बेवजह... भाग ५

बेवजह... भाग ५

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अब तक...

ठक-ठक की आवाज़ स सरला जाग गयी, सरला समझ गयी कि दरवाज़े पर ठाकुर होगा... मारे घबराहट के सरला पसीने मैं लथपथ हो चुकी थी, सरला वहीं घबराहट के मारी बैठी रही, सरला की हिम्मत ही नहीं हो रही थी की दरवाजे को खोल सके...

ठाकुर के आदमियों ने दरवाजा तोड़ दिया... सरला वही सामने बैठी हुई थी, ठाकुर दरवाजा टूटते ही अंदर आया और सरला के करीब आकर उसने कहा...

"किधर है थारी छोरी"...

"सरला ने उस पर हँसकर जवाब दिया... दूर इस पाप की नगरी से बहुत दूर चली गई वो।"

यह सुनते ही ठाकुर ने सरला को कसके तमाचा मारा और सरला नीचे गिर गय। मगर सरला की आवाज़ बंद नहीं हुई, सरला चीख-चीख कर कह रही थी...

"तुझे वह कभी नहीं मिल पाएगी, नीच है तू सड़ सड़ करके मरेगा तू"

ठाकुर गुस्से मे लाल हुआ जा रहा था... और गुस्से मैं ठाकुर ने कहा- "बहोत जुबान चल रही है तेरी... इससे हमेशा के लिए खामोश कर दो।"

ठाकुर यह कहकर वहाँ से निकल गया... और ठाकुर के आदमियों ने सरला को उसके घर के अंदर ही बंद करके घर को आग लगा दी।

सरला की चीखें आसमान छू रही थी मगर उसकी जान बचाने वाला वहाँ कोई नहीं था और कुछ ही देर मैं सरला की चीखें खामोश हो गयी, आग की लपटों में वह चीखें कहीं खो गयी....

अब आगे...

कियान और जीविका भागते हुए गाँव से कुछ मील दूर रेगिस्तान में चल रहे थे, रेगिस्तान का माहौल ही कुछ ऐसा होता दिन मैं जहाँ बदन जला देने वाली गर्मी पड़ती है, तो वहीं रात को जमा देने वाली ठंड...

कियान आगे-आगे चल रहा था और जीविका उसके पीछे, काफी ठंड थी... रात भी काफी हो चुकी थी और दोनों चलते-चलते थक चुके थे, तभी कियान को नज़र दूर एक खंडहर पर पड़ी... कियान ने सोचा की रात बिताने के लिए यह अच्छी जगह है...

कियान ने जीविका से कहा...

"वो देखो सामने कुछ खंडहर जैसा है, हम रात यहाँ ठहर जाते हैं, सुबह होते ही चल पड़ेंगे।"

जीविका ने कियान की बात का कोई जवाब नहीं दिया और बस खंडहर की तरफ चलने लगी...

कियान ने भी कुछ कहा नहीं और चुपचाप जीविका के पीछे चलने लगा...

वह खंडहर मानों प्राचीन काल के किसी मंदिर की तरह था, मगर सही स्वरूप मैं वह मंदिर नहीं था, वह जगह पूरी तरह से उजड़ चुकी थी...

जीविका वहा पर आकर खंडहर की छोटी सी दीवार के सहारे नीचे बैठ गयी... कियान ने जीविका को देखा मगर मन ही मन उसने सोचा कि उससे अकेले छोड़ने में ही भलाई है...

कियान जीविका से कुछ दूरी पर आकर बैठ गया और रेत को थोड़ा सर के बल जमकरके उसके सिरहाने लेट गया...आसमान में सितारे जगमगा रहे थे, ऐसे सितारों भरी रात कियान ने पहली दफा देखी थी, जहाँ ठंडी हवा के चलते हल्की सी रेत उड़ रही है और काले आसमान में चाँद को और भी खूबसूरत बनाने वाले यह तारे....

इन जगमगाते तारों को अपनी नजर में कैद करते हुए कियान सो गया...कियान काफी गहरी नींद में था तभी उसने देखा कि...

"माँ.... माँ कहा हो माँ।"

माँ, माँ चिल्लाते हुए कियान अपनी घर की ओर बढ़ रहा था, फिर वही दृश्य उसकी आँखों के सामने आने लगा... अपने हाथ में एक लकड़ी लिए अपनी ही मस्ती में गुनगुनाते हुए, कियान अपने घर की और बढ़ रहा था... अपनी ही मस्ती मैं मगन, कियान को नहीं पता था की जिस राह पे बढ़कर वह अपने घर लौट रहा है... वहाँ पहुँचते ही उसकी दुनिया बदल जाएगी... सपने में वह अपने घर पहुँचा, तब उसने देखा कि. रोज की तरह आज भी चूल्हा जल रहा था मगर चूल्हे के पास माँ नहीं बैठी थी, न ही चूल्हे पर कुछ बन रहा था, रोज की तरह नल से पानी बह रहा था, मगर आज वहा बहन काम नहीं कर रही थी, रोज की तरह ही लकड़ियों के ढेर के पास कुल्हाड़ी पड़ी थी मगर बाबा वहाँ आस-पास नहीं थे... सब कुछ बहुत शांत था, इस शांत माहौल के कारण कियान घबरा रहा था... और जैसे ही वह घर में दाखिल हुआ..?

