Mamta Singh Devaa

Inspirational

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Mamta Singh Devaa

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एक महिला कुम्हार का हौसला

एक महिला कुम्हार का हौसला

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“ महिला कुम्हार “ अपने आप में एक चुनौती है, आज महिलायें करीब करीब सभी क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ रहीं हैं । एक तरफ सर गर्व से ऊँचा उठता है वहीं दूसरी तरफ दकियानूसी मानसिकता को देख कर समझ नहीं आता कि हम कौन सी सदी में जी रहे हैं , चलिए विस्तार से बताती हूँ ।


मैं " ममता सिंह देवा" सन 1993 में भारत से “ पॉटरी एंड सिरेमिक “ से मास्टर डिग्री करने वाली पहली महिला कलाकार , HRD मिनिस्ट्री से स्कालरशिप प्रदान की गई ( पूरे भारत में एक छात्र को ( पॉटरी एंड सिरेमिक में ) प्राप्त होती है । मास्टर्स के दौरान ' आजमगढ़ ब्लैक पाॅटरी पर रिसर्च करने वाली पहली शख़्स भी मैं ही थी ।

रिसर्च का एक साल हुआ था कि 1995 में विवाह हो गया जाने माने परिवार में और सब कुछ उसी पल रूक गया और फिर शुरू हुआ घर – परिवार – रिश्तेदारी – बच्चे...मरने से पहले तक ख़त्म नहीं होने वाला सिलसिला। ऐसा नहीं कि इन सबके बीच मैं कुछ कर नहीं सकती थी...समस्या थी कुछ ना करने देने की... उलाहनों – तानों – परेशानियों के बीच अट्ठारह साल गुज़र गए। घर बन रहा था उसी बीच कम उम्र में पति को हृदयाघात फिर ओपनहार्ट सर्जरी...छोटे बच्चे...सब कुछ मिल कर कभी ना ख़तम होने वाली अँधेरी सुरंग के सामान लग रहा था।

कहते हैं ना कि “ हिम्मते मर्दा – मर्दे खुदा “ मेरी हिम्मत ने हार नहीं मानी...पति के साथ मिल कर घर भी बनवा रही थी और उसी बीच अपना पॉटरी का स्टुडियो शुरू करने की ठानी । सब इतना आसान नहीं था...मुसीबतें एक के बाद एक हँसती हुई सामने खड़ी थीं और मैं बेशरम सबसे हँसती हुई ही मिल रही थी। सोचा एक कुम्हार रख लेती हूँ मिट्टी वगैरह तैयार करने में मदद हो जायेगी...सोचने से कुछ होता तो बात ही क्या थी...कुम्हारों ने एक औरत के आधीन सीखने से मना कर दिया ये उनके आत्मसम्मान का खिलाफ था । चलो कोई बात नहीं अकेले ही कर लूंगीं...हरिवंश राय बच्चन याद आ रहे थे “ मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती “ ज़रा गौर से सोचिये एक कुम्हार को काम करते देख कर लगता है की ये बेचारा कितनी मेहमत करता है... यहाँ उम्र भी बढ़ रही थी ( हा...हा...हा औरतें अपनी उम्र नहीं बताती पर मैं अपवाद हूँ ) ऊपर से अट्ठारह सालों का लम्बा अंतराल और कुम्हारों से सौ गुना ज्यादा मेहनत...सोचना...सोच को आकार प्रदान करना...सिरेमिक की नफासत – केमिकल्स – केमिकल रिएक्शन – 1250 डिग्री सेंटीग्रेट पर पकाना आदि बहुत कुछ । 

पहले हम मजदूर बनते हैं फिर कुम्हार उसके बाद साइंटिस्ट सबसे अंत में कलाकार खैर काम शुरू किया मैंने और पहली फर्नेस से निकली मेरी कलाकृति 56th National Exhibition of Art में चुन ली गई...ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी जैसे अट्ठारह साल बाद तपती ज़मीन पर जोरदार बारिश। फिर 19th और 20th All India Potters Exhibition में लगातार “ पॉटर आँफ द इयर “ का पुरस्कार ने मेरे हौसले को और बढ़ाया तभी “ सीनियर फेलोशिप “ की घोषणा हुई पूरे भारत में ये भी ( पॉटरी एंड सिरेमिक में ) एक ही कलाकार को मिलती है और ये बेहद सम्मानजनक सीनियर फेलोशिप मुझे प्रदान की गई...खुशी चरम पर थी मेहनत का फल मिलना शुरू हो चुका था , हिम्मत बढ़ रही थी सोच को नए आयाम मिल रहे थे और अपनी इस सोच को मैं पुर्णतः साकार कर पा रही थी। आज पूरे जोश के साथ काम कर रही हूँ और अपनी नई नई सोचों से लोगों को अवगत करा रही हूँ .....

