मेरे ख़्वाबों के दूल्हे बनाम शहनाईयाँ जो बज न सकीं

मेरे ख़्वाबों के दूल्हे बनाम शहनाईयाँ जो बज न सकीं

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शादी को लेकर हर लड़की के बड़े अरमान होते हैं.  इससे शादी करुँगी. उससे करुँगी. ऐसा होगा.... वैसा होगा....मेरे भी थे. मैं तो और भी फ़िल्मी हूँ क्योंकि मेरे दादा और पिता जी का सिनेमा हॉल था. वहीँ बड़ी हुई. सिनेमा में ही खेलती थी और और वहीँ खेलते -खेलते सो जाती थी. कई बार तो मुझे सिनेमा हॉल बंद होने के बाद देर रात हॉल खोलकर टोर्च जला - जला कर ढूँढा गया. क्योंकि मैं सिनेमा देखते -देखते वहीं हॉल की कुर्सी पर सो जाती थी,  फिर नींद में गिर जाती थी और वहीं कहीं कुर्सी के नीचे लुढ़की पड़ी रहती थी.  घर वाले दादा-दादी और माँ आदि समझते  कि सिनेमा हॉल में होगी पापा के पास  क्योंकि कई बार पापा मुझे अपनी केबिन में सुला देते थे.  पापा और सिनेमा के स्टाफ समझते थे कि घर चली गई  होगी. लेकिन देर रात जब माँ पूछती कि मैं कहाँ हूँ , तब पूरे घर में हड़कंप मच जाता और घर से लेकर सिनेमा हॉल तक में खोज जारी हो जाती.. तो सिनेमा के जरिये  प्यार को लेकर जो फँतासियाँ मुझमें थे वे  सब अभी तक मुझमें हैं.

वैसे मेरी शादी को लेकर पहला च्वाइस  आई ए एस ( भारतीय प्रशासनिक सेवा से ) था,  क्योंकि मुझे लगता था इनके पास बहुत पावर होता है. वे मुझे गुंडे- बदमाशों से बचा लेंगे. शहर के आई ए एस की  लाल बत्ती वाली अम्बेसडर गाड़ी जब -जब सिनेमा हॉल में मेरे दरवाज़े पर आती तो मैं बहुत ख़ुश होती और लगता मेरा पति ऐसे ही एक लाल बत्ती वाली कार से निकलेगा. और हुआ भी कुछ यूँ  कि मैं जिस कालेज में पढ़ती थी वहाँ  के सांस्कृतिक प्रोग्राम में एक बिल्कुल नया IAS था,  जिसकी पहली पोस्टिंग ही मेरे शहर में हुई थी.  वह जब मेरे कालेज के प्रोग्राम में आया  और उसने अपने हाथों से मुस्कुराते हुऐ  प्राइज़ दिया तो मुझे लगा कि मुझे प्यार हो गया.

फिर उसके बाद मैं  ही अपने शहर को छोड़ कर पटना आ गई  और वह  बात वहीँ दफ़न हो गई .पटना से फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली आ गई . वो भी पूरा हो गया. एक दिन इंडिया हैबिटाट में मेरा शो था और वहाँ  वे नाटक देखने आये थे , जबकि उन्हें यह पता भी नहीं था कि मैं वहीँ लड़की हूँ, जो नवादा के कॉलेज में उनसे मिली थी. क्योंकि मैं तब क्रांति से असीमा हो चुकी थी यानी नाम बदल लिया था. नाटक के बाद वे मिले और हिचकिचाते हुऐ   कुछ पूछते इससे पहले  मैंने ही  पहचान लिया और  ख़ुशी से चौंकते हुऐ  बोली, '  आप ?

" हाँ, मैं और तुम यहाँ कैसे...!"
"मैं तो यहीं रहती हूँ. एन एस डी किया फिर यहीं नाटक करती हूँ."

