जैसे ही मेरी ट्रेन बनारस स्टेशन पर रुकी और मेरी नज़र खिड़की के बाहर उस पर पड़ी, मैं जैसे वहीं स्तब्ध-सा रह गया। यकीन नहीं हो रहा था कि उसे 17 साल बाद देख रहा हूँ। उसकी झुल्फ़ें उसके चेहरे को ऐसे ढक रही थीं, मानो चाहती हों कि उसके चेहरे पर किसी की नज़र न लगे। सुबह की पिघलती हुई धूप उसकी चमकती आँखों की रोशनी को और निखार रही थी।
ट्रेन से उतरकर जब मैं उसके पास पहुँचा, तो वह मुस्कुराकर बोली, “शहरी बाबू, आपका वापस गाँव में स्वागत है।”
बनारस स्टेशन से मेरा गाँव लगभग 15 किलोमीटर दूर था। इतने वर्षों में रास्तों में काफी बदलाव आ चुके थे, इसलिए दादी ने मुझे लेने के लिए मीनाक्षी को भेजा था। अरे, मैं तो आपको मीनाक्षी से मिलवाना ही भूल गया! मीनाक्षी मेरी बचपन की सहेली है, जिसे मैं प्यार से मीनू कहा करता था। हमारे घर गाँव में पास-पास ही थे। मैं उसके साथ गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलता था और वह मेरे साथ कंचे खेलने आ जाया करती थी।
दसवीं की परीक्षा दिलवाने के लिए पिताजी हमें गाँव से बाहर बनारस ले आए थे, और धीरे-धीरे बनारस ही हमारा दूसरा घर बन गया। आज 17 साल बाद मैं वापस अपने गाँव लौट रहा था। दादा-दादी की 60 वीं शादी की सालगिरह थी और इसी अवसर पर हम सभी घर के सदस्य गाँव में एकजुट हो रहे थे।
गाँव की गलियाँ भले ही अभी भी तंग थीं, पर गाँव का दिल हमेशा की तरह बड़ा ही था। टैक्सी के रास्ते में मीनाक्षी और मैं बातें करते रहे। उसने मुझसे शहर और शहरी जीवन के बारे में बहुत-सी बातें पूछीं, और मैं बस “हाँ-हाँ” कहकर उसको सुनता जा रहा था, जैसे उसकी ही बातों में मंत्रमुग्ध हो गया हूँ। उसके चेहरे पर आज भी वही बचपन वाली मासूमियत थी। मैं सोच रहा था कि कैसे मैं उसे बिना अलविदा कहे गाँव छोड़कर चला गया था।
बातों ही बातों में कब घर आ गया, पता ही नहीं चला। टैक्सी से उतरते ही सामने पंसारी की दुकान पर बैठे दीपक ने मुझे “भैया-भैया” कहकर पुकारा। मैंने पूछा, “काका कैसे हैं?” तो दीपक ने दुखभरे स्वर में बताया कि काका तो कई साल पहले ही चल बसे। अब वही दुकान संभालता है। पंसारी काका की दुकान से मेरी कई बचपन की यादें जुड़ी हैं। अक्सर माँ से चवन्नी लेकर मैं इस दुकान पर आया करता था—कभी लड्डू तो कभी खट्टा काला चूरन खाने के लिए।
हम घर के अंदर गए। वहाँ बैठे दादा-दादी जी आज भी वैसे ही लग रहे थे—जैसे बरसों पहले लगते थे। सभी से आशीर्वाद लेकर मैं अपने बचपन के घर को निहारने लगा। घर बिल्कुल वैसा ही था, हर एक कोना जैसे अनछुआ-सा। बस हम ही बदल गए थे।
माँ, बाबूजी, चाचा-चाची और बुआ पहले ही पहुँच चुके थे। मैं हाथ-मुँह धोकर चाय पीने के लिए आ बैठा। वहीं एक कुर्सी पर मीनू भी चाय की चुस्की ले रही थी। वह सब लोगों से ऐसे बात कर रही थी मानो वह मुझसे ज़्यादा इस घर की हो। सबके बीच होने के बावजूद मेरी आँखें एक ओर ठहरी हुई थीं—मीनू से ओझल होना मानो मेरे लिए मुमकिन ही नहीं था। उसकी सादगी और ख़ूबसूरती दोनों ही मेरे भीतर एक गहरा असर छोड़ रही थीं।
माँ ने मुझे दो बार पुकारकर कहा,
“अगर थकान निकल गई हो तो ज़रा काम पर भी लग जाओ। कैटरिंग और सजावट वाले दोनों को तुम्हें ही देखना है।”
माँ की आवाज़ तो कानों तक पहुँच रही थी, पर दिमाग मेरा पूरी तरह मीनू में खोया था। वह किसी चुम्बक की तरह मुझे अपनी ओर खींच रही थी।
मैं उससे थोड़ी और बात कर पाता, उससे पहले ही वह अपने घर की ओर चल पड़ी। मैं उसे रोकना चाहता था, पर बेबस था—आख़िर 17 साल बाद उससे मिलकर मैं उसे क्या कहता?
