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Manish kumar

Abstract

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Manish kumar

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बेपरवाह परिंदा

बेपरवाह परिंदा

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बेपरवाह परिंदा

उड़ चला था ख्वाबों में

काट डाला उसके परों को

हक़ीकत ने इस तरह

फिर कभी उङ ना सका!


तलाश करता वो सुख की

इससे पहले दुःख ने

हरा दिया इस तरह

फिर कभी जीत ना सका!


निर्झर नदियाँ नालों को

अपनी कलाबाजियों के दम पर

चित्त करना तो चाहता था

अचानक हवा ने चित्त किया इस तरह

फिर कभी उठ ना सका!


मंजिल पर हौसले हावी रख

चला था विजय पताका फहराने

पहुंचता शिखर पर पहले

डगर से फिसल गया इस तरह

फिर कभी संभल ना सका!


नादान परिंदा,

खबर से पहले चला था

दुनिया समझने,

रोक दिया रास्तों में,

जिम्मेदारियों ने इस तरह

फिर कभी चल ना सका !


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