Arunima Thakur

Inspirational

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Arunima Thakur

Inspirational

एक अनजान के साथ

एक अनजान के साथ

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बरसात की रात

एक अनजान के साथ

     

शायद मैं कभी भूल ही नहीं सकता बरसात की उस रात को, उन लोगों को और उसको। उसको जिस का ना नाम मालूम है ना ही शक्ल देखी थी। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। मैं अपने शहर से कुछ चार स्टेशन दूर एक शहर में काम करता हूँ। ट्रेनों की अच्छी सुविधा के कारण ट्रेन से यह पचास मिनट का आना जाना बुरा नहीं लगता। पर कोरोना के चलते सब बंद था। अब कंपनी ने पहले दो महीने तो सिर्फ उन्हें ही बुलाया जिनकी जरूरत थी। मैं मार्केटिंग में था तो मैं घर पर ही था। बड़ी कंपनी होने के बाद भी तनख्वाह का कोई ठिकाना नहीं था। दिल धक-धक भी करता अगर निकाल दिया तो ? घर कैसे चलेगा ? नौकरी कहां ढूंढूंगा ? इस कोरोना काल में कमाई कम हो गई है और मास्क, सैनिटाइजर इन का खर्चा और बढ़ गया है। खैर लॉक डाउन अवधि खत्म होने के साथ ही एक दिन जब कंपनी से कॉल आया तो जान में जान आई, चलो निकाला नहीं गया है। दो दिन बाद से वापस कंपनी जाना शुरू करना था। पर परेशानी यह की ट्रेन चलनी शुरू नहीं हुई थी। जो शुरू हुई थी वह समय मुझे जम नहीं रहा था। खैर सोच विचार कर और सुरक्षा मानकों से भी यह तय हुआ कि बाइक से जाऊंगा। रोज तो जाना नहीं है। ट्रेन से जो सफर पचास मिनट का था वह बाइक से लगभग सवा घंटे का होता है। पहले भी कई बार बाइक से जा चुका था। मां ने चिंता भी जताई कि बेटा बारिश में परेशानी होगी। तो मैंने, "अभी कहां बारिश शुरू हुई हो रही है" कहकर उनकी चिंता को टाल दिया।

 जानता तो मैं भी था कि जून लगने के बाद बारिश कभी भी हो सकती है। ऊपर से समुद्र के किनारे का रास्ता और चार पांच पहाड़ी नदियां (नाले) जो आसपास के पहाड़ों से आकर समुद्र में मिलती हैं (ऊपरी वैतरणा , निचली वैतरणा और कइयों के तो शायद नाम भी नहीं मालूम) I तो बारिश के मौसम में रास्ता तो खतरनाक था ही। पर खैर अभी तो मई ही चल रही है। जो होगा देखा जाएगा। हो सकता तब तक ट्रेन शुरू हो जाए।


तो यह 30 मई की बात है। मैं रात आठ बजे के आसपास मेरी कंपनी से निकला। नहीं रोज इतनी देर नहीं होती है। कल रविवार है तो व्यापारियों से बात कर ऑर्डर लेना और लिखवाना इसी सब में देर हो गयी। खैर फोन करके माँ को बोल दिया, "माँ थोड़ा लेट हो रहा है, साढ़े नौ दस बजे तक पहुंच जाऊंगा।" मां चिंता जताते हुए बोली, "बेटा वहीं रुक जा, शाम से बारिश हो रही है। रास्ता भी ठीक नहीं है।" मां तुम भी ना कहां बारिश हो रही है। यहां तो मौसम अच्छा है। परेशान मत हो। इस कोरोना काल में होटल तो सब बंद है और किसी के घर जाकर रुक नहीं सकते यही सोच कर मैं निकल पड़ा। बाहर सड़क पर आकर शहर से बाहर निकलते ही लगा आज अंधेरा कुछ ज्यादा ही गहरा है। ऊपर देखा तो एक भी तारे नहीं। तभी मुंह पर ऐसा लगा दो तीन बूंदें गिरी। मन खुश हो गया, वाह मौसम की पहली बारिश में भीगने में मजा आएगा।

