भविष्य की दौड़
भविष्य की दौड़
नीता ने छुट्टियों की शाम कुसुम को चुपचाप चाँद को निहारते देखा तो उसकी खामोशी डरा गई। उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा " क्या सोच रही है।"
चाँद की तरफ अनवरत् देखते हुए उसने जबाब दिया "जानती हो माँ लोग कहते हैं चाँद पहले ऐसा नहीं था। ये दाग नील आर्मस्ट्रांग के छूने के बाद दिखाई देने लगा है।"
वो शॉक्ड हो गई इस जबाब पर उसने बेटी का चेहरा अपनी तरफ घुमाते हुए पूछा "क्या बकवास बात कर रही है ?"
वो धीरे से बोली "आप आज जिस मेडिकल कोचिंग में आज मेरा एडमिशन करवा के आई हैं उसके टीचरों के बारे में सीनियरों से पता किया। माँ मैं दागदार चाँद बनकर आसमान में नहीं चमकना चाहती। मैं सफेद स्वच्छ कुसुम बनकर बगिया ही महकाऊंगी।"
"पर तेरे पापा चाह
ते थे तू डॉक्टर बने।"
"तुम भी तो कुछ बनना चाहती होगी माँ ?"
माँ जैसे खो गई "हाँ मैं प्रोफेसर बनना चाहती लिटरे्चर पढ़ाना था मुझे।"
माँ के नाक से चश्मा उतारकर खुद पहनते हुए उसने घोषणा कर दी " तो ठीक है हम बनेंगे प्रोफेसर हिन्दी साहित्य के, ये तय रहा।"
माँ कसमसाई "तेरे पापा की ख्वाहिश थी।"
उसने माँ के दोनों हाथ थाम लिए " पापा थे ..और तुम हो माँ। अतीत के खूंटे से बंधकर हम भविष्य की दौड़ में नहीं भाग सकते हैं। वर्तमान में ही उस बंधन को तोड़ना पड़ेगा तभी भविष्य की दौड़ में शामिल हो पाएंगे।"
माँ ने हाथ छुड़ाकर चश्मा उपर करने का अभिनय किया "आपका शब्द भंडार देखकर लगता है आप उस दौड़ में अवश्य सफल होंगी।"
फिर यूं लगा जैसे सैंकड़ों फूल एकसाथ खिल गये हों।