घर और मैं
घर और मैं
जब अलमारी के ऊपर वाले खाने से बाल बाँधने की रबर बैंड गिरती है तब माँ की आवाज़ कानों में सुनायी पड़ती है, "मिंकी के बाल कभी नहीं बंधते।"
मैं मुस्कुरा कर खुद की डाँट लगा कर बाल बांध लेती हूँ। चाय का कप रखते हुए माँ की बात याद आ जाती है कि उसी समय धो कर रख दो या कम से कम पानी जरा भर दो। जुकाम में दवा की शीशी उठाते समय, 'शेक इट वेल' कहते हुए पापा नज़र आ जाते हैं।
जब तक घर थी हमेशा इन बातों को जान कर अनसुना कर दिया करती थी...पता था याद दिला ही देंगे। घर छूटा तो न जाने यें बातें कैसे मुझ में समा गयीं। इस शहर ने भी मुझे बहुत कुछ दिया पर घर हमेशा मेरे अन्दर सांस लेता रहा...छुट्टी का दिन पहाड़ सा लगता है...न रद्दी वाले भैया की आवाज आती है, ना ही सब्जी वाले की।
आकाश ताकते ताकते मन भर आता है। आँखों में शून्य उतर आता है। शाम को जब परिन्दों को घर लौटते देखती हूँ तो छटपटा कर रह जाती हूँ। छत की रेलिंग पर टंगे-टंगे जब शाम उतर आती है तो मैं भी अपने कमरे में कुछ सपने लिए, कुछ यादें लिए, विश्वास समेटे, धीमे कदमों से उतर आती हूँ...