परंपरा का पालन करते हुए आज भी होली पर बच्चे शोरगुल और गाना बजाना करते हैं। इस प्रकार बच्चों पर से राक्षसी बाधा तथा प्रजा के भय का निवारण हुआ। यह दिन ही होलिका तथा कालान्तर में होली के नाम से प्रचलित हुआ।

राधा और कृष्ण की कथा- होली का त्योहार राधा और कृष्ण की पावन प्रेम कहानी से भी जुडा हुआ है। वसंत के सुंदर मौसम में एक दूसरे पर रंग डालना उनकी लीला का एक अंग माना गया था। मथुरा और वृन्दावन की होली राधा और कृष्ण के इसी रंग में डूबी हुई होती है। बरसाने और नंदगाँव की लठमार होली तो प्रसिद्ध है ही । देश विदेश में श्रीकृष्ण के अन्य स्थलों पर भी होली की परंपरा है। यह भी माना गया है कि भक्ति में डूबे वृंदावन के लोगों की होली प्रेम स परिपूर्ण एवं सद्भावना की होली होती है। होली का रंग होता है प्रेम का, भाव का, भक्ति का, विश्वास का। होली उत्सव पर होली जलाई जाती है अंहकार की, अहम् की, वैर द्वेष की, ईर्ष्या की, और मिलकर खेलते हैं विशुद्ध प्रेम की होली। होलिका दहन के बाद 'रंग उत्सव' मनाने की परंपरा कृष्ण के काल से प्रारंभ हुई थी तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंग पंचमी मनाई जाती है। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्योहार में रंग को जोड़ा था।

 पहले होली के पलाश के फूलों से बनते थे और उन्हें गुलाल कहा जाता था। ये होली के रंग हमारे जीवन में भी अनेक रंग भर देते हैं। 

आर्यों का होलका- अंतिम मान्यता प्रचलित है आर्यों का होलका की। प्राचीनकाल में होली को होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे।होलका खेत में पड़ा हुआ वह अन्न होता था जो आधा कच्चा और आधा पका हुआ होता था और इस अन्न को सबसे पहले अग्नि को चढ़ाया जाता था इसलिए इसका नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा। प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ भाग पहले देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है। इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह त्योहार वैदिक काल से ही मनाया जाता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली मनाए जाने के सबूत मिलते हैं। 

होली से सम्बंधित ये कुछ कथाएँ प्रचलित हैं जिनके कारण होली का पर्व मनाया जाता है।

होली के पर्व पर सभी समुदाय के लोग म‍िलते हैं और खुश‍ियों को अपने-अपने तरीकों से बांटते हैं। यही सीख बच्‍चों को भी मिलती है। इस त्यौहार पर आपस में प्रेम का भाव बढ़ता है। होली एक

ऐसा त्‍यौहार है ज‍िसमें लोगों को पर‍िवार और र‍िश्‍तों के बीच रहने का मौका म‍िलता है। इस प्रकार होली पर पर‍िवार का महत्‍व भी बढ़ जाता है।इस त्योहार पर आपस में सभी में भाईचारा क़ायम रहता है। 

होली के त्‍यौहार का संदेश यही है क‍ि बुराई पर अच्‍छाई की जीत होती है। बच्‍चों को अच्‍छे काम करने के ल‍िए ये संदेश प्रेर‍ित करता है उन्हें जीवन में। यह पर्व राधा और कृष्ण के शाश्वत और दिव्य प्रेम का जश्न मनाता है । इसके अतिरिक्त, यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का भी प्रतीक है, क्योंकि यह हिरण्यकशिपु पर नरसिंह के रूप में विष्णु की जीत का स्मरण कराता है। और सदेव बुराई की हार होती हैं ये हमें सीख देता है। और अंतिम सीख मेरे जीवन की सिर्फ़ ये ही है कि रंगो का त्योहार हमारे जीवन के अनेक रंगो से हमें रूबरू कराता है और जीवन में सच्चाई एवं प्रेम की अद्भुत परिभाषा से हमें अवगत कराता है। 

मेरे जीवन में होली का महत्व हमारे जीवन के अनेक सुंदर रंगों से है। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में ये त्योहार हमें अनेकों सीख देता है।।। 



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