बसंती की बसंत पंचमी- 3
बसंती की बसंत पंचमी- 3
सुबह- सुबह भारी धुंध छाई हुई थी। चौथी मंज़िल के अपने फ़्लैट में श्रीमती कुनकुनवाला ने खिड़कियों के पर्दे हटा दिए थे मगर कांच वैसे ही बंद थे। सर्दी का ज़ोर जो था।
तभी फ़ोन पर आई एक आवाज़ ने उन्हें रूआंसा कर दिया। उनकी काम वाली बाई कह रही थी कि अब वो नहीं आयेगी।
श्रीमती कुनकुनवाला चौंकीं। उन्होंने सोचा कि उनसे सुनने में ज़रूर कोई ग़लती हुई है, बाई ने ऐसा कहा होगा कि वो आज नहीं आयेगी। हालांकि ये भी एक बड़ा संकट था कि सर्दी के ऐसे मौसम में वो न आए। पर बाई ने तो आज नहीं, बल्कि ये कहा था कि वो "अब" नहीं आयेगी।
उनके पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी। वो सुर को भरसक मीठा बनाते हुए बोलीं- क्यों नहीं आ रही आज?
उधर से फ़िर वही कर्कश सा स्वर गूंजा- कहा न, अब नहीं आएगी। काम छोड़ा मेमसाब तुम्हारा।
अब कोई गफलत नहीं, स्पष्ट था कि बाई ने इस्तीफ़ा दे दिया। साथ ही ये भी कहा कि एक- दो दिन में आएगी तब हिसाब कर देना। मतलब जो पैसे बाक़ी हैं वो देना।
श्रीमती कुनकुनवाला भीतर तक दहल गईं।
कुछ देर पहले जो गरमा गरम चाय पी थी उसका नशा भी उतर गया जब कौने में पड़ी झाड़ू और सिंक के ढेर सारे बर्तन मुंह चिढ़ाने लगे।
मिस्टर कुनकुनवाला और दोनों बच्चों ने खतरा भांप लिया। वो चुपचाप अपने अपने काम में लग गए। साहब ने अख़बार में सिर गढ़ा लिया और दोनों बेटे अपने कमरे में चले गए।
क्योंकि अब किसी भी क्षण मम्मी के फरमान जारी हो सकते थे- ये मत करो, वो मत करो, गंदगी की तो कौन साफ़ करेगा...(जारी)
