मार्च
मार्च
मार्च जब भी मार्च करता हुआ पास आ जाता है, मेरे अन्दर बेखबर सोया घर उसकी आहट से उठ जाता है। हवा में अबीर गुलाल की महक, नानी जी की बनायी गुंजिय़ाँ जिस से घर के हर कोने को शायद मधुमेह हो जाए, माँ की बनायी मठरी, पापा का धीर गंभीर हो कर मौन अनुनय करना कि सिर्फ एक टीका लगाना...
नाना जी की दुलार में नहायी आवाज़- "छोटी बिटिया, चाय बन गयी।"
चिरपरिचित आवाजें, जाने पहचाने लोग, वहीं गलियां, वही सब्जी बेचने वाले भैया, वही बरतन बेचने वाली दीदी...सब कुछ वही ... बचपन जैसे बड़ा होना भूल सा गया हो।
सारी रोशनी, सारे रंग, सारे सुख, सारा प्यार...सब कुछ ...एक जगह। छह साल बाहर हो गये। आज भी दिल्ली में ट्यूब लाइट के बदले पंखा चला देती हूँ, पता नहीं घर के स्विच से कैसी यारी है या जैसे हथेली की छुअन उनके कान में कुछ कह जाती है। कितने भी दिन बाद आना हो...बचपन की आदत...अरे वही, रात में 9-10 के बीच सो जाना...जाने कहाँ से पता पूछते हुए आ धमकती है ! मानों बिस्तर को मुझसे कुछ खुसर फुसर करनी हो... कहाँ अब 12 से पहले नींद का कोई अता पता नहीं होता।
बिगड़ी हुई सी, नयी आदतों की गठरी लिए जब मैं घर पहुँचती हूँ तब भी मुझे उतना ही अपनापन मिलता है, बस पुरानी आदतें कभी-कभी तुनक के बैठ जाती हैं ...ये जानते हुए भी अगली सुबह से कार्य भार उन्हें ही संभालना है ...लेकिन अधिकार को कैसे जाने दें भई !
घर से लौटने के बाद, नींद आने में, सच कहूँ तो आज भी तकलीफ महसूस होती है...लेकिन घर लौटने पर उतनी ही गहरी नींद आ जाती है जैसे वहाँ बीता हर पल, अपने सारे काम छोड़ कर, मुझे थपकी दे कर सुला रहा हो !
बाहर से अभी एक लोरी गुजरी...गाना सुनायी पड़ा- "इस पार रह ना सके, उस पार जा ना सके ...साथी पुराना कोई, गुज़रा ज़माना कोई, बनके बहाना कोई ...जब याद आने लगे ...ये दिल क्या करे ?"
बाहर रह रहे फूलों के नाम ...जिनकी मिट्टी बदल गयी..हवा पानी भी ...पर खिल रहे हैं !