 दिमाग ने पूछा तुमने रेनकोट तो डिक्की में रखा है ना। दिल बोला कोई नहीं इतनी बारिश थोड़े ही होने वाली है। फिर भी मैंने जेब से सबसे पहले रुपए, जरूरी कागज पर्स मोबाइल सब निकालकर डिक्की में रखा। तब से तो रिमझिम फुहारों का स्थान बड़ी-बड़ी बूंदों ने ले लिया। हेलमेट की वजह से मुंह तो बच गया पर बाकी शरीर पर यह बूंदें तीर की तरह पड़ रही थी। नगर पालिका ग्राम पंचायत के इलाके से बाहर होने के कारण रास्ते में कहीं भी बिजली के खंभे नहीं थे। घुप्प अंधेरा, सुनसान सड़क, मूसलाधार बारिश , आसमान के इस छोर से उस छोर तक कड़कड़ाती बिजली की रेखा जी को दहला रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि आगे चलूँ या पीछे लौट जाऊं। अब समुद्र का किनारा भी शुरू हो गया था। सरू के पेड़ों से गुजरती हवा बाइक को धकेल रही थी। समुद्र की लहरों का शोर उस घमासान बारिश में भी सुनाई पड़ा था। आगे कुछ दूरी पर एक गांव था और रेलवे स्टेशन भी। सोचा वही जाकर रुक जाता हूँ। कम से कम माँ को फोन तो कर पाऊंगा कि मैं यही शहर में रुक गया हूँ , सुरक्षित हूँ, चिंता ना करें। नहीं तो मां का तो चिंता से बुरा हाल हो रहा होगा।


थोड़ा आगे जाने पर गांव की सीमा प्रारंभ हो गई थी तो रोड लाइट की रोशनी में मैं कोशिश कर रहा था कि आजू-बाजू देखकर रास्ता पहचानने की कि कहां से मुझे स्टेशन के लिए मुड़ना होगा। तभी सामने सड़क पर एक स्कूटी और एक साया दिखा। शिष्टतावश मैंने अपनी गाड़ी रोककर पूछा क्या हुआ ? यह तो कोई महिला नहीं शायद लड़की थी रेनकोट पहनी थी इसलिए समझ में नहीं आ रही थी। शायद वह मुझे देख कर डर गई। आजकल के हालात देखते हुए लड़कियां हम लड़कों को देखकर डर जाए तो गलत भी तो नहीं है। उसने अटकते हुए बोला उसकी गाड़ी खराब हो गई है। मैं बोला क्या जरूरत थी इतनी बारिश में निकलने की। वह बोली नौकरी से आ रही हूँ। रोज ही आती जाती हूँ आजकल (हम्म. . हर जगह वहीं कहानी कोरोना और पेट की लड़ाई)। पिछले 2 घंटों से खड़ी हूँ। थोड़ी थोड़ी हिम्मत लगाकर खींचकर गाड़ी आगे ले जाने का प्रयास कर रहीं हूँ। यहाँ वीराने में इसे छोड़ कर जा भी नहीं सकती।