और कियान नींद से उठ गया, कियान की फिर वही हालत थी... घबराहट के मारे कड़ाके की ठंड में भी उसके पसीने छूट रहे थे, कियान ने अपने पीछे मुड़कर देखा जीविका अब भी वहीं बैठी, कियान जीविका को ऐसा देखने लगा जैसे कोई पानी का प्यासा नदी को देखता हो...

कियान उठकर जीविका के करीब गया... और कियान ने उसको शाल ओढ़ाई, लेकिन जीविका ने शाल को निकाल कर फेंक दिया...

कियान ने कुछ नहीं कहा और फिर से एक बार शाल को लाकर जीविका को ओढ़ाई, मगर फिर से जीविका ने शाल निकाल कर फेंकना चाहा, तब कियान ने उसका हाथ पकड़कर कहा...

"कड़ाके की ठंड है, मर जाओगी।"

जीविका कियान की आँखों में देखने लगी... कियान ने जीविका को शाल से ढक दिया और फिर उठकर वापस अपनी जगह पर जाने लगा...तभी जीविका अपनी खामोशी को तोड़ते हुए बोली...

"दादी ठीक कहती थी।"

यह सुनकर कियान रुक गया और मुड़के जीविका को देखने लगा, कियान मन ही मन खुश हुआ जीविका की आवाज़ सुनकर और कियान ने पूछा...

"क्या कहती थी तुम्हारी दादी।"

"बोझ हूँ मैं..... पनोती हूँ मैं, एक दिन माँ के कांधे पर बोझ बनकर रह जाऊँगी।"

कियान, जीविका की ऐसी बातें सुनकर दंग रह गई, जीविका के मुँह से कियान ने पहले कभी ऐसा सुना नहीं था मगर आज मानों बरसों से दबी आवाज़ बाहर आ रही थी।

"ऐसा कुछ नहीं है, तुम कभी किसी पर बोझ नहीं थी और ना बनोगी।"... कियान

"मेरा जन्म होते ही, मुझे बोझ कहकर मेरी माँ को मेरी दादी ने घर से निकाल दिया, मेरे बापू ने लेकिन हार नहीं मानी, बहुत चाहते थे वह मुझे।"

"बापू मुझे और माँ को लेकर इस गाँव में आ गये, यहाँ के ठाकुर के खेतों में बापू को नौकरी मिल गयी और हमारा गुजर बसर चलने लगा।"

"मैं, मेरी माँ खुशी से रहते थे... लेकिन जिस घर में मुझ जैसी पनोती हो वहाँ लोग कैसे खुश रह सकते हैं, एक दिन माँ बापू को खाना देने के लिए खेत पर गयी थी जहाँ ठाकुर की नजर माँ पर पड़ी, माँ के जाते ही ठाकुर ने बापू को बुलाया और बापू ने जैसे ही उस ठाकुर के इरादे सुने, गुस्से में आकर बापू ने उस पर वार कर दिया"

"ठाकुर के आदमियों ने बापू को बहुत मारा और धक्के मारकर वहाँ से निकाल दिया... बापू घर लौट आये, बापू की ऐसी हालत देख माँ रोने लगी... बापू ने माँ को सब कुछ बता दिया।"

तभी वहाँ पर ठाकुर के कुछ लोग आए उन्होंने कहा...

"विक्रम ठाकुर ने तन्ने हवेली पर बुलाया है, आज जो कुछ भी हवा उसके लिए ठाकुर साहब ने क्षमा माँगी है और तुझे नौकरी पर भी वापस बुलाया है।"

"माँ, बापू को हवेली नहीं भेजना चाहती थी, लेकिन बापू फिर भी हवेली पर गए... और फिर लौट कर कभी वापस नहीं आये।"

"तब में सिर्फ एक साल की थी, माँ ने मुझे दूध पिलाकर सुला दिया और बापू की राह तकते-तकते खुद भी सो गई, तभी दरवाजे पर हुई दस्तक से माँ उठ गई।"

"दस्तक सुनते ही माँ ने जल्दी से दरवाजा खोला, मगर दरवाजा खोलते ही माँ चौंक गयी।"

दरवाजे पर ठाकुर खड़ा था, माँ ठाकुर को देख कर घबरा गयी, घबराहट के चलते माँ ने ठाकुर से बड़ी ही धीमी आवाज़ में पूछा....

"वो कहाँ है... जीविका के बापू बोलते वक़्त माँ की जुबान लड़खड़ा रही थी।"

ठाकुर ने बड़ी क्रुरता भरी आवाज़ में कहा...

"अब वो लौट के कभी नहीं आएगा।"

.........To Be Continued ............


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