Deva Sonkar

Horror Romance

4  

Deva Sonkar

Horror Romance

ग्रहण: मौत की रात

ग्रहण: मौत की रात

6 mins
450



कहते हैं रात का अंधेरा अपने अंदर कई राज छिपाए रहता है। इंसानी नजरों से दूर, अंधेरे की काली चादर अपने अंदर जो कुछ भी लपेट कर रखती है उससे इंसान डरता है और इस डर का कारण बस एक होता है। इंसान को दिखता नहीं उस अनजाने से उसे डर लगता है।

अब चाहे उस अंधेरे में छिपा कोई दोस्त हो या दुश्मन, कोई मददगार हो या कोई धोखेबाज, कोई दूसरा इंसान हो या कोई और उससे एकदम अलग। 

पर कुछ लोगों को अंधेरे से डर नही लगता। क्योंकि ना तो उन्हें भूत प्रेत पर विश्वास होता है ना किसी अनजाने खतरे की समझ। शायद उस अंधेरे जंगल में भटकते वो दोनों लोग भी ऐसे ही थे जिन्हें न मौत का डर था न किसी जानवर का।

पर डर होना चाहिए, क्योंकि डर इंसान के व्यक्तित्व का एक ऐसा हिस्सा है जो उसकी जान बचाता है। पर उन दोनो को इसकी समझ नहीं थी और इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं थी। 

उनकी उम्र कुछ 20-22 साल थी। 

विद्या और रवि दोनों एक दूसरे को जान से भी ज्यादा प्यार करते थे। पर उनके घर वाले इस प्यार के खिलाफ थे इसलिए उन्होंने भागने का फैसला कर लिया था। निकले तो वो घर से अपनी गाड़ी में थे पर जल्दी जल्दी में वो गाड़ी में पेट्रोल डलवाना भूल गए थे। जंगल के पार जाने वाली सड़क पर गाड़ी बंद हो गई तो विद्या ने रवि से कहा। 

"कैसे बेवकूफ हो तुम? तुम्हें कहा था एक दिन पहले पेट्रोल भरवा लेना। अब हम क्या करें? इतनी रात को इधर से कोई गाड़ी भी नही निकलेगी!" 

"अरे अब मुझे क्या पता था तुम इस रास्ते पर ले आओगी। हमने तो सीधे जयपुर हाई को पकड़ना था।"

"अरे पागल हो क्या? पता भी है जयपुर हाईवे तक जाने में कितने चेकपोस्ट हैं। पापा ने कब का उनको अलर्ट कर दिया होगा। हम 5 किलोमीटर भी नहीं जा पाते उधर।" 

"एक तो तेरे बाप से मैं परेशान हूं। कहां से मुझे तू पसंद आ गई? पहले पता होता कि तेरा बाप कौन है तो कभी तेरे चक्कर में नहीं फंसता।"

"मेरे चक्कर में फंसता मतलब? जहां तक मुझे याद है तू ले कर आया था फूल मेरे लिए ये कहते हुए की विद्या, मुझे तू बहुत पसंद है।" 

"अरे तो तुझे कहना चाहिए था न कि तेरा बाप हिटलर का भतीजा है और तू किसी से उसकी मर्जी के बिना प्यार नहीं कर सकती। क्या जरूरत थी तुझे मेरे साथ बारिश में भीगने की।" 

"अच्छा छोड़ वो सब जाने दे। जैसे तू मेरे प्यार में पागल था वैसे मैं भी थी। अब समान निकाल और चल यहां से, वरना सारी रात यहीं रुकना पड़ेगा और मेरे पापा के गार्ड्स हमें यहां भी ढूंढ लेंगे।" 

रवि उसकी ओर झुका और बोला, "सुन न! चलने से पहले अपनी जंगल वाली फैंटेसी पूरी कर लें क्या?"

"चुप कर शैतान! यहां मुझे पकड़ने जाने की चिंता है और तू है कि यही सब सोच रहा है। पहले समान निकाल!" विद्या ने रवि के गाल पर एक हल्का सा थप्पड़ जड़ते हुए कहा।

"ठीक है ठीक है। मैं इंतजार कर लूंगा। वैसे भी सारी जिंदगी तो बितानी है तेरे साथ, जल्दी क्या है?" उसने कहा और लपक कर विद्या के गाल को चूम लिया। 

विद्या ने कुछ नहीं कहा पर वो थोड़ा शरमा गई। 

रवि ने टॉर्च ली और गाड़ी का दरवाजा खोलकर बाहर निकला। सामान डिक्की में रखा था। वह घूम कर डिक्की के पास पहुंचा और डिक्की खोली। तभी एक अजीब सी आवाज सड़क के दूसरी ओर जंगल से आई। रवि ने उस और टॉर्च जलाई। अंधेरे में उसे कुछ नहीं दिखा। 

वह सामान छोड़ घूम कर विद्या के पास पहुंचा। वह अब भी गाड़ी में बैठी थी। "तुमने वो आवाज सुनी।" 

"कैसी आवाज?" विद्या ने पूछा। वह दरवाजा खोल कर बाहर आई। 

"ऐसा लगा कोई लड़की रो रही थी।" 

"ऐसे सुनसान बियाबान में कहां कोई लड़की होगी रवि?" 

