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Shiv kumar Gupta

Inspirational

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Shiv kumar Gupta

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बिहार की लोक परंपरा- कोहबर

बिहार की लोक परंपरा- कोहबर

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"कोहबर" की लोक परंपरा की वो जानकारी आप मित्रों से साझा करने जा रही हूं जो कि बचपन से देखते आई हूं। और इन दिनों शादी-विवाह और लग्न का समय भी चल रहा है। लेकिन यह रस्म और प्रथा जो कि आधुनिकता की चपेट में आकर विलुप्ति की कगार पर है। हर जगह की परंपराएं भी ऐसी ही या इससे मिलती-जूलती हो सकती है। 

हमारे बिहार में कोहबर का नाम आते ही शर्म-हया, और लोक-लाज की दुहाई दी जाने लगती है। 

और इतना ही नहीं हमारे बिहार में तो अपने बेटे-भतिजों को लोग डांटने-फटकारने या व्यंग्य करने के तौर पर भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे। जो शादीशुदा लड़का अगर दूरा-दालान से ज्यादा घर में समय बिताने लगे उसे यही सुनने को मिलता कि "मऊगा" जैसा घर में क्या रहते हो..? जब देखो तब कोहबर में घूसे रहते हो। और उस पवित्र स्थान के महत्व को नज़रअंदाज़ करते हुए कोहबर के नाम पर व्यंग्य और फब्तियां कसते रहते थे। 

इसलिए भी इस विषय पर लिखना या सोचना गुनाह-सा लगता है। लेकिन देखा जाए तो अब समय काफी बदल चुका है और यह एक अद्भुत जानकारी है जो खुद बिहार के ही कितने लोग भी इसकी पवित्रता और सार्थकता को नहीं समझ पाते। 


कोहबर वह कमरा है जिसकी दीवारें लोक चित्रकारी की तुलिका से सुसज्जित हैं... जहां कुलदेवता का वास है... और जहां विवाह से संबंधित कई तरह की रस्में निभाई गई हैं। नाम से ही बहुत कुछ स्पष्ट है: 'कोह' का मतलब गुफा, और वर का मतलब तो कौन नहीं जानता -- वरण करने वाला या दूल्हा। सो स्पष्ट है कि व्यक्ति के वर बन जाने के उपरांत उसकी तत्कालिक रिहायश की जगह, यानि 'दूल्हे की गुफा" ही कोहबर है। विवाह के फौरन उपरान्त नवयुगल को मंडप से शादी संपन्न होने के पश्चात् और किसी कमरे में प्रवेश नहीं मिलता, सिर्फ उसी कमरे में ले जाया जाता है जहां लड़की के घर में बारात आगमन के पहले ही चावल को भीगोकर-पीसकर उसके घोल में लाल, हरे, पीले और गुलाबी जैसे अनेक रंगों को मिलाकर अलग-अलग मिट्टी के छोटे-छोटे बर्तनों में -- जो गिलास और कप के आकार के होते है -- में घोलकर कमरे के पूरब दिशा की तरफ वाले दीवार पर रंग-बिरंगी कई तरह की सजावटी आकृतियां बनाई गई होती हैं। इसे बनाने के लिए पतली-पतली लकड़ियों के एक सिरे पर रूई या सूती कपड़े को बांधकर कूची तैयार की जाती है। फिर घर और आस-पड़ोस की एवं शादी में आई हुई मौसी, बुआ, भाभी, दीदी सरीखी इस काम में निपुण महिलाओं द्वारा बड़े उत्साह से कमरे की पूरब दिशा वाली दीवार पर एक साथ मिलकर चित्रकारी की जाती हैं। और उसके बदले उन लड़कियों को नेग भी मिलता। जो कोहबर लिखने के पहले ही मिट्टी के प्लेटनुमा पात्र जिसे ढकनी कहते हैं। उसी में अरवा चावल और सामर्थ्यनुसार कुछ रूपये रखे जाते जिसे "पुरौता" कहा जाता। जिसे बाद में आपस में सारी लड़कियां बांट लेती।


