एक नादान परिंदा था वो
एक नादान परिंदा था वो
एक नादान परिंदा था वो
एक नादान परिंदा था वो
पतंग के माँझे से यूँ लिपटा हुआ
आज मैंने एक कबूतर देखा ।
मर कर कब का सूख चुका है
माँझे से दोनों पंख कटे हुए ।
बहुत फड़फड़ाया होगा शायद
आज़ाद होने को
पर ना मालूम था उसे
इस जाल के बारे में
इंसान के लिए जो
महज एक खेल है
मनोरंजन का साधन ।
परिंदे ने ना सोचा था कभी
पतंग की लूटमार का ये खेल
इक दिन
यूँ मौत का खेल बन जायेगा ।
वो तो बस साँझ ढले उड़ता हुआ
अपने घर लौट रहा था वापस
पतंगों कि इस बाजी में
जान कि बाजी हार गया ।
कुछ नज़र ना आया उसे
माँझे में बस
यूँ उलझता ही चला गया
आखिरी सांस तक फड़फड़ाता रहा
और आखिरकार दम तोड़ दिया
माँझे से यूँ लटक गया
जैसे मुंडेर से लटकी हो कोई कटी पतंग ।
दूर पीपल पर बेठे हुए चील कौए
बदन को यूँ नौंच नौंच कर खा गए
जो बचा उसे धूप सुखा गई ।
अब तो सिर्फ माँझा लटका है अकेला
किसी कबूतर के निशां नहीं है उस पर ।
गुनाह यही रहा शायद
एक नादान परिंदा था वो
बस एक नादान परिंदा था वो ।।
© RockShayar