बरगद और प्रेम
बरगद और प्रेम
अरे तुम फिर ठहर गई!
मेरी समझ में ये नहीं आता कि जब भी तुम बरगद का पेड़ देखती हो जाने किन ख्यालों में खो जाती हो !
जानते हो!
मुझे बरगद का पेड़ इतना क्यों पसंद है !
नहीं तो बताओ भला क्यों पसंद है !!
मैं जब भी किसी वट वृक्ष को देखती हूँ,
तो किसी सूखी बंजर जमीन की तरह सोचने लगती हूँ,
जहाँ कभी कोई देवदूत आकर भूल गया हो जैसे एक शाख बरगद की जिसे वह सूखी ऊसर भुमि सींचती है अपने प्रेम से, और वह शाख फिर उस धरा पर अपनी जड़े जमाने लगती है,,
देखते ही देखते एक घने वृक्ष का रुप ले लेती है।
जानते हो!
बरगद की एक खुबी और भी है
वह जितना आकाश की ओर बढ़ता है, उतना ही घेर लेता है, धरा को भी ,उसकी शीतल छाँह में धरा इठलाती है, जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन।
बरगद अपनी हर शाख में ऐक और धना बरगद समाएं रखता है।
वह बरगद अपनी शाखाओं पर अनगिनत पंछियों को आसरा देता है, और कुछ स्मृतियों का बसेरा है वहाँ।
उसके पत्तों की सरसराहट में सुनाई देता है मधुर संगीत जो हमेशा मेरा मन मोह लेता है, और जिसकी धून पर फूदकती रहती है चंचल गिलहरियां ।
जो धरा किसी दिन बंजर तपती भूमि थी वो बदल जाती है किसी हरे भरे अरण्य में।
जहाँ उग आता है कोई वट वृक्ष वह जगह मुझे अक्सर किसी आध्यात्मिक तपोवन सी लगती है।
जिसकी छाया तले कोई ऋषि अपनी साधना में लीन हो जाता है और मोक्ष को पा लेता है।
अरे ! अरे ! बस भी करो अब अपनी वट वृक्ष की कथा मेरी सावित्री अब चलो हमारी ट्रेन छुट जाएगी ।
तुम हर बार अपने बरगद प्रेम पर एक नयी ही कथा शुरु कर देती हो।