बेसन का लड्डू

बेसन का लड्डू

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बात उन दिनों की है जब पिताजी का तबादला जैसलमेर हुआ। पुलिस की नौकरी मैं हम कहीं भी तीन साल तक ही रुकते थे। जैसलमेर बेहद खूबसूरत था। सुनहरी रेत और बड़े बड़े महल दिल को मोह लेते थे।

पिताजी को घर व गाड़ी सरकार से मिलती थी और साथ मैं इंतजाम के लिए कोई न कोई। इस बार उन्हें उनके पुराने एक दोस्त मिले। मैं उन्हें विनिश काका बोलता था। लगभग एक हफ्ते में हम पूरी तरह जम गए थे नई जगह। माँ ने काका को परिवार सहित खाने पे बुलाया। रात ठीक 8 बजे ही दरवाज़े पर आहत हुई, मैंने जब देखा तो काका, काकी और साथ में उनके एक बहुत ही मासूम सी मुस्कुराहट चेहेर पे लिए एक लड़की।

मैं उसे पहली दफा देख रहा था, और मानो तो उसकी हँसी उसके चहेरे से काफी बड़ी थी। उसने मेरे हाथ में एक स्टील का टिफ़िन थमा दिया और बोली ये आपके लिए। मेरा मन इतना बेचैन था कि मैंने झट से उसे खोला तो देखा कि कुछ बेसन के लड्डू थे उसमें।

वो बोली- मैंने बनाये हैं खुद। मैंने खाया तो ऐसा लगा कि वो झूठ बोल रही हो, क्युँकि उनका स्वाद तो ऐसा था जो मैंने आज तक किसी दुकान पे न चखा था। मैं हैरान था कि इतने छोटे हाथ इतने स्वादिष्ट लड्डू कैसे बना सकते हैं ? धीरे-धीरे हम सब बातें करने लगे और माँ ने उसे मेरे साथ खेलने को बोला। मैंने उससे उसका नाम पूछा तो बोली लालिमा और लाली। उसके मुस्कुराते चेहरे को जितना देखता उतना ही और देखने को मन कर रहा था। कुछ तो जादू था लाली में जो मैं समझ नहीं पा रहा था।

वो पाँचवीं में थी और मैं सातवीं में। उसके सिर में लगे तेल की खुशबू से मेरा पूरा कमरा महक उठा था। लाली काफी कम बोल रही थी। काफी देर बाद वो बोली कि क्या वो रिमोट कार चला के देख सकती है ? मैंने झट से उसे रिमोट थमा दिया, जो मैं किसी को छूने भी नहीं देता था।

लाली मानों उस कार में खो गई थी। उसे चलाती और खूब खुश होती। फिर हमने खाना खाया और लाली मुझे मुस्कुराते हुए टाटा कर गई। लाली की खुशबू और हँसी दोनों ही मैं भूल नहीं पा रहा था। धीरे-धीरे दिन बीते और मैं और लाली दोस्त बन गए। वो जब भी मुझसे मिलने आती थी तो बेसन के लड्डू बना के साथ लाती थी। वो लड्डू में मुझे लाली का प्यार महसुस होता था। शायद उस उम्र में और उस समय में प्यार जैसे अल्फ़ाज़ की कोई खास एहमियत नहीं थी पर जो मैं लाली के साथ रह कर महसूस करता था वो बाकी सबके साथ नहीं था।

हम रोज़ मिलने लगे। लाली गणीत में ज़रा कमजोर थी, तो माँ के कहने पे मैं उसे कुछ सवाल समझाता था। इस बहाने मैं उसे रोज़ मिलता था। हम पढ़ते और फिर खूब बातें करते। सब कुछ जान गए थे एक दूसरे के बारे में।

एक बार अंक कम आने के कारण मास्टरजी ने लाली को तेज धूप में 4 घंटे खड़ा रखा, जिस कारण लाली बेहोश हो कर गिर गई।

यह सुन कर मानों मेरे अंदर एक अजीब सा गुस्सा आ गया। यूँ तो आज तक मैं पिताजी की चौकी पर नहीं गया था, पर आज मेरे कदम की रफ्तार मीलों के फासले चुटकी में तय कर रही थी। मैंने उन मास्टर जी के खिलाफ एक बड़ी सी कंप्लेन करी।

