हौसलों की उड़ान
हौसलों की उड़ान
आज खेत में गेहूँ की कुछ अधपकी फ़सल देख कर उस की आँखे ख़ुशी से नम हो गयी। याद हो आया वह समय जब उस के पिता उन सब को छोड़ इस दुनिया से चले गये थे।
माँ ने कहाँ था "बेटी खेत दीनू को बँटाई पर दे देते है।जितनी फ़सल होगी उसका तीन हिस्सा फ़सल हमे देगा।साल भर का अनाज होता था ,अब आधे में ही गुज़ारा करना पड़ेगा।"
"नहीं माँ अब हम मिलकर अपने खेत को जोतेंगे"। उस ने कहा था।
"पर बेटी तुम्हारे पिता तुमको पढ़ाना चाहते थे!" माँ ने कहाँ।
"माँ पढ़ाई भी साथ में ज़री रखूँगी।"
"ठीक है जब तुमने ठान ही लिया है, तो मैं तुम्हारे हर फैसले मे साथ हूँ। "माँ ने कहाँ "।
जब खेत जोतने लगी तो गाँव के लोगो ने कितनी बातें की थी।"अरे ये औरतों का काम नही "ये नहीं कर पाओगी ! दो अक्षर क्या पढ़ ली पता नहीं अपने को क्या समझने लगी ,चली है खेत जोतने।"
आसान नहीं था।
पर माँ बेटी ने मिल आख़िर बीज बो दिया था।और समय पर पानी और गुड़ाई भी करती रही। मेहनत रंग लायी ! फसल पक कर तैयार हो गयी।
"ले बेटी कुछ खा ले आज बिना कुछ खाये ही खेत देखने चली आयी।बेटी ये तुम्हारे हौसले का ही नतीजा है, मैंने तो हिम्मत हार ही दी थी, हमारा क्या होता ?"
बेटी को खेत निहारते देख ,माँ ने कहाँ।माँ बापु तो हमेशा कहते थे।" मेहनत, लगन और हौसले से क्या नहीं किया जा सकता।
माँ अच्छा हुआ तुम खाना ले आयी। भूख भी लगी है। "खाना खाने लगी।