हम एक दिन कॉफ़ी पे मिले तो उन्होंने बताया कि उन्हें कॉलेज में नाटक का शौक़ था और वे  एन एस डी ज्व़ाइन करना चाहते थे. लेकिन उनके पिता जी चाहते थे कि वे आई ए एस बनें  . फिर मैंने शरमाते हुऐ  बताया कि उन्हें कालेज में जब पहली बार देखा था तो उन्हें पसंद करने लगी थी और शादी करना चाहती थी.
उन्होंने कहा ,  " तो पहले क्यों नहीं  बताया ?  "
" मौक़ा ही नहीं मिला , मैं अचानक पटना आ गई .  और अगर बताती तो क्या आप मुझसे शादी कर लेते ! "
" यह बाद की बात है लेकिन ख़ुश ज़रूर होता. "
" पर आपने पूछा नहीं मैं क्यों आई ए एस  से शादी करना चाहती थी ? "
" क्यों?"
" क्योंकि बचपन से ही फिल्मों में देखा में था कि आई ए एस शहर का सबसे बड़ा ऑफिसर होता है और उसके पास बहुत पावर होता. वे मेरी रक्षा करेगा... "
वे हँसते हुऐ  बोले ,  'काहे का पॉवर ?  हम आई ए एस तो मिनिस्टर के गुलाम होते हैं, जो उनके इशारे पर नाचते हैं.'
और मैंने उनके मुँह पर ही कह दिया , ' फिर तो अच्छा हुआ मैंने आपसे शादी नहीं की. '

उसके बाद मेरा दूसरा च्वाइस  था पायलट . मुझे लगता था कितना अच्छा होता है. दिन रात हवा में घूमते रहते हैं. जब जहाँ जाना चाहें जा सकते हैं. एक मिनट में दुनिया के किसी भी कोने में. आज यहाँ , तो कल कहाँ ...
और शिमला में दो रिटायर पायलट से मिली. मि. मितवा और बी जी भल्ला . भल्ला को मैं बी जी ही बुलाती हूँ.  पंजाबी  में 'बीजी' का मतलब 'माँ' होता है. और बी जी  मुझे एक  पुरुष होते हुऐ  भी माँ की तरह ही प्यार करते हैं. और मैं हैरत में रह जाती हूँ कि एक पुरुष के दिल में माँ का दिल कैसे है ! 
एक शाम हम लकड़ियाँ जला कर  आग सेंक रहे थे कि अचानक मितवा ने कहा - 'तू पहले मिली होती तो मैं तेरी शादी पायलट से कराता.'
मैंने तुरंत चहकते हुऐ  कहा , ' और हाँ जब मैं छोटी थी तो पायलट से शादी करना चाहती थी.
"क्यों ",  बी जी ने पूछा
मैंने वहीँ फैंटेसी बताया कि रोज़ मैं उसके साथ पूरी दुनिया में घूमती. आज यहाँ उड़ती तो कल कहीं और ....
बी जी  ज़ोर से हँसे और बोले "मिट्ठी (बीजी मुझे इसी नाम से बुलाते हैं), ऐसा नहीं होता. हम अपनी मर्जी से कहीं नहीं जा सकते. हमें जो रूट पर फ्लाई करने का परमिट होता सिर्फ़ उसी पर फ्लाई कर सकते हैं. और अपनी पत्नियों और प्रेमिकाओं को रोज़ थोड़े न साथ ले जा सकते हैं. हमारी ड्यूटी बहुत स्ट्रिक्ट होती है.'
पायलट भी कैंसिल.

