घण्टी बज गई (लघुकथा)
घण्टी बज गई (लघुकथा)
एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय में केवल अंग्रेज़ी बोलचाल संबंधित सख़्त आदेश पुनः जारी होने के बाद स्टाफ रूम में कुछ शिक्षक बहुत चिंतित थे, तो कुछ व्यंग्य कर आपस में मज़े ले रहे थे।
"देखिये साहब! अंग्रेज़ी भाषा एक फ़ैशनेबल ख़ूबसूरत चंचल लड़की की तरह ही है! या तो ज़ल्दी ही पट जाती है या फ़िर कभी नहीं पट पाती है !" एक शिक्षक ने कहा।
"घाट-घाट का पानी पीने वाली भाषा को घाट-घाट की सैर करने वाला ही पटा पाता है जनाब! दिमाग़ पर चढ़ गई, तो ज़ुबान पर भी बढ़-चढ़ कर जलवे दिखाती है !" दूसरे शिक्षक ने पता नहीं कितने लोगों के अनुभवों का सार सुना दिया।
"नहीं सर जी ! अंग्रेज़ी पटती है; पटाने वाला चाहिए, बस !" एक पुराने शिक्षक ने पुरानी कहावत पर तुकबंदी कर डाली।
"जी नहीं, साहब ! मातृभाषा का कलेज़ा मज़बूत होना चाहिए, नेक पतिव्रता पत्नियों की तरह! पति की गर्लफ्रैंड, व्याभिचारिणी या सौतन को बरदाश्त करने का माद्दा होना चाहिए, बस !" एक बेबस द्विभाषी शिक्षक ने जब यह कहा, तो सभी शिक्षक उसकी ओर देखने लगे।
उधर अगले कालखंड की घण्टी बजी और इधर सबके दिमाग़ की।