विद्या का इतना कहना था कि आवाज फिर आई, इस बार और तेज और एक चीख के रूप में, उस सन्नाटे को चीरती हुई।

रवि और विद्या जैसे एक पल के लिए जड़ हो गए। दो लोग जिन्हें जिंदगी में किसी का डर नहीं था आज इस अनजान आवाज से जैसे डरना सीख गए थे।

विद्या रवि से चिपक गई। "ये क्या था रवि?" 

"तुम गाड़ी में बैठो विद्या मैं देख कर आता हूं?" रवि ने कहा। उसका डर कुछ पलों में चला गया था। 

"तुम पागल हो क्या? मैंने इस जंगल की कहानियां सुनी हैं बचपन से। सामान निकालो और चलो!" 

"नहीं विद्या, न जाने वहां कौन मुसीबत में होगा? हम उसे ऐसे नहीं छोड़ सकते। तुम गाड़ी में बैठो मैं यूं गया और यूं आया।" उसने विद्या के गाल पर हाथ फेरते हुए कहा।

"ठीक है तुम जाओ और जल्दी आना। मैं सोच रही हूं कि तुम्हारी फैंटेसी पूरी कर ही दूं।" विद्या ने कहा और रवि के होठों पर चूम लिया। रवि को जैसे एक झटका सा लगा। विद्या की तरह यह भी उसका पहली बार था। उसने कई बार सोचा था कि जब ऐसा होगा तब उसे कैसा लगेगा पर आज रवि के पास शब्द नहीं थे। 

कांपते हुए होठों से उसने कहा, "जो कहा है वो भूलना मत, मैं अभी आया।" 

कह कर रवि चला गया और विद्या गाड़ी में बैठ गई। कुछ मिनट बीते, फिर कुछ और, पर रवि नही आया। विद्या कार में बैठी बाहर देखती रही और रवि का इंतजार करती रही। पर रवि नहीं आया। विद्या को जब डर लगने लगा वो गाड़ी से निकली और जंगल में रवि के पीछे जाने की सोचने लगी। वह सड़क पर खड़ी सोच ही रही थी कि तभी पूरी सड़क किसी गाड़ी की हैडलाइट की रोशनी से नहा गई।

गाड़ी विद्या के ठीक सामने आ कर रुकी, और गाड़ी से आवाज आई, "वो रही! पकड़ लो उसे!" 

विद्या समझ गई की उसके पापा ने उसे ढूंढ लिया था। वह जंगल के अंदर भागने लगी। उसके पापा के आदमी उसके पीछे भागे। विद्या के पास न टॉर्च थी ना किसी और रोशनी का उपाय। अंधेरे में भागते भागते वह किसी चीज से टकरा कर जमीन पर आ गिरी। इसके पहले कि वह उठ कर भागती, उसके पापा के आदमियों ने उसे पकड़ लिया।

"अरे बिटिया, ये क्या कर रही हो तुम? ये पूर्णिमा के दिन ग्रहण के समय इस जंगल में क्यों भाग रही हो? बचपन से क्या इसीलिए तुम्हें वो कहानियां सुनाई थी।" उसे पकड़ने वालों में धनेश्वर काका भी थे, विद्या के पापा के वफादार और विद्या पर जान छिड़कने वाले। 

दो नौकरों ने विद्या को पकड़ा और उठाया। "चलो घर बिटिया! ऐसे अकेले यहां आना ठीक नहीं!" 

विद्या ने कुछ नहीं कहा। वह जानती थी कि अगर उसके पापा को पता चल गया कि रवि जंगल में कहीं है तो उसे ढूंढ कर मरवा देंगे। विद्या ने मन ही मन सोच लिया था कि वो मर जायेगी पर रवि का नाम अपनी जुबान पर तब तक नहीं लायेगी जब तक रवि खुद उसे लेने वापस नहीं आता। 


***


धनेश्वर ने नौकरों को विद्या को ले जाते हुए देखा। फिर वो वहीं खड़े हो कर जमीन पर टॉर्च मार कर देखने लगा। विद्या का पैर किसी चीज से फंसा था। उसने जमीन पर टॉर्च मारा और उसे दिखा वो हाथ को एक पेड़ की जड़ को पकड़े हुए था। वो हाथ जिसके साथ कोई शरीर नहीं था। वो हाथ जो अपने कंधे से उखड़ा हुआ था। धनेश्वर झुका और उसने उस हाथ की उंगलियों में से एक अंगूठी निकाल ली। अब धनेश्वर के लिए वहां कुछ नहीं बचा था। वह वापस सड़क की ओर बढ़ गया।

बाहर निकल कर उसने चांद की ओर देखा। आज जंगल में धुंध नहीं थी इसलिए चांद को लगा हुआ ग्रहण साफ दिखाई दे रहा था।


कहानी जारी है अगले भाग में…


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