STORYMIRROR

घरौंदे का तिनका

घरौंदे का तिनका

4 mins
29.9K


 

एक सुखद संयोग है कि मैं मुंबई में जहाँ  रहती हूँ , वहाँ  की बालकनी से बाहर देखने पर बंगाल में होने का आभास होता है। वहाँ  पुराने बरगद, अशोक, नारियल, सेमल और कुछ अलग किस्म के भी पेड़ हैं। शायद शिशिर के पेड़ हैं। उनमें छोटे-छोटे रेशमी फूल होते हैं। वहाँ  तरह-तरह की छोटी-छोटी रंग-बिरंगी चिड़िया आती हैं रोज मुझसे बातें करने। उन्हें पहले मैंने कभी नहीं देखा था। रोज सुबह की चाय बालकनी में ही पीती हूँ । हर रोज़ मेरी सुबह ऐसी ही ख़ूबसूरत होती है। जागने में देर हो तो वे मानो मुझे जगाती हैं। बिल्कुल बालकनी की मुंडेर पर आकर चीं-चीं करने लगती हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है कि मेरे कमरे के अंदर आ जाती हैं और पंख फड़फड़ाते हुए पूरे घर में उड़ने लगती हैं। मैं तुरंत उठ कर पंखा बंद करती हूँ कि कहीं कट न जाऐ। डाँट भी लगाती हूँ कि और ‘आओ घर के अंदर’। वे मासूम-सी चुपचाप डाँट खाकर सीधे पेड़ों की फुनगी पर जा बैठती हैं और मुझे देखती रहती हैं। इनके लिए कुछ खाना-पानी रखना, इनसे रोज़ बातें करना मेरी दैनिक चर्या बन गई है। ज़रा भी मन बोझिल हुआ तो जाकर बालकनी में खड़ी हो जाती हूँ और इनसे बातें करती हूँ तो जैसे सारी थकान निकल जाती है। कई बार तो जैसे ये मेरे बिना कुछ कहे समझ लेती हैं। पिछले तीन सालों में इनसे मैंने बहुत कुछ बाँटा है। दुख-सुख, आँसू-ख़ुशी, पराजय-अपमान, जीत-सफलता सब कुछ…! ये मेरी एकांत और ज़िंदगी का हिस्सा हैं, मैं इनकी ज़िंद्गी  का…! न मैं कभी इनसे रूठती हूँ , न ये मुझसे। ये कब मेरी ज़िंद्गी  का हिस्सा बन गर्इं, मुझे पता नहीं चला। जैसे कब किसी इंसान को किसी से प्यार हो जाए, आपको भी पता नहीं चलता…! सबसे आश्चर्यजनक मेरे लिए वह दृश्य होता है, जब ये अपने आने वाले बच्चों के लिए घरौंदे की तैयारी करने लगती हैं। एक-एक तिनका जोड़ कर घोंसला बनाना शुरू कर देती हैं। देखते-देखते उनमें दो या तीन अंडे आ जाते हैं। फिर नर-मादा, दोनों मिल कर अंडे की बारी-बारी से सेवा करते हैं। कोई उनके घोंसले के पास आता है तो वे सतर्क हो जाते हैं और शोर मचाने लगते हैं। तेज हवा या बारिश से परेशान हो उठते हैं। अंडों को एक पल भी अकेला नहीं छोड़ते। उनसे बच्चे निकल आने की ख़ुशी उन्हें वैसे ही होती है जैसे आम इंसान को माता-पिता बनने की होती है। आपस में गले मिलते हैं, चोंच से चोंच मिलाते हैं। बहुत प्यार करते हैं एक दूसरे को। उसके बाद दोनों साथ मिल कर बच्चों की देखभाल करते हैं। ख़ुशी-ख़ुशी रहते हैं। फिर एक दिन अचानक बच्चा कहीं चला जाता है। मुझे कई बार दुख होता है। जाते समय मुझसे मिले भी नहीं। अलविदा भी नहीं कहा! पता नहीं उन बच्चों ने अपने माँ-बाप से भी औपचारिक विदाई ली या नहीं! हर पाँच-छह महीने बाद फिर से वही सिलसिला शुरू हो जाता है, वैसे ही घरौंदा बनना शुरू हो जाता है और मुझे पता चल जाता है कि कोई नया मेहमान आने वाला है। पता नहीं, वही परिवार होते हैं या कोई और। इनकी पहचान भी नहीं होती। सब एक जैसे दिखते हैं। दो-तीन महीने उन्हें ऐसे ही देखते गुज़र जाते हैं और वक़्त का पता भी नहीं चलता। एक दिन शाम को मुंडेर पर खड़ी चाय पी रही थी। बारिश का मौसम था और हवा भी तेज बह रही थी। मुंबई की बारिश ऐसे ही होती है। रात-दिन मूसलाधार बारिश। नर-मादा बड़े परेशान थे। पेड़ों की फुनगियों को ऐसे जकड़ रखा था जैसे अगर आँधी भी जाऐ, पेड़ अगर हवा में उड़ भी जाऐ तो भी उनके बच्चों (अंडे) को कुछ नहीं होगा। लगातार छटपटा रहे थे, जैसे आम इंसान बाढ़ और तूफ़ान में ख़ुद को बचाने की हर कोशिश करता है। डर तो मैं भी गई थी। पर मुझे उनकी कोशिश पर पूरा भरोसा था। रात भर बारिश होती रही। सुबह उठ कर रोज की तरह चाय का मग हाथ में लिए बालकनी में आई तो देखा कि रात भर की बारिश से पेड़ अस्त-व्यस्त खड़े हैं। सबसे पहले मैंने घरौंदे में देखा, अंडे नहीं थे। मेरा कलेजा धक से हो गया। शोकग्रस्त नर-मादा प्रकृति के इस विनाश पर क्रोध से मानो तांडव कर रहे थे। दुख ने उन्हें जैसे पागल बना दिया था। एक-एक तिनके को जोड़ कर उन्होंने जो घरौंदा बनाया था, उन्हें अपनी ही चोंच से तहस-नहस कर रहे थे। दुख, शोक, विलाप का ऐसा मार्मिक दृश्य मुझे झकझोर गया। यह सब ऐसे ही था जैसे कोई दंपति अपने बच्चे के खोने पर दुखी और मर्माहत हो जाते हैं। इंसान और परिंदों के बीच का रिश्ता और जज़्बात समझ में आया! 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational