दो किनारे
दो किनारे
नदी की प्रवाह के साथ ही उसका मन भी बहता हुआ किसी शून्य में डूबता जा रहा था और वह बोतल के घूंटों को सीने में कसे जा रहा था। कुछ समय बिता होगा कि 'सलमान' ढूंढता हुआ वहां पहुंचा और कंधे पर हाथ रख कहा "तो तु यहाँ बैठा है। अब घर चल, देख रात होने को है।"
" थोरा रूक जा यार। मेरी बर्बादी की शाम और बोतल की जाम अभी बाकी है मेरे यार।"
'अब बस कर' फ़रहाद'! कब तक यहाँ ऐसे एकांत में बैठा जश्न ए मातम करेगा आज तो उसकी विदाई है न तु ....'सलमान' ने फरहाद को संभालते हुए कहा।
'तो तु शरीक न होगा मेरे शाम ए जलसे में ' फ़रहाद ने सलमान की ओर बोतल बढा़ते हुए कहा।
'तू तो जानता है कि मैं नहीं... ।'
'हां जानता हूँ कि तेरे लिए हराम है पर अपना तो आज से जिना ही हराम... फिर क्या हलाल, क्या हराम।'
अच्छा, चल घर चलते हैं। यहां देख लोगों का मजमा इकट्ठा हो रहा है।
फ़रहाद को संभाले सलमान धीरे धीरे अंधेरे में समाता जा रहा था और दूर अंधयारी गली में फ़रहाद के दबी जुबान से एक आवाज विलीन होती जा रही थी -
"ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो।
दूर नदी के उस पार से बैंड बारात की आवाज सुनाई दे रही थी और आसमान के छाती पर आतिशबाजी के चांद तारे टूट हवा में बिखर रहे थें।
आज 'मिश्रा जी' की छोटी पुत्री 'राधिका' का विवाह है। 'मिश्रा जी' अपने इलाके के मुखिया होने के कारण किसी परिचय के मोहताज नहीं साथ ही मुहल्ले में उनका अपना बोलबाला जो है। मकान पर लोगों का मजलिस लगा है। रात्रि बिजली प्रकाश श्रृंगार किये दूल्हीन समान खिल रही है। मेहमानों के अथिति सत्कार में मिश्रा जी और उनके परिवार अस्त व्यस्त हैं।
राधिका का कमरा उसके सहेलियों से भरा है। उन्होंने राधिका को चारों ओर से धेर रखा है और हंसी मजाक जोरो पर है।
'कोमल' ने चुटकी लेते हुए कहा 'सुना है राधिका के वें रेल ड्राइवर है, तब तो रात भर रेल चलाने में माहिर होगें।'
इस पर सभी सखियाँ खिलखिला उठी लेकिन राधिका के चेहरे पर कोई भाव नहीं दिखा। इतने में आंगन से महिलाओं के गाने की ध्वनि सुनायी दी। सभी सहेलियाँ कमरे से आंगन की ओर दौड़ी।
आंगन में महिलाओं के दल बड़े आनंद से गीत गा रही थीं -
"लाली लाली डोलिया में
राधा बेटी बरयतया राधा बेटी बरयतया
साज दहू हो बाबू हम रो बर यत या
साज दहू हो बाबू हमरो बरयतया।
हम कैसे साज यौ बेटी तोर बर यत या
तोर बरयतया कि
बर सय है हो रीमी झीमी पनया कि
बर सय है हो बेटी रीमी झीमी पनया।।"
गीत की ध्वनि राधिका के कानों से होते हुए हृदय को भेद रही थी और वह तीर खायी हिरणी भाती स्तब्ध थी।
'बारिश'... हां उस दिन भी मंद - मंद बारिश हो रही थी जब वह आखिरी बार फ़रहाद से मिली थी।उस घाट पर दोनों अकेले थे, अगली बोट आने में अभी एक घंटे का समय था।
'फ़रहाद यह हमारी अंतिम भेट है, अगले सप्ताह मेरी शादी है। तुम सुन रहे हो न।'
लेकिन फ़रहाद खामोश था, थोड़े देर बाद उसने हुगली नदी में कंकड़ फेकते हुए कहा -
' शादी मुबारक राधिका।'
