एक दिन ज़िन्दगी
एक दिन ज़िन्दगी
कोई पागल लगता है ?
मैं अपनी झपकी से जाग गयी था, ये मेरी आदत में शामिल था कि मैं मेट्रो में एक सुरक्षित सीट ढूंढती थी और कोई 10-15 मिनट की झपकी लेती थी।
“इसका रिपब्लिक डे अभी तक चालू है।” एक और तेज़ आवाज़ आई।
“क्या पता ये नहाना भूल गया हो !” एक और टिपण्णी हँसी की तेज़ आवाज़ के साथ आई।जब मैंने इन आवाज़ की दिशा में देखा तो वहाँ कॉलेज जाने वालों का एक ग्रुप एक दूर खड़े लड़के का मजाक बना रहे थे। लड़का किसी पढ़े लिखे परिवार से लग रहा था जो टीशर्ट वो पहने था उस पर तिरंगा छपा हुआ था। वो लड़का गुस्से में तो लग रहा था पर पलट कर कुछ बोल नहीं रहा था।
आज 28 जनवरी थी, एक व्यस्त सोमवार की व्यस्त सुबह। पिछले शुक्रवार, हालाँकि 25 जनवरी थी, पर अन्य कार्यालयों की तरह हमारे यहाँ भी गणतन्त्र दिवस मनाया गया था। पूरे स्टाफ ने तिरंगा वाले कपड़े पहने थे और धूमधाम से मनाया था।
लेकिन ये 3 दिन पहले, अब प्रेम सप्ताह एक हफ्ते में शुरू होने ही वाला था और यही कारण था कि ये लोग हँस रहे थे। इतनी भागदौड़ की ज़िन्दगी में कौन एक त्यौहार को 3 दिन खींचता है।
मैंने ये पूरा तमाशा थोड़ी देर देखा, मुझे पूरा विश्वास था कि झगड़ा कभी भी शुरू हो सकता है। मेरा मेट्रो स्टॉप भी बस आने ही वाला था तो मैंने सोचा कि बहुत हुआ, अब मैं बीच में हस्तक्षेप करती ही हूँ।
उस कॉलेज वाले ग्रुप के पास तो जाने का कोई फायदा था ही नहीं, मैंने उस लड़के के पास जाना सही समझा।
“हेल्लो, मैं नयनाश्री लोक मत समाचार से, मैं एक विडियो बना रही हूँ। मैं आपका भी दो मिनट का इंटरव्यू लेना चाहती हूँ।
“मैं विवेक” वो थोड़ा कंफ्यूज था “मुझे अगले स्टॉप पर ही उतरना है तो..”
“ये तो और भी अच्छा है. मुझे भी इसी स्टेशन पर उतरना है। हम ये इंटरव्यू स्टेशन पर ही कर सकते हैं, अगर आपको कोई समस्या न हो।”
“पता नहीं आपने मुझे क्या सोचकर चुना पर मुझे कोई समस्या नहीं है, कुछ ही मिनट की बात है।”
वो कॉलेज वाला ग्रुप अब पूरी तरह शांत था और आश्चर्यचकित होकर हमें मेट्रो से उतरते हुए देख रहा था।
प्लेटफार्म पर उतरते ही मैंने कहा “माफ़ करना विवेक। मैंने झूठ बोला, मैं किसी अखबार से नहीं हूँ। मुझे लगा था कि आप लोगों में कभी भी झगड़ा हो सकता है और मैं झगड़ा रोकना चाहती थी। मुझे ख़ुशी है कि मैं यह कर पाई, आपने देखा ही होगा कि वो लोग बिलकुल चुप हो गए थे।”
“हा हा हा ! मैंने देखा, शुक्रिया, मेरा दिमाग बहुत ख़राब हो रहा था पर आपने बचा लिया।”
“मैं अभी तक समझ नहीं पाई कि आपने ये ऐसी ड्रेस क्यूँ पहनी।”
“ऐसे ही।”
मैं सोच रही थी कि वो देशभक्ति पर कोई स्पीच देगा पर उसका ये जवाब मुझे थोड़ा अजीब लगा। मैंने उसको थोड़ा और पुश किया “प्लीज बताइये न, मैंने आपका मूड बचाया है।”
“चलिए, मैं बता देता हूँ पर आप हँसियेगा नहीं और किसी और को भी मत बताइयेगा।”
“प्रॉमिस”
“असल में मेरे पास केवल यही धुले हुए कपड़े थे।”
न चाहते हुए भी मेरी हँसी छूट गयी और उससे हँसने के लिए माफ़ी माँगते हुए आगे चल दी।
मैं उस समय तो हँस दी पर पूरे रास्ते यही सोचती रही “क्या एक दिन में त्यौहार मनाना और फिर एक साल के लिए भूल जाना क्या सही है ? क्या इस देश को हमसे केवल एक दिन चाहिए ? क्या जो लोग इस तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी से नहीं चलते, क्या हमें उन पर हँसना चाहिए ?”
पर, छोडिये ये सब कुछ अब मुझे भी ऑफिस में देखना था कि आज क्या काम करना है ? कौन इस बात को लम्बे समय तक ढोए।