भुतहा मकान: भाग 4
भुतहा मकान: भाग 4
आस्था और पाखंड
रोज की तरह सूर्यदेव सुबह सुबह घूमने निकले। सूर्यदेव जहां जाते हैं अपने साथ प्रकाश, ऊर्जा, आशा, विश्वास, सकाराकता और जीवन लेकर जाते हैं। इस कार्य में पवन देव उनकी मदद करते हैं। सुबह सुबह पवन देव बहुत मंथर गति से चलते हैं जिससे पृथ्वी के समस्त प्राणी प्राण वायु अपने फेफड़ों में भरकर स्वयं को निरोगी, हृष्ट-पुष्ट और ऊर्जावान बना लें। पवन देव अपने साथ प्रकृति की सुगंध को भी ले आते हैं जो सबके मानस को प्रफुल्लित, सुवासित और आनंदित कर देती है इससे लोग स्वयं को तरोताजा महसूस करते हैं।
राजन पर भी सूर्यदेव और पवन देव की कृपा दृष्टि पड़ी तो उसके मृतप्राय शरीर में शक्ति का संचार होने लगा। सुगंधित वायु ने उसके हृदय में नवजीवन का अंकुर रोपित कर दिया। पवन की शीतलता ने उसमें प्राण फूंक दिये। इन दोनों के सम्मिलित प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि राजन की आंख खुल गई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसे समझ ही नहीं आया कि वह अभी तक जिंदा है। उसने अपनी पलकें झपकाई। आंखें मसलीं। चिकोटी काटी। सब कुछ ठीक था। तब उसे पक्का विश्वास हुआ कि वह सचमुच में जिंदा है। अपने जीवित होने पर उसने मन ही मन अपने आराध्य बजरंग बली को प्रणाम किया और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित किया।
फिर उसकी निगाह पलंग पर पड़ी तो उसने देखा कि उसके पूज्य आराध्य बजरंग बली पलंग के एक कोने में उल्टे पड़े हैं। इस स्थिति को देखकर वह एकदम से घबरा गया। "हा दैव, घोर अनर्थ हो गया।" उसके मुंह से अनायास ही निकल गया। उसके हाथ अपने-आप ही उसके दोनों कानों तक पहुंच गये। आंखें स्वत: बंद हो गई। होंठ स्वत: बुदबुदाने लगे "शान्तम् पापम्, शान्तम् पापम्।"
जाने अनजाने में कोई अपराध हो जाये तो वह अपराध मनुष्य के दिमाग को हरदम कचोटता है। मगर उस अपराध के लिए यदि मनुष्य मुक्त हृदय से क्षमायाचना कर लेता है तो फिर वह अपराध अपराध नहीं रह जाता है और सीने पर जो बोझ लग रहा था वह उतर जाता है और मनुष्य स्वयं को हल्का महसूस करता है। राजन ने भी अपने आराध्य देव बजरंग बली से उस अनजाने अपराध की क्षमायाचना कर ली थी। इससे वह हलका हो गया था।
उसके बाद राजन बिस्तर से उठा। बजरंग बली को पलंग से उठाया और अपने माथे से लगाया। अहा ! कैसा सुखद स्पर्श था बजरंग बली का ! जैसे कोई पितामह अपने कुल के दीपकों के सिर पर हौले हौले हाथ फिरा रहे हों। इस हाथ फिराने में वे अपनी समस्त ममता, स्नेह, प्यार, विश्वास उनमें भर रहे हों। वह घड़ी भर वहीं जड़वत खड़ा रहा और अपने आराध्य देव बजरंग बली का आशीर्वाद लेता रहा। इस आशीर्वाद से उसके अंदर एक नई शक्ति का संचार होने लगा था। डर नामक चीज का विलोप हो गया था। जिस प्रकार एक थका हुआ मनुष्य कुछ देर आराम करने और अल्पाहार के बाद स्वयं को तरोताजा महसूस करता है वैसे ही राजन भी खुद को ऊर्जावान महसूस करने लगा। यह आशीर्वाद का ही परिणाम था कि वह अब थका थका नहीं, एकदम तरोताजा दिख रहा था। चेहरे पर भी भय के निशान नहीं दिख रहे थे। मन चट्टान की भांति फिर से अटल हो रहा था। उसमें फिर से साहस का संचार हो रहा था। रात के घटनाक्रम ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था। रात के घटनाक्रम का ही परिणाम था कि आज उसने मकान खाली करने का प्लान बना लिया था लेकिन सुबह की स्फूर्ति ने उसके इरादे बदल दिए थे। अब उसने एक दिन और रुकने का सोच लिया था। सोचा कि आज तो दो दो हाथ कर ही लेते हैं "भूत" देवता से। देखते हैं कि भूत जीतता है या उसके आराध्य बजरंग बली।
