दबी इच्छा का बोझ
दबी इच्छा का बोझ
मुझे आज भी याद है वह कक्षा आठ में पढ़ता था। उसका नाम राकेश बंसल था। फुटबॉल के खेल में बहुत अच्छा था, लेकिन पढ़ने में उसका मन कम लगता था। उस समय मैं असम के तिनसुकिया शहर में विवेकानंद स्कूल में अध्यापिका थी। जब राकेश दसवीं कक्षा में आया तब मैं उसकी कक्षा अध्यापिका बनी।
वह मुझसे हर बात खुल के बोलता था। वह स्कूल की फुटबॉल टीम का कैप्टन था। डिस्ट्रिक लेवल पर राकेश की टीम जीत कर रीजनल लेवल पर खेली थी। फिर स्टेट लेवल के लिए उसकी टीम से उसका चयन हुआ था। उस समय उसकी आयु मात्र 18 वर्ष की थी। उसका चयन होने पर वह बहुत खुश था। स्कूल के सभी लोग बहुत खुश थे। पर उसके पिता ने उसे स्टेट लेवल पर खेलने नहीं दिया। वह उदास मन से मेरे पास आया और कहा- मेम आप पापा को समझाओ न । मैं फुटबॉल में ही अपना करियर बनाना चाहता हूँ। लेकिन पापा मुझे एम.बी.ए करवा कर किसी मल्टी नेशनल कंपनी में जॉब करवाना चाहते हैं। मैं क्या करूँ मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता है। मैं उसके परिवार से परिचित थी।
उसके बाद स्कूल की तरफ से राकेश के पिता को बुलाया गया।
प्रिंसिपल सर, फुटबॉल सर व मैंने उन्हें बहुत समझाया कि आपका बच्चा फुटबॉल में बहुत अच्छा है। यह हम सबके लिए बहुत ही खुशी की बात है। आप उसे स्टेट लेवल पर खेलने दीजिए। वह एक दिन भारतीय टीम का खिलाड़ी अवश्य बनेगा। पर राकेश के पिता ने कहा- मैं अपने इकलौते बेटे को कोई खिलाड़ी नहीं बनाना चाहता हूँ। मैं उसे किसी बड़ी कंपनी का मैनेजर देखना चाहता हूँ। बहुत समझाया गया पर वे टस से मस नहीं हुए।
बेचारा राकेश बहुत रोया। माँ ने भी बहुत समझाया। माँ चाहती थी कि बच्चा जो बनना चाहता है। उसमें उसका सहयोग किया जाए। पर पिता के आगे किसी की न चली। दरअसल राकेश के पिता बैंक में नौकरी करते थे पर वह किसी बड़ी कंपनी में मैनेजर बनना चाहते थे इसलिए वह अपने अधूरे सपने को अपने बेटे के द्वारा पूरा होता देखना चाहते थे। इसी कारण से वे उसे फुटबॉल से दूर रखते थे। राकेश ने पिता के दंड और अनुशासन के ज़ोर पर जैसे-तैसे एम.बी.ए भी कर लिया और उसे एक बड़ी कंपनी में जॉब भी मिल गया। इस तरह पिता का सपना पूरा हुआ। वे बहुत खुश थे। पर राकेश अभी भी असंतुष्ट था। शाम को आकर खेलने चला जाता था। अपने से छोटी आयु के बच्चों के साथ भी खेलता था। वह कंपनी में काम ज़रूर करता था। पर उसके मन की दबी इच्छा उसका पीछा नहीं छोड़ती थी। वह हमेशा एक ही सपना देखता कि वो भारतीय टीम का खिलाड़ी बन गया है। वह अंतर राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहा है। एक दिन ऐसा हुआ कि वह माता पिता को बिना बताए घर छोड़कर ट्रेनिंग स्कूल आ गया कुछ दिन जॉब के साथ साथ ट्रेनिंग लेता रहा। जब पूरी तरह पॉलिश हो गया। तब वह बिना पिता को बताए स्टेट लेवल पर खेला। धीरे-धीरे उसके खेल से प्रभावित होकर चयन समिति ने भारतीय टीम में उसका चयन कर लिया। अब उसने जॉब छोड़ दिया साथ-साथ ही साथ पिता को भी छोड़कर एकेडमी में आ गया। अब राकेश बहुत खुश था और भारत का गौरव बड़ा रहा था।
माता-पिता को अपनी दबी इच्छा का बोझ बच्चों पर नहीं डालना चाहिए। हर किसी को अपनी मंज़िल स्वयं चुनने का अधिकार होना चाहिए।