धीरे-धीरे मैं शाम के कार्यक्रम की तैयारियों में लग गया, इस उम्मीद में कि एक बार उसकी झलक फिर से मिल जाए। गली में जब मैं लाइट लगवा रहा था, तभी उसकी मम्मी ने आँगन से उसे आवाज़ लगाई—“मीनू!” यह सुनते ही मेरी धड़कन तेज़ हो उठी। लाइट वाले भाईसाहब मुझसे क्या पूछ रहे थे, मैं अनजान-सा था। बस उसके वापस बोलने का इंतज़ार कर रहा था।
कुछ ही मिनटों में मीनू ऊपर से नीचे आँगन में झुकते हुए बोली। गीले बाल और नीली सलवार-कमीज़ में वह पहले से भी अधिक ख़ूबसूरत लग रही थी। सीढ़ियाँ उतरते समय उसकी पायल की छनछनाहट मेरे कानों में जैसे मंत्र जपने लगी हो। मेरे पास अब कोई शब्द नहीं बचे थे।
खुद को संभालते हुए मैं वापस काम में लग गया। शाम का इंतज़ार था—मीनू को फिर से देखने का, और इस बार कुछ करीब से।
दोपहर तक सभी मेहमान आ चुके थे। खाने पर दादाजी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“नीलेश बेटे, अब तुम भी शादी कर लो। जल्दी से मुझे परदादा बना दो, फिर चैन से मर सकूँगा।" हम सब हँस पड़े। आज पहली बार शादी की बात सुनकर मुझे अटपटा नहीं लगा। उल्टा, आज मुझे सच में शादी करने की इच्छा हो रही थी—अपना घर बसाने की। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि इतना उतावलापन आखिर क्यों हो रहा है।
जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मैं व्यस्त होता गया। लगभग सभी मेहमान आ चुके थे। हम लोगों ने एक बार फिर से दादी और दादाजी का विवाह करवाने की व्यवस्था की थी। घर के सभी पुरुष दादाजी के साथ बारात के रूप में आते और सभी औरतें दादी जी के साथ। मंडप सज चुका था। लाइट और संगीत बिल्कुल माहौल बना रहे थे।
मैं दादाजी को लेकर जैसे ही मंडप में आया, मेरी नज़र दादी पर पड़ी, जो आज शायद सबसे खूबसूरत लग रही थीं। नाच–गाने के बीच मेरी नज़र सिर्फ मीनू को ही ढूँढ रही थी। मन बेचैन हो रहा था कि वह आई क्यों नहीं?
फेरों का समय हो चला था। तभी सामने मानो मुझे मोहित कर देने वाली सूरत प्रकट हो गई। सुनहरी साड़ी में वह बिल्कुल अप्सरा जैसी लग रही थी। फेरे कब शुरू हुए, कब समाप्त हुए—मुझे इल्म ही नहीं रहा। हर फेरे के वचन मानो मैं उसी के साथ लेने के लिए तैयार हो चुका था। मैं ऐसा व्यक्ति बिल्कुल नहीं था—मेरे साथ जो कुछ पिछले कुछ घंटों में घट रहा था, वह मेरे बस में ही नहीं था।
खैर, हम लोग ढेर सारी हँसी–खुशी की बातें और यादों के साथ इस कार्यक्रम को पूर्ण कर चुके थे। दादा-दादी जी बहुत खुश थे और उनके साथ उनका पूरा परिवार भी। आज के इस दौर में किसे अपनी शादी के 60 वर्ष पूरे होते दिखाई देते हैं?