उसने बजरंग बली को उनके आसन पर ससम्मान विराजमान किया। फिर अपने अस्त व्यस्त कमरे को ठीक किया और नित्य कर्म करने के लिए बाथरूम में घुस गया। उसके बाद वह तैयार होकर अपने ऑफिस चला गया।
ऑफिस में उसने अपने कुलीग के साथ रात की घटना का विस्तार से वर्णन किया। सभी कुलीग उसकी बातों को महज एक स्वप्न समझ कर खारिज कर रहे थे और जोर जोर से हंस रहे थे। किसी को उसकी बातों पर विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन राजन अपनी बात पर अड़ा रहा। उसने तो भुगता था। वह कैसे इसे कपोल कल्पित मान लेता ? वैसे एक बात तो सच है कि जाके फटी नहीं बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। यदि उनमें से कोई भी व्यक्ति कल रात वहां पर होता तो वह मानने की बात तो छोड़ो, हृदय गति रुक जाने से ही वहीं पर मर जाता। मगर राजन हिम्मत वाला था और उसे अपने आराध्य देव बजरंग बली पर पूर्ण विश्वास था। इसलिए वह अभी तक सही सलामत बचा हुआ था। वैसे एक बात तो है। मनुष्य बहुत बड़ा पाखंडी है। भगवान में पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है। परम शक्ति मानता है उसे। उसके लिए वही सब कुछ है, ऐसा कहता है और एक श्लोक बांचता है
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रवणम् त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव।"।
पर ये सब कहने की बातें हैं, मानने की नहीं। अगर मानने की होती तो वह डरता क्यों ? उसके विश्वास की पहचान तो तब होती है जब उसके पास केवल दो विकल्प होते हैं, एक अपने आराध्य को बचाने का और दूसरा धन दौलत, परिवार बचाने का। तब वह स्वाभाविक रूप से अपने आराध्य को नहीं अपितु माया मोह को ही बचाता है। और यही सबसे बड़ा पाखंड है मनुष्य का। वस्तुत: यही सत्य भी है उसकी आस्था का।
कहने को तो वह कहता है कि "तुम" ही सृष्टि के रचियता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हो मगर उनमें ही उसे विश्वास नहीं है। यह कैसी आस्था है ? यह तो निरा पाखंड है। मनुष्य भगवान को रिझाने के लिए प्रार्थना नहीं करता बल्कि दुनिया को दिखाने के लिए प्रार्थना करता है। जब मनुष्य को पता है कि मौत अवश्यंभावी है फिर भी वह मौत से डरता है। उसे यह भी पता है कि ऊपरवाले की मर्जी के बिना उसे मौत छू भी नहीं सकेगी लेकिन वह मृत्यु के भय से थर थर कांपता रहता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उसे ऊपरवाले पर विश्वास नहीं है। जब उस परमपिता परमात्मा पर विश्वास ही नहीं है तो फिर उसकी प्रार्थना करने का पाखंड क्यों ? जिस दिन मनुष्य यह बात समझ जायेगा उस दिन वह मृत्यु से डरना छोड़ देगा।
राजन इस बात को जानता था कि मौत तो एक न एक दिन आनी ही है। वह टल नहीं सकती है मगर वह उस दिन आयेगी जिस दिन उसका खाता पूरा हो जायेगा। यदि उसका खाता पूरा हो गया है तो मौत फिर भी आयेगी, चाहे वह किसी भी मकान में रह ले। और यदि अभी उसका खाता पूरा नहीं हुआ है तो मौत अभी आ ही नहीं सकती है। इस मकान में भी नहीं। यह भूत भी क्या बिगाड़ लेगा उसका ? जब ऊपरवाले ने जिंदगी लिखी है तो उसे भूत प्रेत कोई भी छीन नहीं सकता है। इस विचार से उसका मन हिमालय की भांति दृढ़ हो गया था। अब उसने उस मकान को छोड़ने का विचार त्याग दिया था। अब वह भूत से सामना करने को तत्पर हो गया था।
क्रमश:

