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Arunima Thakur

Inspirational

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Arunima Thakur

Inspirational

गुरु, गुरु ही होता है

गुरु, गुरु ही होता है

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अपनी आलीशान सोसाइटी से बाहर निकलते ही सुयश ने अनजाने में ही सामने लगे बरगद के पेड़ के नीचे देखा। हा वह बैठी थी। वह कौन..? एक भिखारिन..! शायद, हा हा भिखारिन ही थी। अभी तीन चार दिन पहले गेट से बाहर निकलते ही उसकी कार के एकदम सामने आ गयी थी। सुयश का मन तो हुआ जोर से गाली देकर बोले अरी बुढ़िया मरने के लिए तुझे मेरी कार ही मिली ? पर संस्कार ... वो संस्कार जो माँ पापा ने दिए थे। क्या अभी उसमे बचे है? पता नही शायद हा या शायद नही जो भी हो सुयश अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के सामने शालीनता से ही व्यवहार करता है। तो वह झट से दरवाजा खोल कर उतरा, माँ जी लगी तो नहीं ? फिर पर्स से सौ सौ (हा आज डेबिट क्रेडिट कार्ड के जमाने मे थोड़े छुट्टे पैसे पर्स में रखता है वह ) के पाँच नोट निकाल कर बुढ़िया को देते हुए बोला रख लो काम आएंगे। सुयश जानता है ये पाँच सौ रुपये नही उसकी रेपुटेशन बनाने की सीढ़ी है। चौकीदार, ड्राइवर तमाशबीन लोग उसकी दानवीरता और अच्छे स्वभाव के चर्चे फैला देंगे । शायद किसी उत्साही ने वीडियो भी बना लिया हो। यह सोचकर वह मुस्कुराते हुए कार में बैठा। बैठते वक़्त एक भरपूर निगाह उसने बुढ़िया पर डाली। बुढ़िया उसे दोनों हाथों से आशीर्वाद दे रही थी। यह चेहरा... , यह चेहरा तो बहुत जाना पहचाना सा लगता है। पर यहाँ अनजान शहर में कौन उसकी जान पहचान का होगा वो भी भिखारिन...। 


कार में बैठे हुए फ़ाइल पलटते समय भी वह चेहरा यादो की स्लेट पर दस्तक दे रहा था। कोई बहुत ही परिचित जिसके इस रूप की उसने कल्पना नही की थी पर कौन ? अभी पाँच महीने पहले ही तो अपना पुराना शहर छोड़ कर वह इस शहर में आया है। वैसे कहने की बात है वरना शहर तो कब का छूट गया था, पढ़ाई, नौकरी इन सब की भागमभाग में, अबकी बार तो जड़े भी उखाड़ फेंकी थी। हा घर भी बेच दिया था। क्या इन पाँच महीनों में कभी किसी सिग्नल पर दिखी होगी ? पूरा दिन व्यस्तता में बीत गया तो उस पर से ध्यान भी हट गया। दूसरे दिन गेट से निकलते वक्त फिर वह उसे दिखी। उसके बाद तो आते जाते अक्सर वह दिख जाती बरगद के पेड़ के नीचे बैठी। एक दिन मन मे झुंझलाकर, ऊपर से सामान्य स्वर में वह बोला, "इस भिखारिन ने यहाँ अड्डा ही बना लिया है। ऐसे ही यह लोग यहाँ आकर रहने लगे तो पूरे इलाके की .... " इतना बोल कर बाकी के शब्द उसने मुँह में ही रखे, भाई रेपुटेशन का सवाल था। वह ऐसा वैसा कुछ भी यू ही नही बोल सकता था। प्रकट में बोला, "इन लोगो के लिए भी एक घर होना चाहिए, वृद्धाश्रम जैसा"। ड्राइवर बोला, "साहब ! शक्ल से तो अच्छे घर की लगती है। लगता है हालात की मारी है। वृद्धाश्रम तो अमीर औलादो के माँ बाप के लिए होता है"। सुयश का पूरा शरीर झनझना गया। अचानक से उसे याद आया अरे , यह .. यह तो उसकी इतिहास की शिक्षिका है। पर इस हाल में ? यह माना उनकी परिस्थिति अच्छी नही थी पर इतनी बुरी हालत ... और वो भी यहाँ । उसने तुरंत गाड़ी को मोड़ कर उस बुढ़िया के पास ले जाने को बोला और सोचने लगा उसकी यह सबसे कठोर, अनुशासित और विरोधाभास के रूप में विद्यार्थियों की उतनी ही प्रिय शिक्षिका इस हाल में और यहाँ कैसे ? वह इतनी योग्य थी कि कभी उसने किताब हाथ मे ले कर नही पढ़ाया। क्या सब उसे मुँह जुबानी याद था , किताबे भी सारी कक्षाओं की। उसका डायलॉग आज भी सुयश का पसंदीदा है," it's true practice makes you perfect. But it's passion who guide you to do the work perfectly." और वही आज इस हाल में ! 


