बैरम खान की मौत
बैरम खान की मौत
बैरम खां जिसे युद्ध में हराया नही जा सकता था, उसकी मौत कैसे होती है मालूम है? अकबर के आदेश पर बैरम खां के पीठ पर खंजर घोंप दिया जाता है, उसकी बेगम अकबर की बेगम बन जाती है।
इस कहानी की शुरुआत तब होती है जब चौसा के युद्ध में हुमायु पराजित हो चुका था, दरअसल मुगल सेना अधिक थी, इसलिए शेरशाह ने रणनीति से काम करते हुए अचानक मुगल छावनी में हमला कर दिया।
हुमायू अपनी बेगमों को छोड़ भागने लगा, उसके साथ कुछ अंगरक्षक थे जो अफगानों को मारते हुए उसका रास्ता बना रहे थे, इसी में एक 16 वर्ष का बैरम खां लड़ता हुआ जा रहा था।
एक समय आया जब वे उफनती नदी के किनारे पहुंच गए और दूसरी ओर पठान मौत बन कर सवार थे, तब बैरम खां ने ही उसे सुरक्षित बचाया।
कन्नौज की लड़ाई में भी हुमायु की गलत रणनीति के कारण उसे भारत से भागना पड़ा जहां अमरकोट के राजपूत राजा ने उसे शरण दी, किंतु हुमायूं के बुरे बर्ताव के कारण उनका विवाद राजपूतों से भी हो गया, जिस पर बैरम खां ने यहां भी उनकी जान बचाई, तब अकबर नवजात था।
इसके बाद बैरम खां अकबर का संरक्षक बन गया, वो चाहता तो कुछ भी कर सकता था, मुगल शासक भी .....।
किंतु उसने सदा स्वामी भक्ति की, एक युद्ध का वर्णन है जब 1,000 मुगल सैनिकों से उसने 30,000 अफगान लड़ाकों को मार भगाया था।
और जब हेमू ने पूरे भारत को जीत लिया और अकबर मात्र पंजाब के कुछ भागों तक सीमित रह गया तब बैरम खां ही था जिसने अपनी रणनीति से कम सैनिकों के बावजूद एक बड़ी विजय लेकर अकबर को उत्तर भारत का शासक बनाया।
जब अकबर के राज्यारोहण में एक मुगल सेनापति शामिल नहीं हुआ तो उसे पकड़ कर उसने जेल में डाल दिया, पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर को दो मील दूर रखा ताकि भावी राजा को एक खरोंच भी नही लगे।
लेकिन उसको बदले में क्या मिला? अकबर ने उसे अपना संरक्षक और दीवान के पद से हटा दिया ।
बैरम खां पर झूठे राजद्रोह के आरोप लगाए गए, राज्य से निकाला दे दिया गया कि आप अब मक्का जाए और वहीं जीवन यापन करे, किंतु ये एक छलावा था उसे रास्ते में ही अकबर ने मरवा दिया।
अकबर ने इसके लिए आरोप लगाया कि उसे सत्ता की भूख थी और वो उससे उसका साम्राज्य हड़पना चाहता था, बल्कि अकबर की नजर उसकी सुंदर पत्नी पर थी, बैरम खां को मृत्यु के बाद सलीमा को अपने हरम में उसने डाला भी।
बैरम खां अकबर के पिता के समान थे, उनके संरक्षक थे, उनके गुरु थे तो स्पष्ट उनकी पत्नी भी अकबर के लिए एक गुरु मां से अधिक थी और सबसे दिलचस्प सलीमा हुमायूं की भतीजी थी अर्थात अकबर की चचेरी बहन भी थी।
बैरम खां की मौत भी सरल नही थी, जब उसे मक्का के लिए जाने को कहा गया तो एक अदने से सैनिक जिसे कभी बैरम ने निकाला था उसे उच्च पद में भर्ती किया और उसे आदेश दिया कि इस बीच बैरम खां कहीं भी अधिक देर तक ठहरे नही।
अर्थात उसे धकियाते हुए ले जाया गया, उसके बोरिया बिस्तर को तुरंत उठवा दिया जाता, अधिक विश्राम तक की छूट नही थी, आखिर एक नौकर का बर्ताव बैरम खां कब तक सहता, मुट्ठी भर सेना के साथ उसने उन शाही सैनिकों पर हमला कर दिया।
पराजित होकर उसे दरबार में लाया गया, तो उस महावीर ने रोते हुए कहा, शहंशाह मेरा इतना तो अपमान न करो, चाहे तो कत्ल कर दो।
इसके बाद अकबर ने उस सैनिकों को पीछा करने से रोक लिया किंतु पाटन के क्षेत्र में पठानों की एक भीड़ आकर उनके मार डालती है, जो अकबर के ही निर्देशन में था।
उसकी लाश झील के किनारे पड़ी रही, जिसे हिंदू किसानों ने फकीरों की सहायता से उचित इस्लामिक संस्कार से दफनाया।
मुगल होशियार थे वे बाद की सोच कर चलते थे कि बाद में कोई अकबर को दोषी न बता सके और कहने का अवसर हो कि बैरम खां ने शाही सेना पर हमला किया था।
बैरम खां को उसके मित्रो ने सलाह दी थी कि सेना आपके साथ है आप अकबर को बंदी बना लेवे, किंतु बैरम खां ने अपनी सेवा को इससे कलंकित करना समझा और अपना सब धन अकबर को सौंप कर सादे कपड़ों में वे निकल गए थे फिर भी अकबर तो महान है।
