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Naveen Singh

Drama

4  

Naveen Singh

Drama

गूँज (The Echo): बदलते समय के साथ दबते स्वर (prompt#24)

गूँज (The Echo): बदलते समय के साथ दबते स्वर (prompt#24)

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बात उस समय की है जब लोग आपस में ही बात किया करते थे। एक गाँव में एक बहुत बड़ा परिवार रहता था। परिवार में इतने ज़्यादा लोग थे कि आदमी अगर मन में भी कुछ बोले तो कोई-न- कोई सुन ले। ऐसे परिवार में सब लोग साथ बैठते, हँसी-ख़ुशी से बातें करते, एक दूसरी की ख़ुशियों को साझा करते और तकलीफों को दूर करने के उपाय में जूझे रहते थे। एक की ख़ुशी दूसरे के चेहरे पर झलकती थी। ख़ुशियों का गुनाकार होता था, लेकिन किसी का छोटा सा ग़म भी सबमें साझा होकर बहुत कम हो जाता था। घर के मुखिया दीनानाथ ने सबको जीवन जीने की वो कला सिखाई थी, जो किसी किताब में नहीं लिखी थी। किसी विद्यालय में पढ़ी नहीं जा सकता थी। दीनानाथ को पता था, सुख-दुःख साझा करने की कला बच्चों को हमेशा जीवन में प्रसन्न रखेगी। दीनानाथ को लोगों से बातें करना बहुत अच्छा लगता था। ख़ास तौर से लोगों की सुनना। उनका मानना था कि बोलने वाले लोग तो बहुत हैं, परन्तु सुनने वाले लोगों की कमी होती जा रही है। इसलिए वो बड़े ही धैर्य के साथ सामने वाले की बातें सुना करते थे। बातें सुनने-सुनाने के अलावा एक और कला में पारंगत थे-दूसरों का मार्ग दर्शन करने में। जब भी किसी को कोई उलझन होती थी तो वो दीनानाथ जी के पास आता था। वो बड़े ही तर्कसंगत और टिकाऊ उपाय बताते थे।

दीनानाथ जानवर पालने के बड़े शौक़ीन थे। गाय, भैंस, बकरी और कुत्ता उनके द्वार की शोभा थे। गाँव के कुछ लोग तो बोलते थे कि वे जानवर व्यसाय के लिए पालते हैं, लेकिन ये समझना लोगों के बस की बात नहीं थी। अब कोई जानवर पालेगा भी तो ३-३ कुत्ता क्यों पालेगा ? २ जवान और एक बच्चा हमेशा रहता था, ताकि कुत्तों की पीढ़ियाँ चलती रहे। व्यवसायी होते तो इतने कुत्ते क्यों ? असल में वो जानवरों को अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे। बस उनको स्कूल भर नहीं भेज पाए, नहीं तो साथ में रहने की जो तालीम अपने घर वालों को दिए थे,वहीं संस्कार जानवरों को भी सिखलाये थे।

समय बीतता गया। दीनानाथ का पौरुष थकता गया। अब उनके पास पहले जैसी पहाड़ तोड़ने की शक्ति नहीं रही। अकेले बीघे का गेहूँ काटने की क्षमता चली गई। सफ़ेद बाल उनकी ढलती उम्र का प्रमाण पत्र बन गये। चेहरे पर झुर्रियाँ आ गईं थीं । माथे पर लकीरें उनके भाग्य को कम और उनके भूत के अनुभवों का बखान अधिक करती थीं। लकीरों को घेरती हुयी माथे पर धानी रंग की मांसपेशियाँ उभर आयीं थीं। ये भी लकीरों के जैसे क्या कुछ कहने का प्रयास कर रहीं थीं ? इन्ही पर तो ज़ोर डालकर कर उन्होंने अपने घर और पास-पड़ोस को राह दिखालाई थी। उनका शरीर हर तरफ से ढीला होता जा रहा था। जैसे त्वचा आत्मा से पहले ही शरीर का साथ छोड़ने का मन बना ली हो। त्वचा को कोई पहले ही बता दिया हो कि वो समय ढलने पर अग्नि की आहुति होने वाली है । इसलिए चमड़े ने पहले से ही अपने आपको सूखा लिया हो। सूखी चीज़ें आसानी से जलती हैं और धुआँ भी कम छोड़ती हैं। कितना सहज है प्रकृति का व्यवहार !

