बदलता स्वरुप
बदलता स्वरुप
माध्यम वर्गीय राकेश जो सचिवालय में कार्यालय अधीक्षक के पद पर कार्य रत था सादा जीवन उच्च विचार की विचारधारा का अनुसरण करने वाला यह व्यक्ति परिणय सूत्र में 1956 में माता पिता और सगे सम्बन्धियों के आशीर्वाद से महिमा नामक एक घरेलू कन्या के साथ बंध गया।
दोनों के जीवन की गाड़ी धीरे धीरे गति पकड़ने लगी, लेकिन कहते है न जहाँ दो बर्तन होंगे खड़केंगे ज़रूर ! विवाह के लगभग छ: माह के बाद आम पति पत्नी की तरह राकेश और महिमा में भी तू तू मैं मैं शुरू हो गई, महिमा चाहती थी कि राकेश कभी कभी उसे फ़िल्म दिखाने या घुमाने ले जाए, लेकिन राकेश अपने काम में व्यस्त सुबह 10 से 5 की duty करने वाला सामान्य मध्यम वर्गीय आदमी उसने पत्नी की बड़ी क्या छोटी छोटी इच्छाओं का भी सम्मान नहीं किया, न कभी उसके पास बैठ कर दो मीठे बोल बोलता केवल मतलब की बात और अगर वह कुछ कहती तो नजरंदाज करता चला जाता, जो थोड़ी बहुत बात करता वो भी अपनी माँ से, माँ भी सब देख समझ रही थी लेकिन उसने कोई कदम नहीं उठाया, धीरे दोनों के बीच की दरार बढ़ती चली गयी, समय बीत रहा था इसी ऊहापोह में महिमा ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया, अब लगा जैसे दोनों एक दूसरे को समझ सकेंगे लेकिन यह दरार अब खाई बन चुकी थी, दोनों के बीच में अब बातचीत भी नहीं होती, महिमा बच्चों में व्यस्त और राकेश आफिस से आकर कभी समाचार पत्र पढ़ कर कभी भजन सुनकर समय काटने लगा, समय गुज़रने लगा, दोनों बच्चे बड़े हो गए एक MBBS करके डॉक्टर बन गया तो दूसरा प्राइवेट विज्ञापन कंपनी में कार्य करने लगा। बच्चों के साथ भी राकेश का सम्बन्ध कुछ ठीक नहीं था, उनकी विचारधारा बच्चों से मेल नहीं खाती थी ।
लगता था जैसे घर का विभाजन जो गया भारत और पाकिस्तान की तरह। बच्चे और माँ एक तरफ पिता अकेला । उम्र के इस पड़ाव में राकेश यह अपेक्षा रखता कि पत्नी और बच्चे उसके साथ बैठे बात करें, लेकिन अब किसी के पास उसके लिए समय नहीं ।
किसी का भी अपमान या उसके स्वाभिमान को कभी आहत नहीं करना चाहिए क्योंकि वक्त पड़ने पर कड़वा नीम भी काम आता है।