'इसके बाद शायद हमारी भेट न हो पर तुम जीवन में आगे बढ़ जाना। तुम्हें अभी बहुत कुछ करना है। अपनी पढ़ायी पुरी कर अपने सपनों को साकार करना है। किसी के चले जाने से दुनिया नहीं रूकती।' राधिका ने आहे भरते हुए एक ही बार में सब कह दिया।
'जिंदगी ने जिंदगी में जिंदगी मांग कर कहा कि मेरे बगैर जिंदगी में आगे बढ़ जाना।' -' फरहाद'
"मैं क्या करूं कहो न। पिता जी कभी मान नहीं सकते। बड़ी दीदी ने अंतर जातीय विवाह किया और शादी के दस साल हो गये पिता जी ने उनका मुख तक नहीं देखा। तुम्हें क्या लगता है, हमारे भिन्न धर्म - प्रेम संबंध को वें स्वीकार करेंगे? उन्हें तो इसका भनक भी हुआ तो कयामत टूट पड़ेगी। समाज जो बहिष्कार करेगा वह अलग और तुम्हारी अभी नौकरी भी तो नहीं लगी है कि हम कही दूर चले जाय जहाँ कोई जाति धर्म का बंधन न हो।'
' आठ वर्ष के हमारे संबंध को यूं तोड़ कर जा रही हो राधिका! क्या तुम दो वर्ष और इंतजार नहीं कर सकती? मैंने नौकरी के लिए आवेदन कर दिया है फिर हम कही दूर चले जायेंगे। रही बात समाज, धर्म और जाति की तो मैं उसे नहीं मानता। मैं नहीं सोचता कि हमारे संबंध को लोग क्या सोचेंगे।
'लेकिन फरहाद परिवार को तो मानते हो न। उनको निराश कर क्या हम खुश रह सकते हैं?
' तो क्या राधिका, तुम मेरे बगैर खुश रह सकती हो?
राधिका - 'मुझे नहीं मालूम।' -
' तो सच कहो न कि तुम इस विवाह से खुश हो और अब तुम्हे मेरी जरूरत नहीं है। तुमने मुझे राधिका.... तुम.. तुम ने मुझे छला है राधिका! '
राधिका को लगा जैसे पृथ्वी थम सी गयी है।
उसके अंदर कुछ टूट - बिखर कर पिघलने लगा। हवा की साय साय और कल कल लहरों पर बरसते बूंदों की मीठी चोट से उत्पन्न ध्वनि प्रकृति की मौन प्रतिज्ञा में बांधा दे रहे थें।
मंद मंद बारिश में सारा वातावरन धीरे धीरे घुलने लगा था। राधिका को अब ख्याल हुआ कि बारिश अब तक हो रही है, उसने स्वयं को पाया कि वह कुछ नम हो गयी है। तन कुछ भारी सा हो चला है, देह पर चिपका वस्त्र बोझिल लगने लगा है।
लेकिन दोनों इस तरह खामोश बैठे थे जैसे बात खत्म हो गयी हो।
कुछ समय बाद, राधिका ने नदी के उस पार से आती हुयी बोट को देखते हुए कहा - "हम नदी के दो साहिल है फरहाद जो साथ बहते तो हैं पर कभी मील नहीं सकते, कभी एक नहीं हो सकते।"
"अगर साहिल लहरों के सहारे नदी के मध्य आना चाहे तो साथ बह भी सकते हैं और साथ रह भी सकते हैं।
बस शर्त, दोनों की रज़ामंदी हो।" - 'फरहाद'
लहरों पर दौड़ती हुई बोट अब करीब आ गयी थी। राधिका ने खुद को संभालते हुए कहा -' मेरी बोट आ रही है फरहाद, अब मुझे चलना होगा। अपना ख्याल रखना, अलविदा फरहाद।'
लेकिन फरहाद खामोश था। शायद उसके पास कोई शब्द नहीं थे ,अल्फ़ाज़ खत्म हो चुके थे शायद लेकिन भाव, क्या भाव कभी खत्म हो सकते हैं?
राधिका उठी, बोट की तरफ बढ़ने लगी, वह जा रही थी। 'फरहाद' का मन तरप उठा, मन हुआ दौड़ कर राधिका को रोक ले और अपनी आलिंगन में इस तरह बांध ले कि कोई बंधन न रहे लेकिन दिल ने टोका "क्या प्रेम कभी मील सकता है आलिंगन में?"