बढ़ते समय ने परिवार को छोटा कर दिया था।अब दीनानाथ जी अपने भाइयों से अलग अपने बेटों के परिवार के साथ रहते थे। थकते हुए पौरुष के कारण जानवरों की देखभाल में भी कमी आने लगी। दीनानाथ जी चाहते थे कि घर वाले स्वतः देखभाल करें। वो किसी के ऊपर लदते नहीं थे । घर में सब आधुनिक हो चुके थे। स्मार्ट फोन के ज़माने में जानवर कौन पाले? सबको फल से मतलब था। पेड़ कौन रोपे और पानी कौन डाले। उनकी जतन करने के झंझट में कौन पड़े। दूध-दही का इंतज़ाम वो दूध वाला कर सकता था। झट मँगनी पट ब्याह का ज़माना आ चुका था। इसलिए बेटों ने अपने बाऊजी को जानवरों को बेचने के लिएमना लिया। दीनानाथ ने सोचा कि पशुओं की देखभाल यहाँ पर तो ठीक से होगी नहीं, तो इनको खूंटे से बाँधकर अपनी आँखों के सामने दुर्गति होते देखने से तो अच्छा है कि इनको बेच ही दिया जाय। अपने दर्द को छुपा कर उन्होंने पशुओं बेचने के फैसले पर मुहर लगा दी। लेकिन जब भी कोई जानवर को खरीदने आता था तो वोस्वयं द्वार छोड़कर सिवान में चले जाते थे। वो अपनी आँखों से अपने परिवार को घटता नहीं देख पाते थे । जब घर वापस आते तो सूना खूँटा देखकर बहुत ही टीस में होते और उस दिन भोजन नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे दीनानाथ को पता चल गया था कि नयी पीढ़ी को जो शिक्षा वो देना चाहते थे, उसमे वो असफल रहे। समय से साथ सब जानवर बिक गये। तीन कुत्तों में से एक कुत्ता बच गया, मोती । उसको घर के दरबान के काम के लिए रख लिया।

समय बड़ा स्वार्थी होता है। अब दीनानाथ के पास लोगों का उठना-बैठना कम हो गया था। उनके घर के लोग ज़रूरत की सभी चीज़ें उनको समय-समय पर उपलब्ध करा देते थे। जैसे सुबह की चाय, दोपहर का खाना, रात का बिस्तर, सब कुछ समय पर उपलब्ध कराते थे। उनको कोई कमी न हो इस बात का पूरा ध्यान रखते थे। उनको उपलब्ध सुविधाएँ किसी शहर से कम नहीं थीं। दीनानाथ सामाजिक आदमी थे। उनको लोगों के उनके साथ में बैठकी की ज़रूरत थी, परन्तु उनके पास कोई फ़ुर्सत से बैठता नहीं था, जिसके साथ वो दो बातें कर सकें। घर में सब व्यस्त दिखते थे तो कहने में संकोच भी होता था। कुछ बातें अगर कहनी पड़ें तो उनको न कहना ही अच्छा होता है। यह बात तो स्वयं समझने की थी। दीनानाथ अपने आपको अभिव्यक्त न करने के कारण धीरे-धीरे संकुचित होते गये। दीनानाथ की बाहरी ठाठ जितनी आलिशान थी, उनके अंदर का सूनापन उतना ही दीन। काश घटती सांसों के साथ नाम भी कोई छोटा कर देता, वो दीनानाथ से दीन हो गए थे । अब घर में वो एकदम न के बराबर बोलते थे। जब अंदर से आदमी घुटता है तो उसके मन की खिड़की से दिखता है। चेहरा मन का शीशा होता है। दीनानाथ के चेहरे का ओज दिन-प्रतिदिन तेज़ी से ढल रहा था। यह ढलाव उनके घर में किसी ने नहीं देखा। उनका एक बेटा, मटरू, जो उनको सबसे अच्छे से जानता था, उनकी जरूरतों का ध्यान रखता था, एक दिन एक TV खरीदकर ले आया। पिता जी को देते हुए बड़ी आत्मीयता और विनम्रता से बोला,

