एक सुखद मोड़ - भाग ५
एक सुखद मोड़ - भाग ५
सुबह मंदिर की घंटी की आवाज से विशम्भर उठ गया। वो पहले मंदिर तो कभी कभार ही जाता था पर आज उसका मन मंदिर में भगवान के पास बैठने को कर रहा था। वो काफी देर तक मंदिर के अंदर बैठा रहा और अपनी पुराणी जिंदगी के बारे में सोच कर पछतावा करता रहा। जब वो कुटिआ में वापिस आया तो देखा शंकर नाश्ता लिए खड़ा है। उसे देखकर उसे अपने दोस्त इंद्रेश की याद आ गयी। इंद्रेश बगल के गांव का जमींदार था और सवभाव से बहुत भला था।
वो अक्सर विषमभर को समझाता रहता था कि उसके काम का तरीका ठीक नहीं है और उसे गांव वालों के भले के बारे में भी सोचना चाहिए पर विशम्भर उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था। दोनों बिलकुल अलग किसम के आदमी थे पर बचपन के दोस्त थे और एक दुसरे को बहुत मानते थे।
अचानक विशम्भर को मन में आया कि क्यों न मैं इंद्रेश की सहायता से अपने पिछले कर्मों का प्रायश्चित करूं। नाश्ता करने के बाद वो इंद्रेश से मिलने के लिए पैदल ही निकल पड़ा और दोपहर तक उसके घर पहुँच गया। दरवाजे पर जब दस्तक दी तो इंद्रेश की पत्नी ने दरवाजा खोला और पूछने लगी बाबा क्या चाहिए। वो उसे पहचान नहीं पायी थी। जब विशम्भर ने कोई उतर ना दिया तो उसने पूछा बाबा खाना खाओगे। विशम्भर ने हाँ में सर हिला दिया। इंद्रेश की पत्नी उसे अंदर आंगन में ले आई और उसे नीचे बैठने को कहा और खुद खाना लेने अंदर चली गयी। विशम्भर आंगन में बैठ गया तभी बाहर से इंद्रेश अंदर आया। विशम्भर उसे देखकर खड़ा हो गया। इंद्रेश बोला बाबा बैठ जाओ। विशम्भर की आँखों में आंसू आ गए। जब इंद्रेश ने उसे ध्यान से देखा तो विशम्भर को पहचान गया और गले से लगा लिया। इंद्रेश उसे अंदर ले गया और पत्नी से कहकर उसे खाना खिलाया और उससे पूछा की ये सब क्या है।
विशम्भर ने उसे शुरू से अब तक की सारी कथा सुना दी। इंद्रेश ने भी उसे बताया कि तुम्हारे चले जाने के बाद कुछ दिन तो मैंने भी तुम्हे ढूंढ़ने की कोशिश की पर फिर समझ लिया कि शायद तुम अब इस दुनिया में नहीं रहे। उसने ये भी बताया की कैसे उसके दोनों बड़े बेटे भी उसकी तरह ही गांव वालों को तंग करते हैं और उसकी पत्नी और छोटे बेटे को घर से निकल दिया है।
विशम्भर ने तब इंद्रेश से कहा कि वो उसके पास मदद के लिए आया है और वो गांव वालों की मदद करके अपना प्रायश्चित करना चाहता है। पर वो नहीं चाहता की किसी को उस के बारे में पता चले। उसने इंद्रेश को ये भी बताया की गांव वालों की जमीनों के कागज वो एक अलग हवेली में एक तिजोरी में रखता था जिस के बारे में उसके बेटों को भी नहीं पता था। विशंभर ने बताया कि तिजोरी की चाबी भो उसी हवेली की खिड़की में छुपा कर रखी है। उसने इंद्रेश की मदद से सारे कागज़ मंगवा लिए। इंद्रेश ने पूछा कि अब क्या करना है तो विशम्भर बोला की एक एक करके सब गरीब किसानों को ये जमीनें वापिस करनी हैं।। सबसे पहले वो शंकर की जमीन वापिस करना चाहता था। आपस में कुछ तरकीब बनाकर विशम्भर अपने गांव वापिस आ गया।
अगले दिन जब वो कुटिआ में सो कर उठा तो बहुत खुश महसूस कर रहा था। आज उसके प्रायश्चित का आरम्भ होने वाला था। दोपहर में शंकर भागा भागा मंदिर में आया। उसने प्रसाद चढ़ाया और कुटिआ में विशम्भर को देने के लिए आ गया। विशम्भर सब कुछ जनता था पर उसने शंकर से पूछा की क्या बात है। शंकर ने बताया कि सुबह सुबह पड़ोस के गांव से जमींदार आया था और मुझे मेरी जमीन के कागज दे गया था और कह रहा था की विशम्भर ने ही जाने से पहले ये मुझे देने की लिए कहा था। कहते कहते शंकर की आंखों में आंसू आ गए। ये कहकर शंकर अपने घर चला गया।
अब रोने की बारी विशम्भर की थी। वो सीधा मंदिर गया और भगवन के चरणों में पड़ गया। आज उसने अपने प्रायश्चित की पहली सीढ़ी चढ़ ली थी।
to be continued
