गुलाब
गुलाब
“हीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता—
“अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम …”
महाकवि निराला की कवितायेँ पढ़ते हुए माधव सुबह की चाय का लुत्फ़ ले रहा था। “कुकुरमुत्ता” कविता पढ़ते हुए उसकी नज़र बालकॉनी के गमले में खिले गुलाब की तरफ पड़ी। पांच-छः गमलों में अलग-अलग पौधे लगे थे। तुलसी का पौधा पूरे आँगन में तुलसी की महक बिखेरे हुए था। बाक़ी गमलों में चमेली और अन्य फूल महक रहे थे। गुनगुनी धूप में सुबह की ताज़ा हवा के कारण पर्याप्त नमी थी। बीच-बीच में पंछियों के चहकने का स्वर वातावरण में अमृत घोलता जान पड़ रहा था। राघवी ने अभी-अभी गमलों में पानी डाला था। स्नान के बाद पौधों को पानी डालना, उसका रोज़ का नियम था। वह अन्य गमलों से ज़ियादा गुलाब के गमले का कुछ खास ख्याल रखती थी। इसके उपरान्त वह बालकॉनी में ही एक छोर पर खड़ी होकर अपने गीले बालों में मौजूद पानी को तौलिये से छिटक-छिटक कर निकालने लगी।
“न झटको ज़ुल्फ़ से पानी, ये मोती फूट जायेंगे।” एक पुराने गीत की पंक्तियाँ स्वतः ही माधव के होंठों से बरबस स्फुटित होने लगी।
“क्या बात है, बहुत रोमांटिक हो रहे हो ?” राघवी ने तौलिये से अपने बालों को सहलाते हुए कहा। प्रति उत्तर में माधव कुछ नहीं बोला। बस वह गीत की पंक्तियाँ गुनगुनाता रहा और अब उसने अपनी निगाहें राघवी के चेहरे की तरफ़ केंद्रित कर लीं। इस बीच राघवी के चेहरे पर कई भाव उभरे। अंततः वह माधव की आँखों की तपिश को बर्दास्त न कर सकी। शरमा कर उसने निगाहें नीची कर लीं।
“आखिर ऐसा आज क्या देख रहे हो जी, मुझमें! सुबह-शाम तो मुझे देखते ही रहते हो?” साहसा साहस बटोरकर राघवी ने नैन मटकाते हुए पूछ ही डाला।
“देख रहा हूँ तुम ज़्यादा सुन्दर हो या गुलाब।” माधव ने रोमांटिक होते हुए जवाब दिया, “नहाने के बाद तुम्हारी सुंदरता बढ़ जाती है।”
“सच …” राघवी को मानो माधव के कहे पर विश्वास नहीं हुआ या वह और भी कुछ सुनना चाहती थी।
“सचमुच। लगता है नई नवेली दुल्हन हो अभी भी। अभी निराला की कविता ‘कुकुरमुत्ता’ पढ़ रहा था। इसमें मार्क्स के सिद्धांत सर्वहारा और बुर्जुवा वर्ग की याद हो आई। कॉलेज के दिन भी क्या दिन थे।” कहते हुए माधव ने उपरोक्त लिखी हुई निराला की पंक्तियाँ पुनः ऊँचे सुर में सुना दी। फिर अर्थ बताया, “कविता में कुकुरमुत्ता के अनुसार गुलाब शोषणकर्ता है। महाकवि निराला जी कहते हैं उसकी यह सुंदरता खाद-पानी को चूसकर बनी है। कइयों को गुलाम बनाया है और माली कर रक्खा है सो अलग।”
“निराला जी का गुलाब भले ही शोषण का प्रतीक हो, किन्तु हमारा गुलाब तो हम दोनों का प्यार पाकर खिला है।” राघवी ने गमले में खिले गुलाब को प्यार से सहलाते हुए कहा।
“ये बात है।” कहकर माधव कुर्सी से उठे और गमले के पास पहुंचकर गुलाब को डाल से तोड़ लिया।
“इसे क्यों तोड़ा जी !” राघवी ने हैरानी से पूछा।
“अगर ये हमारे प्रेम से उपजा है तो इस गुलाब की असली जगह तुम्हारे बालों में है।” और कहते-कहते ही माधव ने कहे को किये में परिवर्तित कर दिया। राघवी थोड़ा शरमा गई।
“इतनी जल्दी क्या थी . . . अभी दो दिन और गमले में गुलाब को खिला रहने देते !” राघवी ने मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए कहा।
“मैडम, बादशाह ज़फ़र ने अपने शेर में क्या ख़ूब कहा है — उम्रे-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन; दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तिज़ार में।” माधव ने बड़े अदब से शेर पढ़ा, “कहीं हमारी हालत भी ऐसी न हो जाये मैडमजी। इसी वास्ते आज ही तोड़ डाला आपके प्यारे गुलाब को। इन्तिज़ार और आरज़ू में कहीं हमारी भी ज़िंदगी न कट जाये।”
“मैं टिफिन तैयार करती हूँ। आपको ड्यूटी के लिए देर हो जाएगी !” राघवी ने घड़ी की ओर इशारा किया।
“कौन कमबख्त …. इतने हसीन पल छोड़कर ड्यूटी जायेगा। आज का दिन अपने प्यारे गुलाब के नाम।” माधव के कहे में इतना नशा था कि राघवी ने माधव की आँखों में देखा तो शरमा कर अपनी आँखें बंद कर ली।