"पिता जी,अब आप अपना दूरदर्शन देख पायेंगे। इससे आपका समय भी अच्छा कटेगा। (थोड़ा मुस्कुराते हुए ) नये ज़माने वाले चैनल भी इसमें हैं। "दीनानाथ जी ने मुस्कुराकर मटरू की भेंट स्वीकार कर ली। लेकिन एक शब्द भी न बोल पाए और फिर अतीत में कहीं ठहर गये। शायद रामायण और महाभारत देखने की इच्छा लिये बैठे हों।

दीनानाथ के परिवार का एक सदस्य उनको अच्छे से जनता था। वह दीननाथ की लाचारी समझ रहा था। दीनानाथ को कानों की तलाश थी, वो जानता था। जानवरों का परिवार, जो दीनानाथ के मुख्य श्रोता थे, अब नहीं रहे। घर के दूसरे लोग उसको अपने घर का सदस्य नहीं मानते थे। इसलिए वो भी दीनानाथ की आत्मसम्मान की राह पर था, लेकिन वो दीनानाथ की दुर्दिनता देखकर एक दिन दीनानाथ के पास जाने का प्रयास किया।

रात में दीनानाथ घर से सटे एक कमरे में एक पलंग पर सोते थे। जब सारे लोग सो गये तब मोती दीनानाथ के पास गया और पूँछ हिलाने लगा। अंधेरा था, फिर भी दीनानाथ जान गए थे कि मोती आया है। लेकिन वो हाँफ रहा था, तरह-तरह की आवाज़े निकालकर कुछ कहने का प्रयास कर रहा था। दीनानाथ ने बिस्तर से उठकर लाइट जलाई और मोती की तरफ देखा। मोती उनके पैर के पास आ खड़ा था। अपनी गर्दन उनके पैर से सटाकर और पास आ गया। अपने झबराले बालों से मालिक को सहलाने का प्रयास कर रहा था, जैसे उनके पीड़ित ह्रदय को सहलाने का प्रयास कर रहा हो। दीनानाथ को लगा कि ये पहले तो ऐसा कभी नहीं करता था। आज अचानक ? फिर वो जाकर अपने बिस्तर पर बैठे। उनकी नज़र मोती के चेहरे पर पड़ी। मोती की आँखों से पानी गिर रहा था। दीनानाथ आदमियों का ही नहीं, जानवरों का भी मर्म जानते थे। मोती दुखी था। उसकी आँखों में पानी नहीं म

ालिक की पीड़ा के आँसू थे।

वो मोती से बोले :

"क्यों भाई ? तुम क्यों दुःखी हो ? लगता है, कि तुम को भी बेचने का समय आ गया है। "

"ख़ैर, तुम मेरी बातों का उत्तर कैसे दोगे ? तुम को मूक हो, पशु हो। बोलने लायक तो आदमी हैं । .... मेरी सुनाने की चाहत भी न ..ख़ैर "

"घर में खाना ठीक से नहीं मिलता ?.... मेरे खाने के समय आना, दो रोटी तुम को भी देता हूँ। "

" बाहर तुम को ठण्ड लगती होगी... , तो मेरे चौकी के नीचे सो जाना। बोरे का इंतज़ाम कर दूँगा। "

ऐसे करते-करते दीनानाथ काफ़ी बातें बोल गये। मोती उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनता और कुछ-कुछ आवाजें निकालता था। दुम हिलाता था। मानो आवाज़ और पूँछ के माध्यम से अपने उत्तर दर्ज़ कराने का प्रयास कर रहा हो। जैसे कुत्ता भी सहानुभूति का पाठ पढ़ा हो।

ऐसी बातें करते-करते दीनानाथ जी लेट गये और उनकी आँख लग गई। भोर में उठे तो मोती को अपनी चौकी के नीचे बैठा पाए। फिर उससे बातें करना शुरू कर दिये।

" अरे मोती ! तुम यहीं सोये हो ! "

"चलो अच्छा है। "

"रोज़ाना यहीं सो जाना। "