उससे जब रहा नहीं गया, उसने जाते हुये राधिका को पिछे से धीमी स्वर में कहा - "शादी मुबारक राधिका।" लेकिन' राधिका' ने कोई उत्तर नहीं दिया , ना ही मुड़ कर देखने की साहस कर सकी , वह और तेज गति से कदम बढ़ाती हुयी बोट की तरफ मुड़ गयी और 'फरहाद' युद्ध हारे सिपाही की तरह उसी मुद्रा में खड़ा राधिका को जाते हुए देखता रहा, बोट किनारे से नदी के मध्य पहुँच अदृश्य हो गयी।
राधिका बोट पर बैठी नदी के एक किनारे से दूसरा किनारा
पहुंच रही थी लेकिन कोई ध्वनि थी जो उसके कानों में गूंज रही थी, एक आवाज थी जो पीछे न छूटने का नाम लेती -" तुमने मुझे छला है राधिका।.. शादी मुबारक राधिका।
दुल्हन बनी 'राधिका' अपने कमरे में एकांत बैठी थी, खब़र मिलते ही कि बारात मुहल्ले में आ गयी है , राधिका की सभी सखियाँ और अन्य महिलाएं बारात देखने छत पर चली गयीह थी।
लेकिन राधिका के कानों में फरहाद के अंतिम शब्द अब तक गूँज रहे थे- "तुमने मुझे छला है राधिका........ शादी मुबारक राधिका" वह धीरे- धीरे चिंता- सागर में डूबती जा रही थी।
"फरहाद समझता है कि मैंने उसके साथ फ़रेब किया है कि मैं खुश हूं अपनी शादी से, वो फरहाद! तुम ये कैसे सोच सकते हो, तुमने यह कैसे मान लिया कि मैं... ।"
राधिका चिंता के सागर में पूरी तरह डूबती जा रही थी और उसका शरीर तर होता जा रहा था पर उसे वर्तमान की कोई सुध नहीं थी, वह इसी सोंच में डूबी थी-
"क्या प्रेम के लिए विवाह अनिवार्य है? क्या विवाह के बिना प्रेम का कोई महत्व नहीं, कोई अस्तित्व नहीं। प्रेम क्या है? दो आत्माओं का मिलन, विवाह क्या है? दो शरीर का मिलन? पर आत्मा तो आजाद हैं, उसे देह में क्यों कैद किया जा। क्या आत्मा कभी कैद हो सकती है?
मैं ऐसा क्या करू फरहाद की तुम्हें यकीन हो कि हमारा प्रेम फरेब नहीं, मैं क्या करू... हे भगवान्! "
राधिका फूट फूट कर रोने लगी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे लगा जैसे वह लहरों के सहारे बहती जा रही है, उसके हाथ-पाँव हिल नहीं रहे कि वह लगातार किसी अज्ञात अंधकारमय गूफा में समाती जा रही है।
काफी देर तक वह उसी मुद्रा में बैठी रही फिर मन में कुछ निश्चय कर धीरे से उठी और कमरे का दरवाज़ा बंद कर कुण्डी चढ़ा दी। पलंग पर आकर अपना देह बिछा दिया और तकिये में मुंह छिपाकर फूट फूट कर रोने लगी।
आज भोर से ही रिमझिम बारिश हो रही थी, काले बादलों के चादर ओढ़े दिन का सूरज अब तक रात्रि की गोद में कहीं सो रहा था। दिन के ग्यारह हुए होगें कि 'सलमान' 'फरहाद' के बंद दरवाजे को जोर जोर से खटखटा रहा था - " दरवाजा खोल फरहाद, फरहाद , वो फरहाद, अब तक सो रहा है क्या? जल्दी दरवाजा खोल।" 'फरहाद' हरबराकर उठा, उसने दरवाजा खोल दिया, 'सलमान' अपना छाता बाहर टांग कर अंदर चला गया और झरोखे के सामने मुख कर चुपचाप खड़ा रहा। 'फरहाद' ने 'सलमान' की खामोशी की गंभीरता को भापते हुए कहा -" क्या बात है सलमान ऐसे चुप क्यों हो? "
'सलमान' -" रात की नशा उतर गयी हो तो तुम्हें एक समाचार देनी है। "
'फरहाद' - "नशा की चिंता छोरो, तु बता बात क्या है।"
'सलमान' - "वो बात यह है कि कल रात राधिका का विवाह था न.... उसने... राधिका ने... " सलमान से आगे कुछ कहा नहीं गया, उसकी आंखें नम हो गयी, वह वहीं दिवार के सहारे बैठ गया।
'फरहाद' का चेहरा एक दम से बदल गया, वह 'सलमान' के करीब आकर भारी स्वर में कहा -" क्या बात है सलमान, साफ साफ क्यों नहीं कहते, राधिका ठीक तो है न।"