उसके बाद ही कोहबर लिखने की शुरुआत होती। और इस दौरान जब एक साथ एक ही राग में गीत के स्वर जब पास-पड़ोस के कानों में गूँजायमान होने लगते हैं तो अगल-बगल और पास-पड़ोस की सारी लड़कियों को भी भान हो जाता है कि कोहबर लिखा जा रहा है। फिर इस कोहबर-लेखन कार्यक्रम में शरीक होने के लिए उन सबका भी तांता लगना आरंभ हो जाता है। कुछ अपने मन की डिजाइन और शायरियां बताकर लिखने वालों की मदद करती हैं, तो कुछ सिर्फ दर्शक या श्रोता की भुमिका में ही आनंद लेती हैं। 


दीवार मिट्टी की हो या सीमेंट की... कच्ची हो या चूने की रंगाई-पुताई वाले: कोहबर कला के लिए हर तरह की दीवार उपयुक्त है। हालांकि अब तो दीवारों के खराब हो जाने के डर से लोग पीले कपड़े या कागज पर भी कोहबर लिखवा कर दीवार पर चिपका कर ही इस परम्परा को निभा दिया करते हैं। प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के नाम के गीतों का गायन होता है, फिर वर-वधू के नाम के गीत गाए जाते हैं। गिनती से पांच, नौ या ग्यारह गीत गाए जाते हैं।  


लड़की के घर में कोहबर लिखने का समय बारात आगमन से पूर्व होता है। और वर के घर में बारात की विदाई के बाद रात्रि में। इस रात सारी महिलाएं जागती हैं और गुड़़-मिश्रित आटे का पकवान बनाती हैं जिसे गुन्ना-बन्ना भी कहते हैं। ख़ूब धमाचौकड़ी होती है: जैसे महिलाओं द्वारा पुरुषों के कपड़े पहन कर उनकी नकल की कॉमेडी, हंसी-मज़ाक और भरपूर धमाचौकड़ी। रिश्ते यदि इजाजत दें तो एक-दूसरे पर छींटाकशी करती हुई गालियों को गीत की तर्ज में गाया जाना। इस मस्ती-से भरी उत्पात वाली इस प्रथा को "डोमकच" कहते है। इस डोमकच के दौरान ही कोहबर भी लिखा जा रहा होता है।


चुंकि पहले महिलाएं बारात में नहीं जाया करती थीं, तो बारात विदाई के बाद उनकी ड्यूटी इन्हीं कामों में लगी रहती थी। रात कब बीत जाती थी, पता भी नहीं चल पाता था। हालांकि अब तो कुछ जगहों पर घर की सारी महिलाएं भी बारात में जाती हैं, कोहबर लेखन का जिम्मा भी स्थानीय प्रोफेशनल चित्रकारों को दे दिया जाता है। हालांकि प्रोफेशनल कला खूबसूरत तो हो सकती है, लेकिन उसमें अनगढ़ हाथों की वह ओरिजिनलिटी और अमेच्योर कलाकारी के उस औत्सुक्य व उत्साह की चमक नहीं दिखती है जो खुद घर की ही बहन-बेटियों-ननद-भाभियों द्वारा उकेरे गए कोहबर में दिखती है।  


