गरीबी रोती नहीं
गरीबी रोती नहीं
"मालिक कुछ कोयले और डाल दूँ भट्टी में".....
"अरे नहीं रे अब कौन आएगा"
कड़कड़ाती धुंध भरी रात 8 बजे ऐसे लग रहा जैसे 12 बजे हों...जी.टी. रोड के किनारे बाला का ढाबा था। सामने ही रेलवे का हॉस्पिटल जिससे ग्राहक मिल जाते थे ठीक ठाक..
एक छोटी और एक थोड़ी बड़ी भट्टी टाइप चूल्हे बना रखे थे उसने और खूबसूरती के लिए उन दोनों को एक चबूतरे में फिट कर दिया था सुंदर ढंग से...रोज गाय के गोबर से लीपकर चॉक खड़िया से डिजाइन बनाती उसकी पत्नी उस पर। रोटी सब्ज़ी चाय मट्ठी बिस्किट दूध कोकाकोला और तो और सिगरेट भी मिल जाती वहाँ। हरिया वहीं काम करता और रात उसी ढाबे में दो बेंच जोड़ बिस्तर लगा लेता।
वो रोज पूछता कुछ कोयले डाल दूँ मालिक और बाला भी समझता था कि वो भट्टी में कोयले डालने को क्यूँ बोलता। इसी भट्टी के सहारे तो रात कटती उसकी। पहले हाथ सेकता फिर जब नींद हावी हो जाती तो बेंच भट्टी के बगल में कर लेता, लेकिन शीत लहर और गलन कितनी देर सोने देते।
अपना बिस्तर उठा कर शांत हो गई भट्टी पर लगा लेता जिसमे सुबह तक भी कुछ गर्माइश बाकी रहती है। और सुबह बाला के आने से पहले ही ढाबा साफ कर तैयार मिलता उसे और बाला भी रोज आते ही पूछता, "कैसे कटी रात"
हरिया भी मुस्कुराता पर कभी जवाब नहीं देता पर उसकी आँखों में होता जवाब "गरीबी रोती नहीं मालिक।"