मां की जुबानी
मां की जुबानी


"कंकड़ी चूनी चूनी महला बनाया।
न महला तेरा न महला मेरा।
चिड़ियों न लेगा बसेरा।।"
बचपन में अम्मा हमेशा गाया करती थी। हम बड़े आनंद से भावविहीन सुनते थें। अब अम्मा बड़े भाई के बच्चों यानी पोता पोतियों को सुनाती हैं। आज ऐसे ही मां को गाते सुना भाव भी समझ आयी।
चिड़ियों के बसेरों को तो जंगल में आग लगा कर हमने उजाड़ दिये।
तिनका तिनका जिन्होंने पहाड़ो, दूर - दराजों से चुन चुन कर अपना रैन बसेरा खड़ा किये थे।
फिर आदमी भी अच्छी, किमती कंकड़ से महल बनाने की लालच में दूर विदेश गया, गगन चुम्बी महला बनाया।
वही आदमी अब जब अपना वतन लौट रहा है तब मौत लिए आ रहा है, आदमी अपने हाथों से आदमी को मौत बाट रहा है।
आज आदमी अनजाने में अपने ही हाथों से अपना ही रैन बसेरा जलाता और उसी में जलता मरता जा रहा है।
कौन है इसके जिम्मेदार ?
वही नहीं जिसने वन में आग लगाया था। प्रकृति ने आज हमारे वन में आग लगायी है और वह भी हमारे ही हाथों।
और किस मुंह से ईश्वर से उम्मीद लगाये बैठे हैं, भूल गये 'सीरिया' में बम ब्लास्ट में मारी गयी उस मासूम बच्ची की आख़िरी अल्फाज़ -" मैं अल्लाह के पास जाकर सब बताऊंगी।" लगता है खुदा ने जरूर उसकी बात सुनी है कि आज दुनिया पर मौत की कहर टूटी है।
आज जो वफ़ात के बादल दुनिया पर मंडरा रहे हैं शायद कल कुछ नेक बंदों के इबादत.. खुदा की रज़ामंदी हो और रहम की बारिश हो।
लेकिन दिलों में खौफ और सबक़ हमेशा जरूरी है कि जंगल में लगाये गये आग से हमारे शहर और घर भी कभी महफ़ूज़ नहीं रह सकते।
मां जब गाती हैं -
"बारह बरस सुग्गा सेमल (वृक्ष) पोसले
फूलवा देखी लोभाई
मारले चोच उरगईल भूआ (रूई)
सुगवा गईल पसताई।।"
तो उनके कपोल पर समय के बनाये गर्त में आंसू के कुछ बूंदे ठहर जाते हैं। बच्चें हर्ष से झूम उठते है और मां आंसू छुपाती दूसरी गीत गाने लगती है-
"हो बहेली वाला भैया कि
रूनु झूनू
पेड़ पहाड़ पर खोतवा कि
रूनु झूनू
बचवा होय यन रूयैत कि
रूनू झूनू
सब सखी मीली खैली कि
रूनू झूनू
एक सखी फसी गयली कि
रूनू झून...... ।
पक्षियों के अनेक विलाप पर भी शिकारी ने उन्हें मुक्त नहीं किया। अनेक लोग विलाप सुन आये और शिकारी से अनुरोध किये लेकिन शिकारी नहीं माना।
अंत में एक फकीर द्वारा कुछ सेर सत्तू दिये जाने पर शिकारी ने सभी पक्षियों को आजाद किया।
मुझे मां की कहानी के उस फकीर का अब तक इन्तजार है।