कोहबर के डिजाइन में सिर्फ फूल-पत्तियों का चित्रांकन ही नहीं होता, बल्कि चित्र के चारों तरफ खिलंदड़ अंदाज में एक बहुरंगी डूडलिंग भी काफी प्रचलित है। बॉर्डर के बीच में एक लंबे से पतले लाल या पीले कपड़े पर (जिसे एकरंगा कहा जाता है) गोबर की मुट्ठियों से छोटी-छोटी थोड़े लम्बे पतले कपड़े पर आकृतियां बनाते हैं और फिर वर-वधू द्वारा उनकी पूजा की जाती है। बॉर्डर के अंदर वंश और पूरईनी के नाम से पूजी जाने वाली आकृतियां बनाई जाती है। मान्यता है कि विवाह के बाद वंशवृद्धि के लिए ऐसा किया जाना चाहिए। उसी में बड़े अक्षरों में शुभ-विवाह लिख कर फूल-पत्तियों के डिजाइन, कमल और गुलाब और धान-गेहूं की बालियों के डिजाइन, कलश और राम-सिया संग शिव-गौरी के नाम के साथ दिल का आकार बना कर उसमें वर-वधू का नाम लिखा जाता है। तभी तो ये दोनों नाम जीवन भर के लिए आपस में कुछ इस तरह से गूंथ जाते हैं कि वर के घर में वधू को उसके वर के नाम से संबोधित किया जाता है और वधू के घर में वर को उसकी वधू के नाम से। 


ोहबर चित्रांकन में वर-वधू को उनके वैवाहिक जीवन की मंगलकामनाओं के शब्दांकन के साथ तरह-तरह की शायरियां भी अंकित की जाती हैं... शायरियां, जो कि किसी भी रोमांटिक गाने से भी ज्यादा रोमांचक और रसभरे होते हैं। बानगी है कि,


सोलह सावन बीत गए, बाबूल की अंगनाई में, 

छूट गया घर बाबुल का, एक दिन की शहनाई में। 


या,


दो नैन मिले, दो हृदय खिले, दो कलियों ने श्रृंगार किया;

दो दूर-देश के पथिकों ने, संग-संग चलना स्वीकार किया!


या,


सजी रहे ये प्रेम की बगिया, "राकेश" जैसे माली से। 

तुम भी सजी रहो "आकांक्षा", अमर सुहाग की लाली से।।  


या, 


जब लगि गंग जमुन जल धारा। 

अचल होउ अहिवात तुम्हारा।। 


या, 

गरम जलेबी ठंढा पानी। 

आज मिलेंगे दोनों प्राणी।।


कोहबर के गीत भी कुछ ऐसे ही होते हैं -- पहले राम-सिया, और फिर वर-वधू के नाम के। गीतों में ससुराल और मायके के सुख-दु:ख का वर्णन होता है। वर का अपने ससुराल से रूठना और वधू को मनाना, अपने मायके से भी चिट्ठियों के जरिए वर से ये मनुहार करना कि वो उसे मनाए। कोहबर गीतों में जीवन के हर रंग को उभारा जाता हैं: और बड़े ही सार्थक, उत्साहवर्धक और आनंदप्रद हुआ करते हैं ये।


यह वो कमरा होता है जहां घर के पुरूषों में बड़े-बुजूर्गों का प्रवेश वर्जित होता है; यहां सिर्फ लड़कियों, महिलाओं और छोटी उमर के लड़कों को ही प्रवेश की इजाजत है।


जिस दिन वधू का अपने ससुराल में आगमन होता है, और मंडप की रस्मों को पूरा करके जब विवाहित जोड़ी को कोहबर के प्रवेश द्वार लाया जाता है, तो द्वार पर ही ननदों के द्वारा उन्हें रोक या छेक लिया जाता है, और भाई-भाभी से कोहबर के प्रवेश-शुल्क के रूप में भारी-भरकम नेग की डिमांड होती है। ठीक इसी तरह वधू के मायके में भी विवाह में मंडप की सभी रस्मों के पूरे होने के बाद सालियों द्वारा कोहबर के प्रवेश द्वार पर ही छेक लिया जाता है; और यहां तो सालियों द्वारा अपने जीजा से नेग की मांग के अलावे कोई गीत अथवा गाना गवा लेने के बाद ही कोहबर में प्रवेश करने दिया जाता है।


कोहबर में पुरूषों का प्रवेश भले ही वर्जित हो लेकिन दूल्हे के बड़े भाई को ससम्मान बुलाया जाता है-- "दही-बड़ेरी" की रस्म निभाने के लिए।


