चल बताऊं तोय

चल बताऊं तोय

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"वाह, क्या बात है ! बप्पी लाहिड़ी सुन ले तो अभी एडवांस चैक दे जाए। तुम तो ऐसा करो अम्मा, कि ए.आर रहमान को चिट्ठी लिख दो, वो ज़रूर ले जाएगा तुम्हें।" तमाम वक्रोक्तियों और अलंकारों का वमन कर सुरेश अपने कमरे में लौट आया। चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था।

आंगन में नल के नीचे बर्तन धोती महरी धोती का पल्लू मुंह में दबा कर हँसी रोकने की चेष्टा करती रही, फ़िर भी थोड़ी सी खीं खीं की आवाज़ के साथ मैले और तिरछे दाँतों के बीच से हँसी की फुहार थूक के छींटों के साथ छिटक ही गई।

सुरेश ने भी जाते जाते भांप लिया कि अम्मा को गुस्से में कही बात इस महरी ने भी सुन ली है।

कमरा भीतर से बंद करते करते सुरेश बुदबुदाया - ये वीको वज्रदंती की ब्रांड एंबेसडर यहीं बैठी थी क्या! इसने भी सुन लिया,अब अकेले में अम्मा को घेरकर ठिठोली करेगी।

दरअसल सुबह सुबह अम्मा किसी बात पर गुस्सा होकर झुंझला उठीं और आपा खोकर हाथ में पकड़े बर्तन ज़मीन पर पटक दिए। गिलास, थाली, कटोरी के साथ साथ पूजा का लोटा और ठाकुरजी का दीपक भी था। वो पीतल वाली छोटी घंटी भी जो पिछले साल गोलू देवता के मंदिर के बाहर से खरीदी थी। बर्तनों की खटपट जब मार्बल के पोंछा लगे फर्श पर हुई तो तरह तरह की झन्नाटेदार आवाज़ें हुईं। जिन्हें सुनकर सुरेश अपने कमरे से बाहर निकल आया और लगा अम्मा पर व्यंग्य बाण छोड़ने।

पिछले दो महीने से ये लगभग रोज़ की सी बात थी। अम्मा का झड़प झगड़ा रोज़ किसी से होता, रोज़ वे भी झिड़कियां सुनतीं और फ़िर किसी न किसी पर अपना गुस्सा उतारतीं। घर की नौकरानी सारी बातों का आनंद लेती।

उसे ऐसा रस मिलता मानो दिन भर की थकाऊ उबाऊ दिनचर्या के बाद किसी मेले में आ गई हो।

अम्मा की टोकाटाकी से वह भी तन्नाई तो रहती ही थी, पर घर के दूसरे सदस्यों के लिहाज में सीधे पलट कर उन्हें कुछ कह नहीं पाती थी।

ऐसे में जब दूसरे अम्मा को प्रताड़ित करते तो देख सुन कर ही मानो उसका परलोक संवर जाता। कलेजे में ठंडक सी पड़ जाती।

अम्मा भी अपनी धुन की पक्की। रोज ही किसी न किसी तरह उसे कलेजा ठंडा करने का मौका दे देती थीं।

अम्मा ।

अम्मा अर्थात दादी।

उम्र सतासी साल। और दूसरे माने घर के बाकी सदस्य। अम्मा के पोते पोतियों के साथ बेटा बहू भी। सब अपने अपने काम वाले थे। किसी को कॉलेज जाना तो किसी को दफ्तर। सब हवा के पंखों पर सवार। किसी के पास किसी के लिए समय नहीं। ऐसे में अम्मा को चौदह किलोमीटर दूर मंदिर में देवी दर्शन के लिए भला कौन ले जाए! ये थी अम्मा की व्यथा। महीनों से अम्मा ने शाकंभरी देवी के मंदिर में दर्शन के लिए जाने की मनौती मांग रखी थी। अकेली जा नहीं सकती थीं। जब तब इस उस से कहती रहतीं। कभी चिरौरी विनती से, तो कभी दबंग डांट डपट से। बच्चों को तो इनाम इकराम के लालच तक आजमा चुकी थीं। पर उनकी कोई न सुनता। उनकी मैली ठोक से बंधे मुड़े हुए पांच के नोट से भला किसको तो इनाम मिलता और किसे इकराम। इतने पैसे तो वे कॉलेज कैंटीन में टिप में छोड़ आते थे। लिहाज़ा अम्मा की दाल न गलती। उधर अम्मा के लिए भी ये बात धीरे धीरे प्रतिष्ठा का सवाल बनती जा रही थी।

