बसंती की बसंत पंचमी- 27
बसंती की बसंत पंचमी- 27
दो दिन श्रीमती कुनकुनवाला बिल्कुल अनमनी सी रहीं। उन्होंने न तो अपनी किसी फ्रेंड को फ़ोन किया और न ही किसी का फोन उठाया।
लेकिन तीसरे दिन उनसे रहा न गया। सुबह नाश्ते से निवृत होने के बाद अपना मोबाइल फोन उठाया और चुपचाप एक कुर्सी लेकर अकेली बालकनी में आ जमीं।
उन्होंने सोचा अरोड़ा को फ़ोन करूं। तुनक कर बैठी होगी। उस दिन न जाने क्या- क्या सुना दिया था उसे। चलो कोई बात नहीं, एक बार थोड़ी माफ़ी मांग लूंगी। अब क्या कोई जान थोड़े ही लेगी। ग़लती तो उसी की थी। मैंने थोड़ी खरी- खोटी सुना भी ली तो क्या हुआ। सॉरी बोलने में क्या जाता है। कम से कम ज़बान को कुछ चलने का मौक़ा तो मिले, ऐसे कब तक मुंह में दही जमा कर बैठी रहूंगी।
उन्होंने अभी श्रीमती अरोड़ा का नंबर स्क्रीन पर लिया ही था कि ड्राइंग रूम से जॉन की आवाज़ आई। न जाने किस बात पर झुंझला रहा था। ध्यान देकर सुना, कह रहा था- कमाल है यहां से एक कुर्सी कहां चली गई, अभी तो जमा कर गया था।
श्रीमती कुनकुनवाला हड़बड़ा कर कुछ कहने ही जा रही थीं कि जॉन सिर खुजाता हुआ बालकनी में ही चला आया। वहां उन्हें बैठी देख कर झुंझलाया- क्या मम्मी आप भी, आप कुर्सी ही उठा लाईं वहां से.. अभी तो मैं रख कर गया था।
श्रीमती कुनकुनवाला उसकी बात पर गरम हो गईं फ़िर भी उसे समझाते हुए बोलीं- तो तू कुर्सी दूसरी ले ले बेटा, क्या हो गया जो मैं उठा लाई तो!
- ओह मम्मी, आप समझोगी नहीं। मैंने एक पार्टी रखी है आज। अभी मेरे फ्रेंड्स आने वाले हैं। उन्हीं के लिए तो गिन कर कुर्सी जमा रहा था, लाओ ये दे दो, आपके लिए मैं पापा की स्टडी से दूसरी ला देता हूं।
कहते हुए जॉन मम्मी की कुर्सी खींचने लगा। मम्मी ने कुछ खीज कर उधर देखा।