वहां अंधेरे में मैकेनिक बन कर बड़ाई मारने का कुछ फायदा नहीं था तो मैंने कुछ सोचते हुए कहा अपना दुपट्टा दीजिए। वह अचकचा गई, दुपट्टा ? हां चुन्नी जो आप ओढ़ती हैं वह दीजिए। इससे मैं आपकी गाड़ी को अपनी गाड़ी से बांध दूंगा और खींच कर आगे किसी सुरक्षित स्थान पर रखने के बाद आपको आपके घर तक छोड़ दूंगा। वह बोली पर मैंने तो पेंट पहनी है। ओह.. . तभी मुझे अपनी बेल्ट का ध्यान आया। मैंने पूछा बेल्ट तो लगाई होगी ना वह दीजिए। फिर दोनों बेल्टों की मदद से उसकी गाड़ी को अपनी गाड़ी में बांध दिया और बोला, "देखिए खुल जाए तो संभालिएगा ब्रेक पर हाथ रखे रहिएगा।" मैंने उससे पूछा क्या आप जानती हैं कि रेलवे स्टेशन यहां से कितनी दूर है और किस तरफ हैं। उसने बोला यहां से आधा किलो मीटर पर बाएँ मुड़कर थोड़ी दूरी पर है पर आप क्यों पूछ रहे हैं। तो मैंने उसे बताया इतनी बारिश में ठंड से मेरे हाथ मेरा शरीर अकड़ गया हैं। तो मैं सोच रहा था कि इस स्टेशन पर रुक जाता हूँ और बारिश बंद हो जाए तब आगे बढ़ूँ। उसके अच्छा कहने पर उसके आवाज की मायूसी मुझे हिला गई। कहीं वह मेरे बारे में कुछ गलत तो नहीं सोच रही है। तो मैंने बोला खैर जाने दीजिए अब एक से भले दो, धीरे धीरे चलते चलते निकल जाएंगे। वह बोली मेरी डिक्की में मेरे पापा का अतिरिक्त रेनकोट रखा है। आप चाहे तो पहन ले ठंड कम लगेगी। हां यह ठीक रहेगा। रेनकोट पहनकर हमने चलना शुरू किया। गति सामान्य से कम रखी क्योंकि डर था कहीं बेल्ट खुल न जाए। थोड़ी दूर चलने पर सामने सड़क पर काफी पानी भरा हुआ था। दूर तक पानी ही पानी और पानी में बहाव भी था। हे भगवान क्या निचली वैतरणा ओवरफ्लो कर रही है। अब क्या करूं आगे बढूं या रुकूँ। नीचे पैर लगा कर देखा तो पानी चार अंगुल से ज्यादा नहीं था पर बहाव बहुत तेज था। क्या करूं ? मन ही मन में डर रहा था। अगर बीच पुल पर बेल्ट खुल गई और वह उसकी गाड़ी समेत बह गई तो ? पर भगवान का नाम लेकर थोड़ा तेज गति से गाड़ी चला कर पुल पार कर लिया। हाश जान में जान आई।


आगे मैं आजू-बाजू देखता चला जा रहा था कि यही किसी मोड़ से बाएं मुड़कर मैं स्टेशन पहुंच सकता था और अगर भगवान ने चाहा होता तो दसवाली पैसेंजर मिल सकती थी। क्या करूं गाड़ी खड़ी करके पैसेंजर से निकल जाऊं ? पर इस लड़की का क्या होगा ? इसी उधेड़बुन में था तभी पीछे से हॉर्न की आवाज आई। मुझे लगा अब कोई मदद मिल जाएगी। गाड़ी रोक कर पीछे देखा तो वह भी गाड़ी खड़ी कर मेरे पास आकर बोली, "हॉर्न मैंने बजाया था आपको रोकने के लिए। मुझे लगता है हमें स्टेशन की तरह मोड़ लेना चाहिए। पीछे अगर निचली वैतरणा ओवरफ्लो कर रही थी तो आगे ऊपरी वैतरणा का तो बहाव और भी ज्यादा होगा। उसके बताए रास्ते पर मुड़कर हम स्टेशन पर आ गए। स्टेशन परिसर में गाड़ी खड़ी कर जब से हम अपनी गाड़ियां पार्किंग में खड़ी करते और स्टेशन पर पहुंचते दस वाली पैसेंजर हमारे सामने से गुजर गयी। हम भागते हुए प्लेटफार्म पर पहुंचे तो वहां सब बंद था। शायद अकेले स्टेशन मास्टर या गार्ड कोई था। कौन, हमने नहीं पूछा। हमने पूछा अगली ट्रेन कितने बजे मिलेगी ? उन्होंने बोला थोड़ा लेट कर दिया ट्रेन कब से यही खड़ी थी। एक आदमी देखने गया था कि आगे वाला पुल ठीक है या .... , उसके हाँ कहने अभी गाड़ी रवाना किया। हमने अपनी सारी परेशानी उन्हें बताई। तो उन्होंने बोला अच्छा किया तुम आगे नहीं गए। ऐसा सुनने में आ रहा है कि वह पुल आधा बह गया है। बारिश भी तो सुबह से लगातार हो रही है।


