बेहद
बेहद
कुछ चीजे़ बेहद पसंद आती है, तो कुछ से बेहद नफरत। पर क्या हदें पार कर बेहद होना लाज़मी है? इश्क हदे तोडे तो जुनुन है, पर क्या यह मंजर ठीक है... अच्छा और बुरा दोनो है पर ये बेहद एक खौफ है। हदों से गुजर कर भी बेहद होना चाहिए !
नही समझे क्या? देखो बेहद एक ऐसा मंजर है जो तुम्हे दोहराए पर लाता है ... एक तरफ कुछ अशरफीसा मंजर और एक तरफ खाई।
किसी कलाकार को हदे लांदे तो वह मामुलियत मे उलझता है, पर वह हदे तोड बेहद उस मे डूबकर अध्भूत बन जाता है। तो बेहद होना चाहिए...ऐसे तो दोहराह नही है, जी नही बेहदी मे वो हद नही भूलता वो वजूद मिटा देता है, वह समरस होता है, वह लीनता पाता है।
बेहद जरुर बनो पर जुनुनियत भरा बेहदपन नही, वह गला घोटता है सब का।
हदो में बेहद बन, जुनुनियत भूल
कुछ ऐसा सुकून सा मिलेगा, जैसै एक माँ का दामन।