“ मैं

जब अपनी

इच्छाओं - कल्पनाओं को

साकार करती हूँ

तब उन्हें

मिट्टी में सान कर

चक्के पर डाल कर

अलग – अलग रूपों में

आकर देती हूँ

मेरा हर पात्र

भिन्न होता है

मेरी कल्पनाओं सा

रंगीन होता हैं

इनको देख कर सहलाकर

ये महसूस होता हैं

कि क्या मेरी कल्पनाओं का

इतना सुन्दर रूप होता है ?

मेरा दूसरा पहलू लेखन है 2019 में अपनी कविता का पहला संकलन " गढ़ते शब्द " अपनी अम्माँ को समर्पित किया । मेरे अंदर जो कुछ भी हुनर है सब मेरी अम्माँ से मुझमें आया है मेरी किताब जब उन्होंने देखी और पढ़ी ( अम्माँ खुद बहुत अच्छी कविता लिखती थीं ) तो मुझे फोन किया और बोलीं " अरे ! तुम तो कंबल ओढ़ कर घी पीती हो " पता ही नहीं चला और मेरे हाथों में तुम्हारी किताब आ गई " मेरे जीवन में इससे बड़ी तारीफ कुछ और नहीं हो सकती है ।

किसी के लिए ये कहानी हो सकती हैं किसी के लिए प्रेरणा पर मैंने तो इसको जिया हैं और जी रहीं हूँ एक नए हौसले और एक नई उम्मीद के साथ....हर रास्ता कठिनाइयों से भरा होता हैं । जब हम उस पे चलते हैं तब लगता है की इसका अंत नहीं है परन्तु जब हम उसे पार कर लेते हैं या थोड़ी दूर चल लेते हैं तब लगता हैं कि हममें भी वो ताकत और ज़ज्बा हैं जो हमें आम से ख़ास बनाता हैं। कुछ लोग चाँदी का चम्मच ले कर पैदा होते हैं तो कुछ हम जैसे मेहनत और पसीने से डूबे कर्म ले कर...ऊपर वाले ने जब हुनरों से नवाज़ा है तो उसकी उम्मीदों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी भी तो मेरी हैं उस ज़िम्मेदारी से कैसे भाग सकती हूँ मैं...


तूने जब ढाला होगा मुझे

सांचे में ये सोच कर

कि बना तो रहा हूँ मैं औरत

हुनरों से लबरेज़ कर देता हूँ

और हिम्मत मर्दों की देता हूँ

नज़ाकत इसकी मैं छीन लेता हूँ

रूठना – मनाना – शर्माना

इसके हिस्से में नहीं देता हूँ ,

मैंने भी लिया तूने जो दिया

सर नवाया तेरे दिए पे

जो हुनर जो हिम्मत

रह गई थी तुझे देने में

उसको भी ले आई मैं

तुझसे ही बचा के

तुझसे ही चुरा के ,

मेरी खता मुआफ़ करना

अपनी ही बनाई

इस औरत पर नाज़ करना।

 

कहते हैं की जिस आदमी के हाथ में गट्ठे नहीं हैं उसके हाथ का पानी नहीं पीना चाहिए यहाँ तो मैं औरत हूँ हाथों में गट्ठों के साथ....दस आदमियों पर तो भारी पडूँगी मैं , मेरी बनाई दुनिया में आराम की कोई जगह नहीं हैं....काम – काम और बस काम बाकी उस ऊपर वाले के हाथ में जिसके हाथ में हमने पूरे विश्वास के साथ अपने धागे दे रक्खे हैं।

सौ बात की एक बात “ कैसे आसमां में छेद हो नहीं सकता , एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों “ और वो पत्थर मैंने उछाल दिया है..



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