मैं सोचने लगा अच्छा हुआ यह लड़की मुझे मिली। शायद इसके नसीब से ही मेरे नसीब में जिंदा रहना लिखा था। वह तो शायद मैं अकेले होता तो पुल पार करके जाने की कोशिश करता। मेरे तो रोंगटें ही खड़े हो गए पानी में बह जाने की कल्पना से। मैं उस लड़की की ओर कृतज्ञता भरी दृष्टि से देख ही रहा था कि वह बोली, "मैं आगे वाले गांव में ही रहती हूं, इसीलिए मुझे मालूम है। पिछले साल बारिश में ही हम डर रहे थे कि कहीं यह पुल बह ना जाए।" पर अब करें भी तो क्या करें। तो वही बेंच पर बैठ गये। पूरा स्टेशन बन्द, कोई दुकान भी नहीं खुली थी। पेट में चूहे कूद रहे थे। स्टेशन मास्टर से छतरी लेकर मैं बाइक से अपने सारे कागज पर्स और मोबाइल निकाल कर लाया। मोबाइल में मां के दसियों मिस्ड कॉल थे। फोन करके उन्हें बताया मैं सकुशल हूँ , चिंता ना करें। थोड़ी देर हम वही चुपचाप बैठे रहे। फिर वह लड़की बोली, "बुरा ना माने तो एक बात बोलूं। अगर हम चलते हुए रेलवे लाइन से होते हुए पुल को पार कर निकल जाए तो थोड़ी दूरी पर मेरा गांव है। वहां से मैं आपको किसी की बाइक मांग कर दूंगी। आप अपने घर चले जाना।" रेलवे लाइन पर चलते जाना, वह भी अंधेरे में बहुत खतरनाक था। अचानक से कोई ट्रेन आ गयी तो ? पर शायद स्टेशन मास्टर भी हमारे वहां रुकने से असुविधा महसूस कर रहे थे। ( लोग डर जाते हैं क्या पता लड़का लड़की घर से भागे हो ? लड़के ने कुछ काण्ड कर दिया तो मुसीबत गले पड़ेगी इत्यादि) तो उन्होंने समर्थन करते हुए बोला हां चार किलोमीटर दूर ही तो है अगला स्टेशन यहां से और अभी दो घण्टे तक कोई ट्रेन भी नहीं आने जाने वाली। मैंने बोला अंधेरा है। तो वह बोली नहीं यहां से वहां तक बीच-बीच में लाइट है और मेरे पास टॉर्च भी है। वह जाकर अपनी स्कूटी से छोटी सी टार्च लेकर आई। मैं मन ही मन हंस दिया इतनी अंधेरी रात इतनी छोटी टार्च। अपनी गाड़ी हम लोग वहीं लॉक करके उनके सुपुर्द करके हम रेलवे लाइन पर चलने लगे। बारिश अभी भी मुसलाधार हो रही थी। इतनी भयंकर बारिश ,जोरदार हवा ,भीगे कपड़े और हवा चलने नहीं दे रहीं थी। फिर भी हम तेज तेज कदम बढ़ा कर चलने की कोशिश कियें जा रहे थे। इतनी बारिश में बात करने के लिए भी हमें चिल्लाना पड़ा था। आखिरकार हमने वह कोशिश भी छोड़ दी और चुपचाप बढ़े। आगे पानी का शोर सुनाई पड़ रहा था शायद नदी आ गई थी। तभी हमारे पैरों को पानी का एहसास हुआ। नदी पुल के ऊपर से तो नहीं पर अगल-बगल से काफी वेग से बह रही थी। मैं थोड़ा ठिठक गया। वह बोली इस तरफ ही निचला है उस तरफ पानी नहीं होगा। कैसे यह लड़की मेरे मन की बात जान जाती है। मैं यही सोच रहा था कि अगर इधर से पुल पर चढ़ भी गए और उस तरफ की जमीन बह गई हो तो ? उसने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया। हम धीरे-धीरे बढ़ने लगे पानी भी बढ़ रहा था पानी धीरे-धीरे घुटनों से ऊपर होकर अब हमारे कमर तक आ गया था। मुझे हर पल लगता कि अब अगला कदम मेरा पानी के बहाव में बह जाएगा पर उसके हाथ पकड़ने से मुझे हिम्मत मिल रही थी। धीरे-धीरे चढ़ान आ गई। हम सकुशल पुल पर पहुंच गए। एक सूखे नाले सी नदी कितना विकराल रूप धर कर पूरे वेग से दौड़ रही थी। उस के कहने अनुसार सच में ही उस तरफ पूरा सुखा था। बीच में जहां रोशनी नहीं थी वहां हमने टार्च से काम चलाया। मूसलाधार बारिश की बूँदें जो शरीर पर नश्तर की तरह चुभ रहीं थी , हवा तो मानो लग रहा था उड़ा ले जायेंगी आप पास के लहलाहाते नारियल के पेड़ जो हवा के वेग से टेढ़े हो गये थे लग रहा था कि कहीं हम पर ही नागिर पड़ें। शायद एक घंटे चलते रहने के बाद हम दूसरे स्टेशन के पास पहुंचे। वह दाएं तरफ पगडंडी पर उतर गई। उसकी चाल देखकर लग रहा था कि अब वह निश्चिंत है। उसका इलाका आ गया है। शायद बारह पौने बारह के करीब हम उसके घर पहुंचे।


