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Priya Gupta

Classics

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Priya Gupta

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एक ही सपना

एक ही सपना

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आज सोचा था, जब अभय ऑफिस से आयेंगे तो बात करुँगी, अभी सोचा ही था की वो ना जाने कब दरवाज़ा बन्द करके निकल गये। किचन को समेटते हुए,अपने मन में हज़ारों सवाल पुछ रही थी, आज से पहले भी कई बार ये ख्याल आया था,कि जॉब छोड़ने का दुख मुझे इतना क्यूँ हैं ? पर आज कुछ और बात अंदर ही अंदर दस्तक दे रही थी।शायद, ये मेरा अकेलापन हो या मेरे सवालों का अधूरा-सा जवाब।

तभी, मेरी नज़र एक बार फिर बेडरूम पर लगी उस तस्वीर पर गई जहां हम दोनों एक साथ "एक दूजे के लिये" सपनें देखें थे।और उस सपनें को पूरा करने का वादा;

 खैर ! तभी नज़रे दूसरी ओर टंगे फ्रेम पर रुक गई, जिसमें मेरी फोटो और सर्टिफ़िकेट देखकर यादें, फिर से मेरी कहानी के पहले पन्ने पर पहुुंच गई ।

"एक ही सपना"--यही थी मेरी अपनी पहली उपन्यास! जब मुझ मेरे नाम से "प्रिया गुप्ता जी" पुकारा गया, और तालियों की गूंज में एक सितारा की तरह अपने आत्मविश्वास को लेते हुए पूरे जोश में मैं स्टेज की ओर बढ़ती चली गई। मेरा अवार्ड मानो मुझे बुला रहा है। यही था वो दिन, हाँ,शायद आखिरी बार मेरी आवाज़ में जोश थी, ये सोच ही रही थी कि तभी दिल ने जैसे मुझे इज़्जात दे दी कि ' मुस्कुरा लो' अच्छी लगती हो! देखते ही देखते, एक छोटी सी मुस्कराहट ने आखिर चेहरे को छू लिया।

मेरे अंदर से ना जाने कितने सवाल उमड़ रहे थे, लेकिन क्या फायदा जवाब भी मुझे ही देना था, "क्या है मेरा अस्तित्व ? "बचपन में शायद ही कभी ये सवाल मन में आया हो।

मेरे अंदर भी एक कवि है, एक लेखिका है और हर उम्मीद पर खरा उतरने की हिम्मत भी है।

फिर भी, 'जीवन के इस युद्घ में चुनौतियों का ये दोहरा बोझ मुझ पर ही क्यों ?

 मेरी सोच, मेरे अवसरों और अधिकारों का कोई मोल नहींं ?

इतना लम्बा सफ़र तय करने के बाद खुद को एक कठघरे में पाती हूं और विवश होकर खुद से यही सवाल करती हूं कि 'क्यों मैनें ज़िद नहीं की हर उस छोटी-बड़ी बात के लिये जो मेरे हक़ की थी ?

"क्यों मैं इस समाज के झूठे नियमों को मानती गयी और कभी विरोध नहीं किया ? क्यों मैनें जवाब नहीं दिया, अपने सपनों की बलि चढ़ा दी क्यों ? क्यों मैनें कभी जवाब नहीं दिया उस बात का जिसका कोई अर्थ नहीं था ? जिन्दगी की हर पहलू का हिस्सा बनने की चाहत लिये हर दिन को मैनें स्वीकार किया। हमेशा पहले दूसरों की खुशियों का ख्याल किया ?

"मुझे ही क्यों हर बार, अपने बेटी होने का,कभी लड़की, कभी बहू, कभी माँ, कभी पत्नी होने का अह्सास इस लिये नहीं दिलाया गया क्युंकि हर रूप में मेरा योगदान है,ब्लकि सिर्फ इसलिये, कि जीवन की इस नाटक में मेराकिरदार हमेशा आखिरी पंक्ति में हैं ?"

 "एक ही सपना" तो देखा था क्या वो भूल थी मेरी ? क्यों मेरी किसी बात का मोल नहींं था ?"

क्यों था अधूरा-सा सब मेरे हिस्से? ये सवाल आजकल अक्सर मेरा साथ निभाते है, लेकिन जवाब देने का साथ कोई नहीं निभाता।


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