गुलाब का एक बेरंग फूल भाग-1
गुलाब का एक बेरंग फूल भाग-1
तुम्हारी आंखें बेहद प्यारी हैं, शायद यह बात तुम नहीं जानती
इतना कहते-कहते वो रुक गया था। वह कौन था ? यह मैं नहीं जानती। कहाँ से आया था ? ये भी मै नही जानती।
लेकिन उसे मालूम नहीं कि उसकी वह बातें और मेरा वह "एक दिन" इसी बगीचे में इसी जगह आज भी ठहरे हुए हैं, बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से जर्द पड़े, दावेदार के इन पेड़ों की तरह। जिनके ऊपर बर्फ की परतें सूर्य की किरणों में शीशे की तरह चमक रही हैं। पिछले तीस सालों से, तबसे-जबसे मैंने यह शहर छोड़ा था। और पलट कर फिर कभी वापस नहीं आई थी।
हालांकि ये पेड़ पहले से काफी बड़े और घने हो चुके हैं।
" इसलिए इन पेड़ों की सबसे निचली डाली से मैं अब पत्तों को नही तोड़ सकती। उन्हें छु तक नहीं सकती। "
"लेकिन लेकिन मैं अब भी बैठ सकती हूं, उस बेंच पर जिस पर तीस साल पहले बैठा करती थी उस प्यारे से इंसान की इंतजार में, जिनका नाम था। "हामिद शेख",मिर्ज़ा हामिद शेख।
घाटी के सबसे रईस घराने के इकलौते वारिस, लेकिन बनावट की दुनिया से कोसों दूर। हम दोनों एक ही कॉलेज में थे" कश्मीर कॉलेज औफ़ मैडिकल साइंस"
जहां मेरा सपना डॉक्टर बनने का था। तो वे अपने सपनों को कब का पूरा कर चुके थे। हां, वे उसी कॉलेज में बॉटनी के प्रोफेसर थे। जिन्हें मैं अपना दिल दे बैठी थी। "वह कहते हैं ना, पहली ही नजर में दिल दे देना, कुछ-कुछ वैसा ही हुआ था मेरे साथ।
लेकिन जो कुछ भी हुआ था, दिल की गहराइयों तक था।
शायद मिर्जा साहब के साथ भी यही सब कुछ हुआ होगा, तभी तो वह अक्सर म
ुझे देखकर "आहें "भरते हुए कहते !"तुम अब तक कहां थी गुल ? तुम्हें कहां-कहां नहीं ढूंढा ?अब मिली हो।
इतना कहकर वो रुक जाते। फिर कुछ देर बाद आगे कहते "खैर अब जो मिली हो, तो जाना नहीं। नहीं तो यह मिर्जा
वह अपनी बातें पूरी करते उससे पहले ही मेरी उंगली उनके होठों को चुप करा देती। बेचारे आगे कुछ नहीं बोल पाते
"हम चार सालों तक एक दूसरे से यूं ही छुप छुप कर इस बगीचे में मिलते रहे थे। मैं यह नहीं कह सकती कि हमारे घर वालों को हमारे बारे में खबर थी कि नहीं। लेकिन पूरा कॉलेज हमारे पीठ पीछे हमारी ही बातें करता है यह हम दोनों को अच्छे से पता था।
जीवन के वह खूबसूरत चार साल कब निकल गए पता ही नहीं चला। लेकिन वह दिन मेरे लिए आज भी खास है,जिस दिन मेरा डॉक्टर बनने का ख्वाब पूरा हुआ था। और मेरे नाम के आगे "डॉक्टर" जुड़ा था
"डॉक्टर मेहर गुल" बेंच पर बैठते ही मुझे ऐसा लगा" ऐसा लगा जैसे मेरा नाम किसी ने धीरे से मेरी कानों में कहा हो शायद ये मेरा भ्रम था।
लेकिन एक अनजाने भय से उस बेंच के एक छोर पर बैठी हुई मै अपने आप में सिमट गई थी। मगर बेंच का वह सिरा अब भी खाली था जिस जगह पर "उस दिन" वह बैठा था। एक ऐसे ठहरे हुए वक्त की तरह ?जो मेरे जीवन में तीस साल पहले कब का गुजर कर भी शायद अब तक नहीं गुजरा था। सूरज की रोशनी मध्यम हो चली थी, हवाओं का शोर बढ़ने लगा था
मैंने एक नजर भर पूरे बगीचे को देखा कहीं कुछ नहीं था सिवाय बर्फ की सफेद चादर के!
जिन पर पड़े मेरे पैरों के निशान धीरे-धीरे ही सही, अब ऐसे मिटने लगे थे जैसे मैं यहां आई ही नही थी"जारी है।