बहुत ही सज्जन लोग थे। एक लड़के के साथ आधी रात को अपनी लड़की को देख कर भी कोई सवाल नहीं पूछा। शायद उन्हें अपनी बेटी पर विश्वास था। उसके पापा ने तैलिया लाकर मुझे पकड़ाया। मैंने रेनकोट निकालकर वही रखा बाल पोंछे। तब से उसकी मां गरमा गरम अदरक की चाय लेकर आई। उसने उसके पापा से बात की। उसके पापा पड़ोसी के घर जाकर उनकी गाड़ी मांग कर लाए। उससे पहले उन्होंने मुझे रात रुकने का आग्रह भी किया था। पर मैं इतना थका और भीगा था कि बस मुझे अपने घर की याद सता रही थी शायद मैं बहुत डरा हुआ भी था। मैंने उनसे विदा ली। अगले बीस मिनट में तो मैं घर पर था। मां तो मुझे देखकर अचंभित रह गई। तू तो बोला था तु रूक गया है ? तू इतनी रात को, इतनी बारिश में, यह रेनकोट किसका है ? मैंने कहा माँ कुछ खाना हो तो खिला बाकी बातें बाद में। जब से मैं नहा कर आया, खाना खाकर मां को सब बता कर, सोने गया तो सोच रहा था आज का दिन नहीं आज की रात शायद बहुत अच्छी थी। जो मुझे इतने अच्छे लोगों से मिलवाया और शायद एक नए जीवन से भी। मुझे लगता है बताने की आवश्यकता नहीं है कि दूसरे दिन सुबह मैं जाकर उनकी बाइक और रेनकोट वापस करके आया।

 उसके भाई के साथ ही बाइक पर बैठकर एक मैकेनिक को लेकर हम स्टेशन गए। वहां मैंने उसके भाई को धन्यवाद बोला अपनी बाइक ली और घर पर आ गया। पर मजे की बात मुझे आज तक उसका नाम, फोन नंबर, शक्ल कुछ भी नहीं मालूम है ना ही उन्हें मेरा। इन्हीं सब बातों से लगता है इंसानियत आज भी जिंदा है। किसी अनजान को रात बारह बजे अपनी बाइक की चाबी पकड़ा देना शायद हर एक के लिए संभव नहीं।


पढ़ने के लिए आप सभी का आभार I आपके सुझाव एवं समीक्षा का स्वागत है I 



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