दंगा
दंगा
एक झुग्गी झोपड़ी से आवाज आ रही थी-" अब मैं कहां से लाऊं? सारा शहर बंद है। काम भी छूट गया। गांव भाग नहीं सकते। पैदल जाने वाले लोग रास्ते में भूख से मर रहे हैं। अब तो मरना निश्चित है चाहे दंगे से मरें या भूख से।"- मोहन विवश हो गया था। अपनी पत्नी और बच्चे को समझाने का प्रयास कर रहा था। चार दिनों से घर में अन्न का एक टुकड़ा नहीं था। सभी रो रहे थे।
पति दिव्या ने मोहन से कहा-" अब क्या होगा? आखिर कुछ तो करना होगा? नहीं तो हमारा बच्चा भूख मर जाएगा। जहां काम करते थे वही से कुछ मांगकर लाइए।"
मोहन की विवश नजरों से आंसू ढुलक गए। दिव्या को समझने में देर नहीं लगी परंतु वह भी करे तो क्या करे? उसने मोहन से मोबाइल मांगा और किसी परिचित को फोन किया। कई बार प्रयास करने के बावजूद नहीं लगा। मन में दिव्या ने सोचा-' संभवतः सौम्या ने अपना नंबर बदल दिया हो। मुझे ही जाना होगा।'
मोहन ने पूछा-" किसे लगा रही हो फोन?"
" अपनी परिचित को लगा रही हूं परंतु उसने शायद नंबर बदल दिया है या और कोई बात होगी। अच्छा मोहन क्या हमें उसके घर जाने में कोई समस्या आएगी?"- दिव्या ने पूछा
"हां ..…परंतु अभी तो चारों तरफ दंगा फैला है। वहां जाना तो बहुत ही मुश्किल का काम है।.......मगर वहां जाना क्यों चाहती हो?"- मोहन भय से पूछ बैठा।
"न जाऊं तो क्या करूं? आखिर जीने के लिए खाना तो पड़ेगा ही। हम कुछ दिन और भूखे रह लेंगे परंतु बच्चा क्या करेगा? उसकी सुरक्षा हमारा धर्म है। मैं कुछ भी करूंगी लेकिन अपने बच्चे को मरने नहीं दूंगी।" -दिव्या ने इतना कहते हुए बाहर कदम रख दिए।
पूरा दिन बीत गया। शाम होने को आई। अभी तक बच्चे का रोना नहीं बंद हुआ था। अंधेरा होने को था तभी खाने के सामान के साथ दिव्या वापस आ गई। बेटे को गले से लगा कर खूब रोई। मोहन के मन में अनेक तरह की आशंकाओं के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। विवश लाचार वह पूछ भी तो नहीं सकता था। अपनी विवशता पर वह दोनों को पकड़ कर खूब रोया।
मोहन को नींद नहीं आ रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था क्या करें? किस तरह दिव्या ने इस भोजन की व्यवस्था की होगी? वह सोचता रहा-' उसके बदले मुझे जाना था। समाज इतना भला नहीं कि किसी मजबूर की विवशता समझे। उसे यूं ही खाने पहनने को दे दे।... लेकिन मैं कैसे पूछ सकता हूं? मैं कर भी नहीं सकता और इस परिस्थिति को सहन भी नहीं कर सकता? उस दिन निकला तो था परंतु पुलिस वालों ने मार कर भगा दिया। पंचर कर रिक्शे की हवा निकाल दी और इस रिक्शे को खींचते हुए घर आया। आज तक पंचर खड़ा है रिक्शा।'
दिव्या को नींद नहीं आई लेकिन उसने मोहन की मानसिक स्थिति समझ रखी थी। सुबह उठकर दिव्या ने मोहन के उतरे चेहरे की तरफ़ इशारे करके पूछा-" मेरे ऊपर शक़ करके अच्छे- खासे संबंध में आग मत लगाओ। इस महामारी में तमाम संस्थाएं मुफ़्त के भोजन, पानी, दवाएं लेकर घूम रही हैं। मैंने भी हाथ फैलाये और मिल गया खाना और दवाई। तुम्हें भी तो खाँसी की दवा चाहिए थी?"
उठकर दवा की शीशी मोहन को पकड़ाते हुए कहा-" मैं कुल्टा नहीं हूँ। यदि ऐसी होती तो इस परिस्थिति में तुम्हारे साथ अब तक कहां रह पाती ? उस मधुबाला को आप जानते हो ना जो कभी-कभी घर में काम करने आती थी? जिसकी शादी के लिए ठाकुर रणविजय से उसकी मां ने बीस हजार रुपये लिए थे।"
मोहन का सिर चकरा गया। मुंह खुला रह गया। मोहन ने पूछा -"किसने बताया?"