पिताजी ने उस मास्टर को निलम्बित कर दिया। एक ऐसा सुकून आया मानों मैंने लाली के आगे आई हर मुश्किल हटा दी हो।

समय बीतता गया और लाली और मैं करीबी दोस्त बनते गए।

वो मेरे लिए बेसन के लड्डू लाती रहती और मैं उसके हाथों के स्वाद में उसका प्यार अपने अंदर समाता गया।

तीन साल बीत गए। इस बार मेरी हाई स्कूल थी, पिताजी ने अपना तबादला इंदौर करवा लिया था, ताकि मुझे बहेतर पढ़ाई की सुविधा मिल सकें। समय आ गया था लाली से दूर होने का जो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था। वो मेरी सबसे खास थी।

और उस रोज मैं और लाली अलग हो रहे थे। मेरे पास उसको बोलने को कुछ खास नहीं था। हम आखिरी बार मिल रहे हैं लाली बोली, मेरे हाथ में एक डब्बा थमाती हुई। मैं उसके लिए एक रिमोट कार लाया था और बोला कि इसे चला कर मुझे याद करना। मैं उस रोज़ लाली को गले लगा के रोना चाहता था, पर रो नहीं पाया। लाली की आँखे नम थी। वो बस मुझे ध्यान रखने को बोली और दूसरे शहर जा के कभी न भूलने का वादा करने को बोली।

मैंने उसके हाथ को थामते हुए वादा दिया, मैं जो महसूस कर रहा था, वो शब्दों में लिखना नामुमकिन सा है। वो भाव एक 15 साल के लड़के के थे, पर बहुत गहरे थे।

शाम की ट्रेन से हम निकल गए, काकी और काका हमको स्टेशन छोड़ने अये थे, पर लाली नहीं। मैं उसे आखिरी बार देखने की उम्मीद भी खो बैठा था। बस हाथ में उसका दिया लड्डू से भरा डब्बा कस के थामे बैठा रहा। माँ जानती थी कि मैं किस बात से उदास हूँ पर कुछ बोली नहीं।

पिताजी ने ये कहा कर समझा दिया कि वहां नए दोस्त बन जाएंगे। छोटी मुम्बई नगरी है वो। वहाँ तुम्हारा मन झट से लाग जाएगा।

पर मैं जानता था, की मुझे शहर नहीं, दोस्त नहीं, बस लाली चाहिए थी पर ये बात पिताजी से न बोल सकता था, न माँ से।

आज इस बात को 17 साल हो गए। बड़े शहर में आकर, पढ़ लिख कर नौकरी भी लग गई और पिताजी ने शादी भी करवा दी। काफी अच्छी है मेरी पत्नी। पूरा घर संभाल रखा है।

लाली की भी शादी हो चुकी। एक रोज़ उसकी शादी का निमंत्रण पिताजी की चौकी पे आया था। लाल और सुनहरे अक्षरों में लिखा था, लालिमा संग संदीप। मेरी लाली अब लाली नहीं, किसी संदीप की लालिमा बन चुकी थी। क्या पता उसे अब भी वो वादा याद होगा, जो मैं आज भी निभा रहा हूँ।

लाली से दूर होने के बाद मैंने लड्डू खाने भी छोड़ दिये। क्युँकि उसके हाथो का स्वाद में हमेशा याद रखना चाहता हूँ।

शायद माँ समझती है मेरे और लाली की छोटी सी दास्तान। पर कभी ज़िक्र नहीं किया।

हर दिवाली मेरी पत्नी, दो सवाल ही करती है, पहला की उनके बनाये बेसन के लड्डू क्यों नहीं खाता या चखता और दूसरा वो टीन का जंग लगा डब्बा क्यों नहीं बेचने देता जो सालों पुराना हो गया है। दोनों ही सवाल के जवाब लाली की यादों से जुड़े हैं, जिनका मैं कोइ जवाब नहीं दे पाता।

तो यही कहानी है, मेरे पहले प्यार की जो आज भी कही मेरे मन मैं सांस लेता है। जिसका वादा आज भी निभा रहा हूँ। बचपन का प्यार था वो पर आज भी मेरे अंदर किसी कोने में है जबकि ये भी नहीं जानता कि लाली कहाँ है कैसी है, मुझे भूली तो नहीं, अपनी नई दुनिया में।

मेरा पहला प्यार लाली और उसके हाथ के बने बेसन के लड्डू।


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