फ़िर चूँकि मुझे समन्दर बहुत आकर्षित करता रहा है तो सोचा मर्चेंट नेवी वालों से शादी करुँगी तो शिप में समन्दर में रहूँगी.  नीचे नीला  नीला पानी समन्दर का ऊपर नीला नीला आकाश. और  बीच में मैं जलपरी की तरह ... पर  मेरी  दोस्त निवेदिता जिसका पति संदीप नेवी में हैं ने  खीझते  हुऐ   जब अपना  अनुभव  सुनाया - 'असीमा सब फैंटेसी  हैं  चारों तरफ पानी ही पानी  में जब  रहना  पड़ता है  तो कूद  कर कहीं  भाग जाने का मन करता  और भागोगे  भी  कहाँ क्योंकि चारों  तरफ  पानी ही पानी.  कूदोगे तो  डूब  कर मर जाओगे और जब समुद्री तूफ़ान आता है तो  कुछ मत पूछो.'  तो यह इरादा  भी  टाल दिया.

 

उसके बाद चूँकि मुझे मछली खाना बहुत पसंद हैं. तो मैंने सोचा कि मछुआरे से शादी करूँगी . वह रोज़ समुद्र  से मेरे लिए ताज़ी मछलियाँ पकड़ कर लायेगा और रोज़ मैं उसके लिए अपने हाथों से मछली पकाऊँगी और साथ में मिलकर खायेंगे...लेकिन  केरल के मशहूर लेखक तकषी शंकर पिल्लै की  'मछुआरे' पढ़ी.  उसमें मछुआरों के जीवन के बारे में पढ़ा कि कैसे समंदर में अपनी नाव और जाल लेकर दिन भर भटकने के बाद भी उन्हें एक भी मछली नहीं मिलती,  तो मछुआरे से शादी का ख्याल भी मन से निकल गया.

उसके बाद मुझे रंगरेज़ बहुत पसंद थे. कि वे लोग बहुत ख़ूबसूरत रंगों में साड़ी और दुपट्टे रँगते हैं. इनसे शादी करुँगी और रोज़ अपनी मनपसंद का कपड़े रँगवाऊँगी ...'ऐसी रंग दे मेरी चुनिरिया रंग न छूटे सारी उमरिया'
फिर लखनऊ के रंगरेज़ों से मिली और उनकी हालत देख तरस के अलावा मेरी आँखों में आँसू थे ... कपड़ों में जो रंग और केमिकल, एसिड का इस्तेमाल करते हैं,  उनसे उनके हाथों और पैरों की उँगलियाँ बुरी तरह गल गई  थी  और जिनके लिए वे काम करते हैं,  उन व्यापारियों को उनके इस हाल से कुछ लेना- देना नहीं.उनके छोटे- छोटे बच्चे भी इस काम में लगे हैं और उनके हाथों की उँगलियों में फंगस लगे हुऐ  थे. चमड़ियाँ उधड़ रही थीं...

फिर मैंने सोचा कि मुझे साड़ियों का बहुत शौक है और मेरी सारी कमाई साड़ी खरीदने में ही चली जाती है. तो क्यों न  साड़ी बुनने वाले बुनकरो (जुलाहे) से शादी कर लिया जाये. उनसे मैं अपनी मनपसंद की साड़ियाँ बुनवाऊँगी.  अपनी पसंद के रंग, अपनी पसंद से साड़ी का आँचल .. और वो प्यार से जैसा कहूँगी वैसी साड़ी बुन देगा.  मैंने प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित एक फिल्म देखी 'कांजीवरम' जो बुनकरों का हाल बयाँ करती है. बुनकर महीनों, सालों में एक एक साड़ी तैयार करते हैं,  एक तो उन्हें उनके उचित पैसे नहीं मिलते और दूसरे वो ज़िंदगी भर बस दूसरों के लिए साड़ियाँ बुनते रह जाते हैं जबकि उनकी पत्नी और बेटी के लिऐ उनके ही द्वारा बुनी साड़ियाँ पहननी नसीब नहीं होता. 

अंततः एक कवि से शादी की. सोचा था कवि बड़े रूमानी होते हैं. मेरे लिए रोज़ प्रेम कवितायेँ लिखेगा पर 'यह न थी हमारी किस्मत....

 

 


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