हम देहात के बच्चे
हम देहात के बच्चे
हम देहात के निकले बच्चे थे। पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी। कक्षा के तनाव में स्लेटी खाकर हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जाते थे। कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार ए बी सी डी देखी, स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग तो आज तक न सीख पाए। हम देहात के बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी। कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां लगाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था।
ब्लू शर्ट और खाकी पेंट में जब हम इंटरमीडिएट कालेज पहुँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ। गाँव से आठ दस किलोमीटर दूर के कस्बे में साइकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साइकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन हैंडपम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगों के मध्य फंसाकर साइकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे।
स्कूल में पिटते मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता। हम देहात के बच्चें शायद तब तक जानते नहीं थे कि ईगो होता क्या है। क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता और हम अपनी पूरी खिलदण्डिता से हंसते पाए जाते।
रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। हम देहात के निकले बच्चें सपने देखने का सलीका नहीं सीख पातें, अपने माँ बाप को ये कभी नहीं बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं। हम देहात से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनते हैं। कुछ मंजिल पा जाते हैं, कुछ यूं ही खो जाते हैं। एकलव्य होना हमारी नियति है शायद। देहात से निकले बच्चों की दुनिया उतनी रंगीन होती वो ब्लैक एंड व्हाइट में रंग भरने की कोशिश जरूर करते हैं।
पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन हम देहात के बच्चों के अपने देहाती संकोच जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करते हैं। नहीं छोड़ पाते हैं सुड़क सुड़क की ध्वनि के साथ चाय पीना, अनजान जगह जाकर रास्ता कई कई दफा पूछना। कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है।
अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते हैं आत्मविश्वास।
हम देहात से निकले बच्चे थोड़े अलग नहीं पूरे अलग होते हैं। अपनी आसपास की दुनिया में जीते हुए भी खुद को हमेशा पाते हैं थोड़ा प्रासंगिक थोड़ा अप्रासंगिक।