Jyoti Astunkar

Abstract

4.3  

Jyoti Astunkar

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बचपन

बचपन

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आँखों में चमक, मन में ख़ुशी, दिमाग में चहल-पहल, कुछ नया करने की चाह, न कोई डर और न कोई विचार।

बस ये जहाँ मेरा है, मैं जो चाहूँ करूँ।

छोटी सी उम्र और बड़े-बड़े ख्याल, हर एक हरकत में कुछ नया करने की ख़ुशी, कुछ न कुछ करते रहने की इच्छा, जिज्ञासु प्रवृत्ति, मासूमियत और ना जाने बहुत कुछ।

हाँ, ये है वो “बचपन”, जो शुरू होता है एक माँ के गर्भ से। आस-पास क्या हो रहा है, उसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, लेकिन कुछ अपने ही अंदाज़ में। माँ के गर्भ में हलचल करके उसे एहसास दिलाना, अपने होने का।

दुनिया में आते ही सबसे पहले खुली आँखों से रौशनी महसूस करना और आँखे मिचना। नयी-नयी आवाज़े सुनना, हर किसी के हाथों के स्पर्श को समझना। इतनी नन्ही सी उम्र में अपने और पराये के एहसास को समझना। हर महीने की कुछ अलग हरकतें, हर नए साल में कोई नयी सीख। हर दिन, एक नया दिन।

हम पालकों के लिये भी हर दिन एक नया दिन।

ऐसा बहुत कुछ जो हम इन बच्चों से सीखते हैं, छोटी-छोटी बातों में खुश होना, हर सुबह एक नयी सुबह और हर शाम एक नया जलसा।

मुझे लगता है, ज़िन्दगी हमें एक और मौका देती है, कुछ और सिखने का। जो शायद हमारे “बचपन” में में सीखना रह गया था। वो आज हमारे बच्चे हमें सीखा देते हैं।

बच्चे एक कोरा कागज़ है, जिन्हें हम वो सिखाते हैं, जो हमनें हमारे “बचपन” में अच्छी तरह सीख लिया था।

इस प्रकार अगर ग़ौर किया जाये तो बच्चे और हम एक-दूसरे के शिक्षक ही हैं। अंतर सिर्फ़ इतना है की हमारे ये शिक्षक हमपर पूरी तरह से अवलंबित हैं, और इस प्रकार हमारी ज़िम्मेदारी उनकी तरफ़ ज़रा सी ज्यादा है।

कभी-कभी हमें इन बच्चों की उम्र में खुद को रखकर सोचना चाहिए, की उनकी हरकतों पर जिस तरह हम प्रतिक्रिया देते हैं, वैसी ही प्रतिक्रिया अगर हमें मिले तो ?

क्योंकि कभी-कभी हम अपने बड़े होने का और उनके पालक होने का फ़ायदा उठाने लगते हैं। इसका मतलब ये नहीं की हम उनका बुरा चाहते हैं, पर ऐसा हो जाता है की, हमारा अहंकार, प्रतिष्ठा, प्रतियोगिता आदि हमारे बच्चों पर हावी हो जाते हैं।

और नन्ही सी मासूम ज़िन्दगी को समझ में ही नहीं आता की – ग़लती क्या थी।


मैंने खुद से वादा किया था, की मैं और मेरा बच्चा एक-दूसरे के शिक्षक और दोस्त बनके रहेंगे। जो कुछ मैंने सीखा वो मेरे बच्चे का, और जो रह गया वो उसके साथ सीखना। बच्चो में सकारात्मकता का भाव जगाना, अच्छे और बुरे को पहचानने की कला सीखना, और अपने मन के भावों को अपने नियंत्रण में रखना।

ये तीन पाठ अगर मैं अपने बच्चे को सिखाने में सफल हो गयी, तो बाकि के सारे पाठ उसे उसकी आने वाली ज़िन्दगी सीखा देगी. परंतु उसे ये सब सिखाने के लिए मुझे भी उससे बहुत कुछ सीखना है।

अपने बच्चों के साथ उनका “बचपन ” जीने में जो मज़ा है वो तो कुछ अलग ही है।

मैंने उसके “बचपन” के ऐसे बहुत से पल आज तक जिये हैं, जिनकी यादें हमेशा मेरे मन में रहेंगी। वो मासूम भाव, नयी भावनाएं, नये अनुभव।

कुछ नया करने और सिखने की वो ख़ुशी!

