एक सुखद मोड़ - भाग तीन
एक सुखद मोड़ - भाग तीन
उस रात विशम्भर बहुत गहरी नींद सोया। पिछले दो महीने से वो लगभग ना के बराबर सोया था क्योंकि जंगली जानवरों की आवाजें और उनके आने का डर हर वक्त लगा रहता था। आज वो उस डर से दूर भगवान के चरणों में सकून से सो रहा था। सुबह सुबह भजन के स्वर उसके कानों में पड़े और वो जग गया। मंदिर में विष्णु और उसकी पत्नी दोनों भजन गा रहे थे। दोनों बहुत ही मन से और भक्ति से बहुत सुरीला गाते थे। विष्णु गांव का वैद्य था। घर में वो और उसकी पत्नी दो लोग ही रहते थे। वो रोज सुबह मंदिर आते थे। पूजा के बाद विष्णु की पत्नी प्रसाद बांटते हुए विशम्भर के पास आई। उसने बड़े प्यार से विशम्बर को प्रसाद दिया। विशम्भर सोच रहा था की जिस तरह की उसकी अपनी खुद की हालत है ऐसी हालत वाले लोगों को तो वो पास आने भी नहीं देता था और फटकार लगाकर भगा देता था और ये मुझे कितने प्यार से प्रसाद दे रही है। तभी विष्णु भी वहां पहुँच गया। उसने विशम्भर के जख्मों में मवाद देखा तो पूछा कि भाई ये चोट कैसे लग गयी। विशम्भर अब पूरी तरह मन बना चूका था की वो अपनी असली पहचान नहीं बताएगा। उसने कहा की एक साधु हूँ बस जंगल में भटक गया था तो थोड़ी चोट लग गयी।
विष्णु बोला बाबा, चोट थोड़ी नहीं काफी है और बगैर उपचार के ठीक होने वाली नहीं। मैं इस गांव का वैद्य हूँ और तुम मेरे घर चलो मैं जख्मों की मरहम पट्टी कर देता हूँ। विशम्भर उनके साथ हो लिया। विष्णु का एक छोटा सा कुटिआ नुमा घर था। वो गांव के गरीब लोगों का मुफत इलाज करता था। बाकि लोग भी जो दे जाते उसे भगवन की कृपा समझ कर रख लेता था। किसी से कुछ मांगता नहीं था। विष्णु ने विशम्भर के जख्मों को साफ़ करके मरहम पट्टी की। इतने में विष्णु की पत्नी जो रूखा सूखा घर में बना था वो ले आई और उसने विशम्भर को दे दिया। विशम्भर पहली बार स्वाद से खाना खा रहा था। अभी तक तो वो खाना खाते हुए भी पैसे बढ़ाने के बारे में ही सोचता रहता था।
विष्णु ने विशम्भर से पूछा कि बाबा, आप का कोई घर ठिकाना है कि नहीं तो विशम्भर बोला साधुओं का क्या घर और क्या ठिकाना। विष्णु ने उसे कहा तो फिर जब तक तुम्हारे जखम ठीक नहीं हो जाते तो तुम हमारे घर में ही रह लो। हमें भी साधु की सेवा का पुण्य मिल जायेगा। विशम्भर ने भी मना नहीं किया। इतने में विष्णु की पत्नी उसे साधु सोच कर एक पीले वस्त्र का जोड़ा ले आई और विशम्भर से कहने लगी बाबा आप नहा कर ये वस्त्र पहन लो, मैं दोपहर के खाने का इंतजाम करती हूँ। विशम्भर जब नहा के आया तो बिलकुल साधु ही लग रहा था। बढ़ी हुई दाढ़ी और पीले वस्त्र। जब उसने आइना देखा तो खुद को ही न पहचान सका। रात में जब वो सोने लगा तो उनने सोचा की मैंने तो कभी बिना स्वार्थ के आज तक कोई काम ही नहीं किया है और ये दोनों बिना किसी लालच के निस्वार्थ मेरी सेवा कर रहे हैं। वो शकल से ही साधु नहीं बना था पर शायद उस का मन भी साधु की तरह सोचने लगा था। वो रोज देखता दोनों पति पत्नी गांव वालों की सेवा में ही खुश हैं और कितने शांत और सरल हैं। वो अपनी अशांति और कुटिलता को याद कर दुखी हो रहा था। फिर उसने सोचा शायद ये उसकी जिंदगी का एक सुखद मोड़ है जिससे की वो अपनी अगली जिंदगी सुधार सकता है।
करीब दस दिन बीत जाने के बाद जब उसके जख्म काफी ठीक हो गए तो एक रात वो सोचने लगा कि अब मुझे यहाँ से चलना चाहिए और देखना चाहिए कि जो जिंदगी मैं पीछे छोड़ कर आया था उसमें क्या चल रहा है। ये सोचते सोचते वो सो गया।