रोजाना की पूजा में माला फेरते फेरते अम्मा मानस यान पर सवार होकर देवी के सामने पहुंच जाती थीं- दर्शन को ज़रूर आऊंगी देवी।अपाहिज भी होती तो किसी तरह तुम्हारे दरबार में लंगड़ा- घिसट कर दंडवत करती पहुंच जाती। पर क्या करूँ, बाल बच्चों से भरा पूरा कुनबा है, न तो अपाहिज ही समझने देते हैं और न मेरे मन का कोई काम ही करके देते हैं। अम्मा बारी बारी से सबसे कह चुकी थीं। ना नुकर भी खूब सुन चुकी थीं। पलट कर खरी खोटी भी खूब सुना चुकी थीं। एक दिन उन पर पसीज कर मीनू कह गई - "अम्मा, आज शाम को कॉलेज से जल्दी आ जाऊंगी, तब ले चलूंगी तुम्हें मंदिर।"

अम्मा ये सुनकर मानो गंगा नहा गईं। दिन भर हर काम दोगुने उत्साह उछाह से किया अम्मा ने। हुलस में माला भी दो बार फेर गईं। दिन भर उन्हें ये लगता रहा जैसे वो देवी मैया के चरणों में पहुंच गई हैं, और वो मन ही मन बुदबुदाती न जाने क्या क्या करती रहीं। मानो बरसों बाद पुरानी सहेलियाँ मिली हों, एक दूसरी को अपना दुखड़ा रोने को। अम्मा ने दोपहर से ही वो खूब कलफ लगी अपनी "नई वाली" धोती निकाल छोड़ी जो चार बरस पहले मझले बेटे के समधियाने से मिली थी। पर शाम को सब गुड़ गोबर हो गया। क्या पता मीनू को सुबह की कही बात याद ही न रही या फ़िर वो और किसी काम में उलझ गई। वह शाम देर तक न लौटी। दरवाज़ा तकते तकते अम्मा के दीदे हल्कान हो गए। आम तौर पर चार आवाज़ें देने पर भी टस से मस न होने वाली अम्मा हर ठटके आहट पर दरवाज़े की ओर दौड़ पड़ीं। पर मीनू नहीं आई। अब रात देर से जब मीनू लौटी तो मंदिर तो क्या ही जाना होता। अम्मा ने साक्षात चंडी रूप धर लिया। अपनी खाने की थाली मीनू की पढ़ने की मेज़ पर पटक आईं। साग सब्ज़ी सब ऐसे छलके कि मीनू की प्रेक्टिकल की नई फ़ाइल पर दाग धब्बे लग गए। उसने ऐसे आग्नेय नेत्रों से अम्मा की ओर देखा, मानो मौजूदा दौर के इस पार और उस पार की अलग अलग ये दो पीढ़ियाँ एक दूसरी का मुंह नोंच कर एक दूसरी को नेस्त नाबूद कर छोड़ेंगी। खूब खिटर पिटर हुई दोनों के बीच। अम्मा सुबकती हुई अपने कमरे में जा लेटीं। उन्हें देवी माँ को माफ़ी नामा जो भेजना था। खुली आँखों सोच के कबूतर से पाती भिजवाई।


एक दिन तो अम्मा ने मेहरी तक को न छोड़ा। आम तौर पर अपनी ताना शाही के पाले में जिसे दौड़ाती थीं, आज मानो उसके पाँव ही पकड़ लिए। कुलच्छिनी, करमजली और नासपीटी जैसे तमाम विशेषण भूल कर आज अम्मा ने उसे चाशनी में पगा "बिटिया" संबोधन ही दे डाला। बोलीं-"बिटिया,एक दिन समय निकाल कर तू ही ले चल मुझे मंदिर। मुझसे तो असीस पाएगी ही, देवी से भी वरदान मिलेंगे तुझे।"

पर महरी को तो चौबीस घंटे के दिन में मरने की फुरसत भी निकाल पाना कभी गवारा न हुआ। एक घर से दूसरे घर, दूसरे से तीसरा और तीसरे से चौथा। न कोई आदि था न कोई अंत। किस किस मालकिन के आगे छुट्टी के लिए गिड़गिड़ाती? और काहे को गिड़गिड़ाती? जब घर के सदस्यों को ही हफ़्तों से अम्मा से टाल मटोल करते हुए देख रही थी,व ही कहां से समय निकालती। उसने भी पल्ला झाड़ लिया। दो टूक उत्तर दे डाला- "नहीं अम्माजी!"