'सलमान' -" वो...... कल रात.......उसने गले में दुपट्टा डाल ........ राधिका ने आत्महत्या कर ली।
'फरहाद' दिल थामे वहीं बैठ गया, मुख से एक आह भर निकली -" वो राधिका..... तुम फिर से मुझे झोर गयी।"
वर्षा अब अपने पूर्ण रूप में थी , बरसते बूंदों की धार को आंधी की रफ्तार और तेज दे रही थी। आसमान गरज - चीत्कार रहा था, बिजली चिर कर वक्ष नभ का धरती पर अपना प्रकाश फेक रही थी। सारा वातावरन पिघल रहा था, भूतल अंदर ही अंदर गल रहा था।
'फरहाद' से अब कमरे में रहा नहीं गया, वह कमरे से बाहर निकला और तेज कदमों से नदी की तरफ बढ़ने लगा। सलमान ने जब कमरे में उसे नहीं पाया तो दरवाजे पर आकर पुकारने लगा लेकिन फरहाद काफी दूर निकल गया था, वह उसे नहीं दिखा। फरहाद के भीतर कोई शब्द गूंज रहे थे - "किसी के चले जाने से दुनिया नहीं रूकती........ ..... किसी के चले जाने से दुनिया नहीं रूकती" बाहर से मोनो कोई आवाज़ चेतावनी दे रही थी - "लौट जाओ, लौट जाओ फरहाद" लेकिन सभी चुनौतियों को स्वीकार करता वह नदी की तरफ बढ़ता जा रहा था।
सामने नदी का किनारा दिखने लगा। घाट की सीढ़ी से होते हुए वह पानी में उतरा, नदी की शीतल स्पर्श में उसे बहुत सुकून सा मिला, सारी थकान और तनाव जैसे जल में घुलने लगें , उसे नदी की इस शीतल गोद में नींद का अहसास हुआ , उसने आंखें बंद कर ली, अपना देह ढीला छोर दिया और निद्रा में डूब गया।
कुछ घण्टों बाद जब बारिश कुछ थक सी गयी और विश्राम लेने लगी, नभ ने भी आसमान से काले साये हटा कर सफेद चादर बिझा दिये तो 'सलमान' 'फरहाद' को ढूंढने बाहर निकला। ढूंढता हुआ वह हुगली नदी के किनारे घाट पर पहुंच। घाट पर कुछ लोग निकल आये थें।। वे आपस में कुछ बातें कर रहे थे - एक ने कहा " मिश्रा जी की बेटी ने शादी के ही दिन आत्महत्या कर ली।"
दूसरे ने कहा " हां लभ का मामला होगा तभी न।"
यह सुन तीसरे ने तुरंत कहा "हमने तो सुना है लड़की पेट से थी।"
एक चौथे ने कहा - " हमने तो यहां तक सुना है कि 'मिश्रा जी' ने खुद ही फांसी देकर मार दियें है, जानते नहीं हो क्या? ,वें लभ मैरेज के कितने कट्टर है, बड़ी बेटी का भी तो शादी के दस साल बाद भी कोनो आता पाता नाही, का पता ओके भी....... ।
सलमान से और सुना नहीं गया वह आगे बढ़ गया, वह नदी के किनारे पर खड़ा था तभी उसने देखा उस पार किसी की अर्थी सजाई जा रही है। उसके शरीर में कंपन्न होने लगे, मन ने टोका "यह कही 'राधिका' की तो नहीं, तब संभव है फरहाद वहां दिख जाय। सलमान जल्दी जल्दी घाट के चबूतरे पर आ कर बैठ गया और उस पार जाने के लिए अगली बोट का इंतजार करने लगा तभी मंद मंद बारिश होने लगी।
आज सातवां दिन मौसम कुछ साफ हुआ, पिछले छे: दिनों से लगातार बारिश हो रही थी, बारिश के कारण आस पास के कुछ कच्चे मकान ढह गयें थें। इलाके के बुजुर्ग आपस में बातें कर रहे थें - "इस बार , दस सालों में ऐसी वर्षा हुई है।"
लगातार बारिश होने के कारण नदी में बाढ़ आ गयी थी, दोनों किनारा अब नदी बन चुके थें, घाट की
सीढ़ियाँ जलमग्न थी, नदी का पानी सड़क पर उठ आया था और चलते राहगीर के पाव धो रहे थें।
छोटी छोटी नाव लिये मछुआरें नदी में जाल फेक रहे थें। उसी में किसी के जाल में एक शव उठ आया। शव पूरी तरह गल चुका था, लोगों के भीड़ ने अनुमान लगाया कि यह किसी युवक की लाश है।