कुछ मासूम भाव और अनुभव जो उसने व्यक्त किये – और मैंने मेरे इस लेख में समेट लिये –

"दो साल की उम्र में, वाटर कलर का ब्रश लेकर, आधी रात को मेरे साथ, आकाश में मुस्कुराते चंदामामा की पेंटिंग करना। और पेंटिंग पूरी होने पर कहना – ‘आई बघ, तो वरचा moon, आता आपल्या घरी पण आला. सकाळी सगळे उठले की आपण दाखऊ त्यांना। किती सुंदल आहे ना… ” (statement in Marathi)

किसी नए काम को पूरा करने की ख़ुशी, अपना खुद का moon पाने की ख़ुशी!


“पहली बार पेंसिल हाथ में लेकर कुछ रेखाएं खींचना, और उसे देखकर बहुत खुश होना। खुद की खींची हुई रेखा को दिखाकर कहना, मैंने कितना सुंदल बनाया ना? अपनी पेंसिल का उस जगह इस्तेमाल करना, जहाँ हम उन्हे ना करने की सलाह देते हैं। हमारे ना पर, बार-बार उसी जगह कलाकारी करना और ख़ुश होना। ”

शुरू में मैंने भी दूसरे पालकों की तरह उसका जरा विरोध किया, परंतु फ़िर उसे उसका “बचपन” महसूस करने का मौका दिया।

और एक बार तो, मैंने भी उसके साथ दीवार पर कलाकारी करने का आनंद उठाया.

उस दिन की उसकी ख़ुशी का विवरण इस लेख में करना बहुत ही कठिन है। उसका दिवार पर बनाया हुआ छोटा सा थॉमस इंजन, बहुत सारा धुआँ निकालते हुए कई सालों तक मेरे ड्राइंग रूम की दीवार से गुज़रता रहा। और उस इंजन में मुझे उसका “बचपन” दिखता था।

“एक बार उसने दीवार पर उसकी और उसकी बहन की तस्वीर बनाई, और दोनों के सिर पर वो रोज़ एक बाल बनाता (एक स्टैंडिंग लाइन), और जब मैं शाम को ऑफिस से आती, मुझसे कहता – ‘मम्मा देखो हमारे बाल और थोड़े बड़े हो गए!”

मेरे घर में आने वाले बहुत से लोगों के चेहरे के भाव और मेरे दोस्तों की बातों में मैंने सुना है, इस तरह घर की दीवारों को ख़राब क्यों करने दिया? तुम्हें उसे सिखाना चाहिए की ऐसे करना गलत है, दीवारों को खराब करना अच्छी बात नहीं है।

मैं कहा करती थी की, वैसे भी हम अपना घर पेंट करवाते है ६-७ सालो में, तो क्यों न मैं मेरे बच्चे को उसका बचपन जीने दूँ।

बच्चो की ये सुन्दर हरकते और मासूमियत हम उनकी उम्र के शुरू के ५-६ सालों तक ही अनुभव कर सकते हैं। और इन सालों में ही हमें, उन्हें कुछ सकारात्मक बातें भी सिखानी हैं, ताकि वो अपना “बचपन” भी पूरी तरह से जीये और हमसे वो सारे अनुभव भी लें, जो उनके भविष्य में उन्हें सही राह दिखा सकें।

बच्चो को समझना और उन्हें समझाना भी एक कला है, जो हम सबको सीखनी चाहिए।

“बचपन” को जीने में जो ख़ुशी है, वो जीवन के किसी दूसरे मोड़ पर नहीं।


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