और पलक झपकते ही बिटिया से फ़िर करमजली नासपीटी हो गई। खाट पर लेटी अम्मा सोचतीं, करमजली तो वो खुद हो गईं। छह छह हाथ ऊंचे ये आधा दर्जन बुत घर में आठों पहर यहां से वहां हो रहे हैं, पर किसी साधन से अम्मा को मंदिर ले जा कर दर्शन करा लाने वाला यहां नापैद है।

दोपहरी में अकेले लेटे लेटे अम्मा को सत्तर साल पहले का अपना वक़्त भी याद आ गया। छोटा सा आंगन होता था, जो परकोटा सरीखा लगता। उत्तर में निषिद्ध क्षेत्र, दक्षिण में निषिद्ध क्षेत्र, पश्चिम में निषिद्ध क्षेत्र और पूरब में निषिद्ध क्षेत्र। बीच में दो हाथ के घूंघट में अम्मा, और काटने को पूरी जिंदगी। गाहे बगाहे किसी तीज त्यौहार पर घर की चौखट लांघने का मौका मिले तो उत्सव हो जाता था। महीनों तक तैयारी होती थी और हफ़्तों वो घड़ी बीत जाने का मलाल।

और अब? तूफ़ान मेल की तरह इन सब का छत्तीस बार जाना और बीस बार आना। शहर का कोई कोना ऐसा न बचे जो इनकी एड़ियों से नप न ले। फ़िर भी देवी दर्शन के लिए पंद्रह मिनट का समय किसी के पास नहीं। सबके नितम्बों में पहिए लग रहे हैं। बच्चे से बूढ़े तक सबके पास अपने अपने साधन वाहन हैं। बस, नहीं है तो एक वक़्त ! उसी का अकाल है। घंटे घड़ियाल आज सत्तर बरस बाद भी चौबीस चौबीस घंटों में ही घनघना रहे हैं। फ़िर काहे को अनावृष्टि है काल की? कहां खो दिया इन सब ने समय? क्यों मारे मारे घूम रहे हैं, कहां जाएंगे? अम्मा समझ न पातीं।

मीनू ने दूसरे दिन सुबह भी जब अम्मा के विनती चिरौरी भरे प्रस्ताव को झटक दिया तो अम्मा जैसे हत्थे से ही उखड़ गईं, फ़िर भी खिसियाहट मिटाने को बोलीं- "अच्छा बेटी, मंदिर मत चल, पर आज मेरे बालों में थोड़ा तेल तो लगा दे।"

मीनू ज़ोर से चीखी - "अम्मा तुम सठिया गई हो, मुझे क्लास में जाना है।" कहकर मीनू ने धड़ाक से दरवाज़ा बंद किया और बाहर निकल गई।

अम्मा मुंह बाए देखती रह गईं। बराबर के कमरे से नवीन की आवाज़ आई - "व्हाट! सठिया गई हो ? शी हेज़ क्रॉस्ड देट एज ट्वेंटी सेवन ईयर्स बिफोर।"

अम्मा मुंह की मक्खी उड़ाती, अख़बार से पंखा झलती हुई अपने कमरे में चली गईं। पोते की बात तो उनकी समझ में आई नहीं, पर उनका चेहरा ऐसा तमतमाया हुआ था कि अब मीनू पर कोई न कोई आफ़त ज़रूर आकर रहेगी।

आफ़त आई। अम्मा ने अपने कमरे में जाकर गुस्से से कपड़े काटने वाली कैंची अपने हाथ में ली, और अपने बालों की चोटी पकड़ कर काट डाली।

सन से सफ़ेद बालों की पतली सी सलोनी चोटी किसी बार्बी डॉल से अलग हुई दिखाई देती थी। पर अम्मा ने बेदर्दी से उसे पिछवाड़े वाली खिड़की से बाहर फ़ेंक दिया। शाम को सबके लौटने पर अम्मा को बड़ी झेंप लगी सबके सामने आने में। और रात को मीनू ने जब अम्मा के सिर में तेल मलने के लिए थोड़ा सा समय निकाला तो वो अम्मा को देख कर हँसी से दोहरी हो गई। उसके पेट में बल पड़ गए। बोली - "वाह अम्मा, कल तुम्हारे लिए बाज़ार से एक शानदार गॉगल्स और लाऊंगी।"

अम्मा बाल सुलभ निरीहता से बैठी टुकुर टुकुर उसे देखती रहीं।

आख़िर देवी मैया अम्मा को दर्शन के लिए अपने ठीहे पर ला पाने में कामयाब नहीं हुई। बच्चों ने भी अम्मा को कई दिन तक मंदिर के लिए मान मनौव्वल करते नहीं पाया तो सोचा, चलो बला टल गई। शायद अम्मा के सिर से मंदिर जाने का भूत उतर गया। सबने राहत की सांस ली।

सतासी बरस की उमर। वानप्रस्थ बिता कर आधा संन्यास आश्रम भी ख़त्म। लेकिन ललक की कौन कहे, जो बात दिल दिमाग में बैठी सो बैठी।