बात करने का तरीका वहीं था।


अब दीनानाथ को पहले से काफ़ी अच्छा महसूस हो रहा था। जैसे मोती ने उनके सीने पर रखा बोझ उठा लिया हो। अधमरे दिये के अंदर तेल भर दिया हो और बाती को खिसका के ऊपर कर दिया हो। मोती के रूप में वो दोस्त उनको मिल गया हो, जिससे वो अपने मन की बातें साझा कर सकते थे। सबसे बड़े संतोष की बात तो यह थी कि मोती उनकी बातों का मज़ाक नहीं उड़ाएगा और चाह के भी दूसरों से बोल नहीं पाएगा। क्योंकि दीनानाथ को मज़ाक का विषय बनना कतई बर्दाश्त नहीं था। बढ़ती उम्र में मज़ाक बनने की सहनशीलता भी घिस जाती है। महीनों ऐसे ही चलता रहा। दीनानाथ के चहरे की रौनक लौट आई थी । जैसे साँप को उसकी मणि वापस मिल गयी हो। वो फिर से जीवंत हो उठे थे।

रात को सोते समय और भोर का समय दीनानाथ -मोती वार्तालाप का समय होता था। घर के लोगों को इस बातचीत की ख़बर न थी। एक दिन दीनानाथ की बहू, मटरू की पत्नी को रात में बाबू जी के कमरे से आवाजें सुनाई दीं । उसको लगा, कि ससुर जी सपने में बड़बड़ा रहे हैं। लेकिन अगले दिन फिर वहीं बड़बड़ाहट ! तब उसने मटरू से बोला,

"सुनिये, लगता है बाबू जी थोड़ा मानसिक रूप से गड़बड़ चल रहे हैं। रोज़ रात में बड़बड़ाते रहते हैं। उम्र चढ़ रही है। "

मटरू, " कुछ नहीं, वो सोने से पहले राम का नाम लेते होंगे, ये तो अच्छी बात है। तुम भी लिया करो। मुक्ति में आसानी होगी। "

मटरू की पत्नी, "मेरी बात मानो, उनको पागलों वाले डॉक्टर को एक बार दिखा दो। ज़्यादा हालत ख़राब होगी तो कौन देखभाल करेगा ? मुझसे तो नहीं हो पाएगा ये सब। आप ही खूँटा अगोर के बैठना। "

मटरू अगले दिन सुबह पिता जी के पास जाकर पूछा,

"पिता जी, आप ठीक हैं न ? TV ठीक काम कर रही है न ? आजकल रात में आपके कमरे से कुछ आवाजें आती हैं। किससे बातें करते हैं ?"

दीनानाथ थोड़ा हड़बड़ाकर बोले, "अरे! कैसी आवाज़ ? मुझे क्या पता?... हो सकता हो कभी सपने में .. "

मटरू को पत्नी का भ्रम सही लगा। बाबूजी को शहर घुमाने के बहाने एक मानसिक चिकित्सक डॉ. राय के यहाँ ले गया। बोला कि आइये आपको अपने एक मित्र से मिलवाता हूँ।

डॉ. राय ने दीनानाथ जी से एकांत में कुछ समय बातें करने के बाद दीनानाथ के बेटे मटरू को बुलाया। अकेले में ले जाकर,

"आपके पिता जी तो एकदम सही हैं, समस्या आप लोगों में है। उनके साथ आप लोग बैठिये, अपनेपन का एहसास कराइये। "

मटरू,

"डॉक्टर साब, हम लोग हमेशा इनके आगे-पीछे एक पैर पर खड़े रहते हैं। किसी चीज़ की कमी नहीं होने देते।

डॉ. राय : "भाई, मैं औपचारिकता की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़िये आप लोग, वो अकेलेपन से ग्रसित हैं। जो लोग सामाजिक रूप से घुले-मिले होते हैं,उनको आजीवन लोगों के साथ उठना बैठना अच्छा लगता है। लोग नहीं मिलेंगे, तो अभिव्यक्ति के आभाव से उनको तनाव होगा। तनाव रोगों का जनक है। पुराने लोग आज के तेज़ी से बदलते माहौल में अपने आपको ढालने का प्रयास मात्र कर पा रहे हैं। असल में जिस तेज़ी से समाज में तकनीकी परिवर्तन हुआ है, उस गति को समाज के बुजुर्ग लोग पकड़ नहीं पा रहे हैं। आराम करने वाली उम्र में खुद को समाज में बनाये रखने की जद्दोज़हद कर रहे हैं। उनके मस्तिष्क में चल रहे इस द्वंद्व को समझिए।"

मटरू, "तो ये बात हम लोगों से क्यों नहीं बोले ?"