अगले दिन सभी लोग वापसी की तैयारी में जुटे थे। मेरी अगले दिन की फ्लाइट थी। शाम को दादी ने एक टोकरी भर फल और मिठाई मीनू के यहाँ पहुँचाने को कहा। मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा था। मीनू के घर पहुँचकर टोकरी मेज़ पर रखते हुए उसकी मम्मी ने मुझे बैठने को कहा और मीनू को आवाज़ लगाई। वह भीतर कमरे में सो रही थी। जहाँ मैं बैठा था, वहाँ से उसके पैर दिख रहे थे, जिनमें उसकी खूबसूरत पायल थी।
मैं उस पायल की आवाज़ सुनने के लिए तड़प सा रहा था।
कुछ देर बाद मीनू उठी और चाय बनाकर ले आई। धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ और अंत में यह तय हुआ कि वह मुझे शाम को बनारस घाट की आरती दिखाने ले जाएगी।
मैंने तो यह सुनते ही माँ गंगा को 101 रुपये का प्रसाद चढ़ाने की मनत बोल दी।
मैं वक़्त से पहले ही तैयार हो गया। हम दोनों ऑटो से आरती देखने निकल गए। रास्ते में कुछ बातें हुईं, पर ज़्यादातर वह बोलती रही और मैं उसे ही देखता रहा।
बनारस के घाट अब बहुत सुंदर बन चुके थे। आरती देखकर तो मानो ऐसी शांति का एहसास हुआ, जो आज तक कभी नहीं हुआ था। गंगा की लहरों को छूती हुई हवा हमें हल्की-सी गुदगुदी कर रही थी।
अचानक न जाने मुझे क्या हुआ और मैंने मीनू से कहा,
“सुनो… तुम मुझसे शादी करोगी?”
वह समझ ही नहीं पाई… और न ही मैं समझ पाया कि मैंने यह कैसी बेवकूफी कर दी थी।
हम वहाँ से लौट रहे थे, दोनों ने अब ज़्यादा बात नहीं की। न मुझे कुछ समझ आ रहा था और न ही मीनू को।
रात भर मैं सो नहीं पाया और बेचैनी में यही सोचता रहा कि आखिर मैंने ऐसा क्यों किया। मीनू मेरे बारे में क्या सोच रही होगी?
सुबह मैं जाने की तैयारी में लग गया। तभी दरवाज़े पर आहट हुई। दरवाज़ा खोलकर देखा तो मीनू स्टील का डिब्बा लेकर खड़ी थी।
वह बोली, “माँ ने तुम्हारे लिए कुछ बनाकर रास्ते के लिए भेजा है। यह गुड़ वाली बर्फ़ी तुम्हें पसंद है ना?”
मैंने उससे माफ़ी माँगनी चाहिए थी, पर उसने बात को ही टाल दिया।
मैं वापसी की यात्रा के लिए निकल पड़ा। एयरपोर्ट पर बैठकर जब मैंने डिब्बा खोला तो मिठाई के साथ एक कागज़ भी रखा था। कागज़ पर उसका नंबर और ‘हाँ’ लिखा था।
मैं शब्दहीन रह गया। क्या उसे भी मुझ पर उतना ही विश्वास था, जितना मुझे पिछले 24 घंटों में उस पर हो गया था?
एयरपोर्ट से ही मैंने माँ को फोन किया और पूरी बात बताई। पिताजी ने सुनकर कहा,
“जवानी का शौक है, कुछ दिन में शांत हो जाएगा। उससे कहो—सोच समझकर फैसला ले। ऐसे बड़े फैसले जल्दबाज़ी में नहीं किए जाते।”
पिताजी अपनी जगह ठीक थे। मैं भी नहीं समझ पा रहा था कि शादी जैसा बड़ा निर्णय मैं अचानक कैसे ले पा रहा हूँ। मीनू में ऐसा क्या था कि मैं एक पल के लिए भी उसे भूल नहीं पा रहा था?
मुंबई पहुँचकर मैंने माँ से दोबारा इस बात का ज़िक्र किया और कहा कि वह उसके परिवार से बात करें।
माँ समझ गई थीं कि मैं वास्तव में मीनू को लेकर पक्का इरादा कर चुका हूँ, क्योंकि आज तक मैंने किसी बात पर ऐसी ज़िद नहीं की थी।
और फिर क्या था—एक नए रिश्ते की शुरुआत हो गई।
मीनू और मेरी शादी हो गई।
आज तक मुझे नहीं पता कि उस गंगा घाट की हवा में क्या जादू था कि मैंने मीनू से वह प्रश्न पूछ लिया—और मीनू ने भी उसका उत्तर ‘हाँ’ में दे दिया।
आज भी मैं मीनू की तरफ उतना ही आकर्षित रहता हूँ… आज भी उसे उतना ही प्यार करता हूँ।
मैंने मीनू से बस एक ही शर्त रखी है—जब तक मैं ज़िंदा हूँ, वह अपने पैरों में पायल पहने रहे।
आज भी उसकी पायल की आवाज़ सुनता हूँ तो मानो दिन भर का सारा तनाव और थकान भूल जाता हूँ।