अम्मा को रह रह कर याद आता कि वो मनौती के बावजूद मंदिर नहीं जा पाई हैं। सोचती थीं तो किसी अनिष्ट की आशंका हलकान करती। फ़िर खुद ही अपने को तसल्ली भी दे लेती थीं, कि भला अब कैसा अनिष्ट ! धीरे धीरे दिन बीतते रहे। घर की गहमा गहमी और अफरा तफरी अपनी जगह कायम थी।

एक दिन रविवार की हल्की ठंडक भरी सुबह थी। छुट्टी का दिन होने से सारा घर परिवार आज ज़रा इत्मीनान में था। लॉन में ओस की बूंदें थीं। बाहर बरामदे में सबकी चाय चल रही थी। बाबूजी अख़बार देख रहे थे।

सहसा नवीन का ध्यान गया - "अरे, अम्मा कहां हैं?"

वास्तव में इस बात पर न मम्मी का ध्यान गया था और न किसी और का, कि आज सुबह से घर में अम्मा नहीं दिख रहीं।

बात कोई ख़ास नहीं थी। हो सकता है कि रात को नींद ठीक से न आई हो तो सवेरे जल्दी आँख न खुली हो। या फ़िर तबियत ठीक न हो तो महरी से चाय भीतर ही अपने कमरे में मंगा ली हो। क्या पता, सुबह के पूजा पाठ में थोड़ी देर ही लग गई हो। लेकिन फ़िर भी। इंसान घर में हो तो किसी बहाने हिलता डुलता हुआ दिखाई तो दे। सुबह के समय जल्दी उठ जाने पर भी अम्मा घर की चार दीवारी के बाहर कहीं घूमने फिरने नहीं निकलती थीं। बहुत हुआ तो थोड़ी देर बाहर लॉन में आकर बैठ लीं।

नवीन की जिज्ञासा, फ़िर मीनू का सवाल, मम्मी ने भी उठ कर इधर उधर देखा। वास्तव में अम्मा घर भर में कहीं नहीं दिखीं। उनके कमरे में, बाथरूम में, शौच घर में भी जाकर देख आया गया। ठंडक में छत पर जाने की कोई संभावना नहीं थी, फ़िर भी चार लंबे डग भर कर नवीन छत पर झांक आया। वहां भी अम्मा नहीं थीं।

"अरे कहां गईं?" अब अख़बार से निगाह हटा कर बाबूजी को भी कहना पड़ा। चिंतित होने की बात थी।

पास पड़ोस में अम्मा अकेली कहीं जाती नहीं। फ़िर क्या हुआ, कहां चली गईं? थोड़ी ही देर में सारे में एक कोहराम सा मच गया। चारों तरफ अम्मा की ढूंढ़ मच गई। नवीन ने चप्पल पहनकर जल्दी से अपने स्कूटर का रुख किया। घर के सामने की सड़क रविवार होने से सुबह से ही पर्याप्त आवा जाही से भर गई थी। नवीन ने अभी स्कूटर घुमाया भी न था कि तभी गेट के सामने आकर एक रिक्शा रुका। रिक्शे को देखते ही सबकी जान में जान आई। रिक्शे में अम्मा बैठी थीं। और अम्मा अकेली नहीं थीं बल्कि एक छह फिट ऊंचा गोरा विदेशी युवक उनके साथ था जो अब सहारा देकर उन्हें सावधानी से रिक्शे से उतरने में उनकी मदद कर रहा था सबकी आँखें आश्चर्य से खुली रह गईं। मीनू और नवीन ने दौड़ कर अम्मा को संभाला। विदेशी युवक हाथ जोड़ कर सबका अभिवादन कर रहा था। उसने नवीन से कुछ बात की और रिक्शा मुड़ कर वापस चला गया।

अम्मा गर्व और विजय के दर्प से सिर उठाए मीनू के कंधे का सहारा लेकर भीतर आ रही थीं। सब सकते में थे।

नवीन ने बताया कि ये युवक कैलिफोर्निया से आया है और यहां होटल प्रीमियर में ठहरा हुआ है।

कोई समझ न पाया कि अम्मा से उसकी भेंट कब और कैसे हुई होगी। और उस परदेसी युवक से अम्मा ने बात भला किस तरह कर ली? वे लोग कहां जाकर लौटे थे? रहस्य और रोमांच के एक तसल्ली भरे भाव ने अम्मा के चेहरे को अद्भुत रूप से सुर्ख बना दिया था।

मम्मी आँसू पोंछती हुई रसोई में अम्मा के लिए चाय बनाने चली गईं। आंगन में बैठ कर अम्मा चाव से बच्चों को बता रही थीं- "मैं तो सवेरे बाहर बैठी थी, उसने रिक्शे से उतर कर पूछा, वेयर इज शाकंभरी टेंपल? मैंने कह दिया - चल, बताऊं तोय !"


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