डॉ. राय, " जहाँ मज़ाक बनने की संभावना होती है, लोग मुँह नहीं खोलते हैं, ख़ास तौर से बुजुर्ग लोग। उनको समझने के लिये घर के लोगों को ख़ुद से प्रयास करने की जरूरत थी। "

मटरू, "तो रात में पिताजी बड़बड़ाते क्यों हैं ?"

डॉ. राय, "आपके घर में मोती कौन है? रात में उसी से बातें करते-करते सो जाते हैं। रात में ही नहीं , वो तो भोर में भी उससे बातें करते हैं। उनका बहुत क़रीबी लगता है । "

अब मटरू सन्न हो गया। उसके चहरे का रंग मटमैला हो गया। अब वो कैसे बताता, 'मोती कौन है ?' मोती एक जानवर का नाम है ! मोती एक कुत्ता है ! जिसकी तीन पीढ़ियों को दीनानाथ ने पाला था। जिसको वो लोग दुरदुराते रहते थे। उसको जानवर से ज़्यादा और कुछ नहीं समझते थे। लेकिन कुत्ता वफ़ादारी निभा रहा था, लेकिन ख़ुद के ख़ून औपचारिकता का ढोंग कर रहे थे। मटरू ख़ुद को बहुत तेज और अपने पिता के क़रीब मानता था। सब तेजी उसकी चुप्पी की तरह शून्य में विलीन हो चुकी थी। वो समझने का प्रयास कर रहा था कि किस मोड़ पे चूक हुई ? कहाँ पर आँख पर पर्दा पड़ा ? तार कब टूटा इत्यादि तमाम सवालों के ज़वाबों की तलाश में था। वो डॉक्टर साहब के सवाल, 'मोती कौन है ?', का उत्तर देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

उसने डॉक्टर साहब को क्षुब्ध ह्रदय से धन्यवाद कहा और बाहरइंतज़ार कर रहे पिता को लेकर घर चला गया। रास्ते भर उसका सिर शर्म से झुका हुआ था। गला भरा हुआ था। मन ही मन वो प्रायश्चित करना चाहता था, लेकिन उसको पता नहीं था कि शुरु कहाँ से करे। मटरू कृतसंकल्प था कि वो पुराने दीनानाथ को वापस लाएगा। रास्ते में दोनो लोग शांत थे। मटरू लजा गया था, डॉ. राय उसके दोस्त नहीं थे। दोहरी लज्जा ने उसका सिर कई गुना ज़मीन की ओर गाड़ दिया था।  घर पर मटरू की बीवी बड़े ही अधीरज से बाबू जी की तबियत के बारे में जानने के लिए आतुर थी। जैसे उसने मान ही लिया हो कि बाबू जी को अमुक बीमारी है । वो डॉक्टर है और डॉ. राय की उसकी रिपोर्ट पर बस मुहर लगनी बाकी थी। "देखे, मैंने बोला था न " जैसे शब्दों के साथ अपना मुँह खोलने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। अधिकांश लोग अपने आपको सही साबित करके सीना चौड़ा करने का प्रयास करते हैं , गर्व महसूस करते हैं, फिर चाहे उनकी रिपोर्ट किसी को नुकसान पहुँचाने वाली ही क्यों न हो ? मोती भी अपने मालिक की प्रतीक्षा में था।  मटरू मुँह लटकाये हुए घर पहुँचता है, दीनानाथ पहले ही अपने चमकते चेहरे के साथ अपने कमरे में चले गये। मोती अपने मालिक के पीछे-पीछे। मटरू की पत्नी, "क्या रोग निकला है ?"मटरू, "डॉक्टर साब बुलाए हैं जाँच के लिए। "पत्नी, "तो आज जाँच नहीं किये ?"मटरू, "पूरे परिवार की एक ही साथ करेंगे। "पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, "क्या पहेली बुझा रहे हैं ?"मटरू, "डॉक्टर साब ने बोला है कि बाबू जी एकदम ठीक हैं, हम लोगों के अंदर रोग पैठ गया है। अगले हफ़्ते का नंबर लगाकर आये हैं , तैयार रहना। "



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