कार के रुकते ही वह तुंरत उतरा , नसीब से वह वही चिलचिलाती धूप में बैठी थी। सुयश यह पूछने की हिम्मत भी नही कर पा रहा था कि क्या आप विद्या मिस हो ? उसने पूछा अब आप कैसी हो? उस दिन ज्यादा चोट तो नही आई थी ना। आप कौन हो ? मुझे आपको देख कर अपनी एक शिक्षिका की याद आती है। क्या आप का नाम विद्या है ? क्या आप अमुक शहर में रहती थी ? वह बुढ़िया तो फूट फूट कर रोने लगी । हा वह सुयश की विद्या मिस ही थी।


 "मिस आप इस हाल में शहर से इतनी दूर कैसे" ? 


मिस ने बताया, "मेरा बेटा मुझे पूर्वोत्तर भारत घुमाने ले गया था। एक दिन भीड़ में मैं उससे बिछड़ गयी। अनजान भाषा अनजान लोग"।


"पर आप तो पढ़ी लिखी हो । आप वापस घर जा सकती थी"।


"हा बेटा वही किया । अपने पति की निशानी अपनी अगूंठी बेचकर शहर वापस गयी तो पता चला वो घर बार बेच कर अपने परिवार सहित ना जाने कहाँ चला गया है"। 


"पर वो ऐसा कैसे कर सकता था। साथ नही रखना था तो आप को आपके घर से बेदखल नही करना चाहिए था"। क्रोध से तमतमा कर सुयश बोला, "कम से कम कही अच्छे वृद्धाश्रम में आपका इंतजाम तो करना ही चाहिए था"। 


आँसुओ को पोंछते हुए वह बोली, "आज कल के बच्चे ऐसे ही है। देखो जाते जाते मुझ बेचारी के हाथ मे यह पर्चा थमा गया था"।


 उस भिखारिन ने अपनी मैली कुचैली गांठ से एक तुड़ा मुड़ा कागज निकाला। उसमे लिखा था जो भी इसे पढ़ रहा है वह इन्हें वृद्धाश्रम पहुँचा दे। सुयश काँप गया क्या यह बिल्कुल उस पर्चे जैसा नही है। 


ऐसा ही एक पर्चा तो वह भी महीनों पहले अपनी .....। सुयश ने दोनो हाथों से अपना सिर पकड़ लिया । पर यह पर्चा इनके पास कैसे ? जो भी वह बोल रहा है क्या उसे बोलने का अधिकार भी है ? क्या मिस के बेटे जैसी ही हरकत उसने नही की थी। मिस तो पढ़ी लिखी है फिर भी उनकी यह हालत.. उसकी माँ....बेचारी क्या वह भी ऐसे ही भीख मांग रही होगी। वह माँ जो चलते समय अपनी साड़ी का पल्लू उसके सिर पर रख देती थी कि उसे धूप ना लगे। वह माँ जो बारिश में पूरी छतरी उस पर रखती थी कि वह भीग ना जाये, वह धूप बारिश में ना जाने कहाँ दर दर भटक रही होगी। 


अचानक से वह विद्या मिस के पैरों को पकड़कर रोने लगा, "सॉरी मिस, वेरी सॉरी मिस। मम्मी आप के साथ है ना। आप फिर से मुझे मेरी गलती का आभास कराने के लिए यह सब कर रही हो ना। मिस मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। माना मेरे गुनाहों की माफी नही है पर हमेशा की तरह आपने मुझे सही रास्ता दिखाया। मुझे मौका दिया आपने, मैं अपनी गलतियों का प्रायश्चित करूंगा।"


वापस लौट कर शहर जाते समय विद्या मिस ने उसे बताया कि कैसे उसके छोड़ कर आने के बाद कैसे उसकी मम्मी भटकती हुई शहर वापस आयी। जहाँ उसे सबसे बड़ा झटका लगा कि उसका घर भी बिक चुका था। नाते रिश्तेदार सब दूसरे शहरों में रहते थे। जिन के आगे वह बेटे की तारीफे करते हुए ना थकती थी उनको बेटे की यह करतूत किस मुँह से बताती। उसे कोई नही सूझा तो वह विद्या मिस के पास गई। आखिर बचपन से वह ही उसको सुधारती और सही राह दिखाती थी। एक बार फिर गुरु, अपने शिष्य को गलत रास्ते से लौटा लायी थी।


विद्या मिस के घर पहुँचने पर सुयश और उस की माँ क्या निर्णय लेते है। माँ सुयश के साथ रहना चाहेंगी या वृद्धाश्रम में या अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेंगी। इन सारे प्रश्नो के उत्तर भविष्य के गर्भ में है। पर इतना तय है कि माँ का खोया हुआ सम्मान और सम्मान से जीने का अधिकार तो उन्हें मिल ही जायेगा। 



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