मोहन के पास जाकर फुसफुसाते हुए दिव्या ने कान में कहा-" वह ठाकुर के यहां काम करने वाले रीटा है न? उसने इसे बंद कमरे से निकलते हुए देख लिया था। वह भी तो ठाकुर की रखैल है.... और आपने कभी कहा था कि ठाकुर के यहां काम कर लो।.... मैं यही सब जानकर नहीं गई। ये अय्याश हुआ करते हैं पैसे वाले। शक्ल सूरत भ
ी नहीं देखते।"
मोहन ने दिव्या को गौर से देखा फिर पास बुला कर कहा-" मैंने एक कंपनी के सेठ से बहुत पहले बात किया था। वह मेरी ईमानदारी से प्रभावित होकर बोले कि आना यदि जरूरत लगे। तो चला जाऊं वहां? यहीं इसी शहर में है।"-
दिव्या ने कहा-" नहीं ....अभी जब दंगा कम हो जाए तब जाइएगा। नहीं तो गलत समझ कर पुलिस पकड़ लेगी तो सब खत्म हो जाएगा। मैं नहीं जाने दूंगी। ईश्वर पर भरोसा है, वह हमारा साथ अवश्य देंगे।"
इस तरह इस तरह का विचार विमर्श चलता रहा। एक हफ्ते के बाद शहर के हालात सामान्य होने लगे। मोहन ने किसी से उधार पैसे लेकर रिक्शा बनवाया। भगवान की प्रार्थना कर रोड पर निकला। भागता रहा अपने परिवार के लिए और आज उसकी कमाई भी संयोग से अच्छी हो गई थी। उसने अपना छोटा बटुवा निकाला और उसे दिव्या के हाथ में रख दिया। दिव्या बहुत खुश हुई और उसने हाथ जोड़कर भगवान को धन्यवाद कहा। वह बटुवे में से पैसे निकालकर गिनना चाहती थी। इतने में उसमें से शीशेनुमा एक अंगूठी के नग जैसी चमकती हुई वस्तु मिली। दिव्या ने देखकर पूछा-" क्या आज रिक्शे पर महिलाएं बैठी थीं?"
इस तरह का प्रश्न सुनकर श्याम ने तपाक से कहा -" अब तो सुधर जाओ। बाल पकने लगे हैं। कौन इस तरह का मेरे रिक्शे पर बैठेगा? नौजवान युवतियां हम जैसों के रिक्शे पर इसलिए नहीं बैठतीं कि हम मैले- कुचैले और उम्र दराज लगते हैं।"
मुस्कुराते हुए दिव्या ने श्याम के कंधे पर हाथ रखकर चिढ़ाते हुए कहा-" इतने बुरे तो नहीं हो जितना सफाई दे रहे हो।"
श्याम ने कहा -" तुम्हारी शक करने की आदत नहीं जाएगी।"
दिव्या ने वह चमकती वस्तु श्याम को दिखाते हुए कहा -" यह किसी ने किराए में दिया या नजराने में?"
श्याम देखकर आश्चर्यचकित था-" यह इस बटुए में कहां से आ गया? वे लोग शायद यही खोजने में पसीने- पसीने हो गए थे।"
" यह इतना कीमती है? हीरा है क्या यह?"- दिव्या ने पूछा
"अवश्य कोई कीमती हीरा है जिसे खोजने में वे हैरान थे। उनकी आंखों में आंसू थे। मुझे दे देना चाहिए।" -श्याम ने पश्चाताप करते हुए कहा।
दिव्या ने खिझाने की नियत से कहा-" अब वे मिलेंगे कहां? क्या वे परिचित थे? वैसे यह हीरा हमारी गरीबी को बदल भी सकता है।"
श्याम ने दिव्या से छीन लिया। बोला-" हम गरीब हो सकते हैं पर धोखेबाज नहीं।"
दिव्या ने कहा-" क्या तुमने इसे चुराया था? क्या झूठ बोल कर अपने पास रख लिया? यदि नहीं तो यह भाग्य बदलने के लिए मिला है।"
" नहीं दिव्या तुमने ही तो कहा था किसी का कीमती सामान लौटा देने से ही ईश्वर मदद करते हैं। सेठ का हार आखिर तुमने लौटा क्यों दिया था?"- श्याम ने पूछ लिया।
" मैं मजाक कर रही थी। यह हीरा हो या कांच का टुकड़ा हमसे क्या? हमें अपनी मेहनत पर भरोसा होना चाहिए।"- दिव्या ने कहा
तक़रीबन दो हफ़्ते बाद श्याम ने उन दोनों युवतियों को चौराहे पर कुछ खरीदते हुए देखा और भाग हुआ उनके पास गया। उन्हें वह चमकती वस्तु दिखाया। उन दोनों में से एक ने कहा-" हाँ अब इसकी जरूरत मुझे नहीं है। जिसने मुझे यह हीरे की अंगूठी दी थी उससे रिश्ता टूट गया। इसलिए इसे तुम ही रखो। अब इस हीरे को मैं देखना भी पसंद नहीं करती।"
आश्चर्यचकित श्याम की समझ में नहीं आया कि क्या करे? घर आ गया यह सोचते हुए कि 'क्या ईश्वर इस तरह हमारे साथ होते हैं?'