पुकार
पुकार
एक बहुत लम्बी सी दुपहरी...आस और उजास सीने में दबाये, मैं चली जा रही थी। नज़रें ज़मीं पर और मन किसी और ही लोक की सैर पर, इस मकान के सामने से गुजरते हुए ,मन के द्वार पर लिपटी साँकल जैसे किसी ने छूई हो। जाना पहचाना स्पर्श ...खुशबू ऐसी, जिस से कई सालों की दुआ सलाम रही हो ...पर परदेस में ये दस्तक किसकी ? ये दुलार भरी आहट !...अन्दर कहीं...स्मृतियों के मेघ बरसने लगे थे ...झमाझम ! यादें बड़ी बेगैरत होती हैं ...समय स्थान किसी का लिहाज नहीं करती।
मन था की अन्दर जा कर ये नन्हा सा सुख भोग लूँ ...अजनबीपन का आदी मन कैसे बावरा हुआ जा रहा था ...क्या था यहाँ ? मन का कोलाहल शान्त कर...आँखें बन्द की और एकाग्रचित्त होकर सुना तो अन्दर मुकेश गा रहे थे ..."मेरा नाम राजू घराना अनाम "... मेरा बचपन थिरक रहा था इस मकान के अन्दर ....और मेरे भीतर जो एक आँगन है ...उसमें ...माँ और पापा गुनगुना रहे थे ...मुस्कुरा रहे थे। (पापा बहुत अच्छा गाते हैं, मुकेश जी के गीत ) वो लम्बी दुपहरी कुछ कम बोझिल हो गयी थी ...और मेरे भीतर घर ठुमक रहा था ...नेह की ताल पर।