इस रस्म में दही से छांछ बनाने वाली लकड़ी की मथनी पर नई बहू के द्वारा रस्मों के मुताबिक दही, सिंदूर लगाए जाते हैं और उसपर अपनी श्रद्धानुसार व तत्कालिक उपलब्धतानुसार दो-पांच-या-दस के अथवा चांदी के सिक्के रखे जाते हैं। फिर उस मथनी अथवा मलहनी को वर के बड़े भाई अपने हाथों में लेकर ऊपर उठाकर कमरे की छत (सिलिंग) से स्पर्श करता है... और फिर यही प्रक्रिया पांच बार दोहराई जाती है। 


इस रस्म को पूरे करने के बाद पहली और आखिरी बार दुल्हन अपने जेठ के पैर छूती है और फिर जेठ इस सम्मान के प्रत्युत्तर में वधू की हथेली में मुहंदिखाई का 'नेग' -- जो कि नकद रुपए अथवा कोई आभूषण भी हो सकता है -- रखता है। किस्सा -ए-मुख्तसर यह कि यही वह पहला और आखिरी अवसर है जब भभ्भू और भैंसूर दोनों एक दूसरे को सीधी आंख से देख सकते हैं।


हालांकि अब तो आधुनिकता ने काफी हद तक इन रिश्तों, रस्मों और इनके सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक तकाजों और सरोकारों की गरिमा और महत्व को बहुत ही गौण कर दिया है और अब इन रीति-रिवाजों और नातेदारी के व्यवहारिक तकाजों का महत्व बस रस्म की अदायगी भर में सिमट कर रह गया है।


बहरहाल, दही बंड़ेरी की इस रस्म के समापन पश्चात कोहबर के मंगल गीतों का समेकित गायन शुरू हो जाता है! वर-वधू कोहबर में ही दही-गूड़-साग से मुंह-जूठाई करते हैं। फिर परिवार और पास-पड़ोस की कुल पांच सुहागिनों के साथ दुल्हन की मुंहजूठाई कराई जाती है। और इस 'मुंहजूठाई' की रस्म का मेन्यू है: दालपूरी, कढ़ी-पकौड़ा, दहीबड़ा, साग और इसके अलावा पांच तरह की सब्जियां। इसमें दही और साग तो "मैंडेटरी" है।


इन रस्मों के बाद -- चाहे कुछ पलों के लिए ही क्यूं न -- वर और वधू का इस कमरे में शयन करना तय होता है।


नियमानुसार इस कमरे में झाड़ु नहीं लगाया जाता है, क्योंकि शुभ या देवस्थान में झाड़ू नहीं लगाया जाता! बल्कि सूखे, साफ और शुद्ध कपड़े से ही बुहारते हुए धूल-गंदगी हटाई जाती है!


शादी के अन्य रस्मों के बाद वर-वधू का गठबंधन भी यहीं खोला जाता है जो कि वधू की शादी वाले चुनरी शॉल में वर के सिल्क की चादर जो गमछे से थोड़ा बड़ा होता है। उन्हीं वस्त्रों में गांठ बंधा रहता है जो प्रमाण है दोनों के बंधन के जोड़े रखने का जिसे विवाह के सारे रस्मों के बाद ही उसी कोहबर में खोला जाता है।


 और बाद वधू के घर से विदाई के समय भी खोंईछा कोहबर में ही दिया जाता है, और ससुराल पहुंचने के बाद भी खोंईछा खोलने की रस्म कोहबर में ही की जाती है। फिर बाद में भी बेटी-बहू को उसी कमरे में ले जाकर खोंईछा दिया जाता है जो कि खोंईछा का रूमाल आंचल रख कुलदेवता सहित सभी भगवान को प्रणाम कर विदाई के लिए घर से बाहर निकलती हैं!


एक-से-सवा साल तक जब भी कोई शुभ कार्य हो -- चाहे बहू का आगमन हो या विदाई -- सारा कुछ उस कोहबर वाले कमरे से ही होता है। 


आज तो विवाह बड़े-बड़े होटलों या कम्युनिटी-हॉलों में होने लगे है; किन्तु अगर घर में भीं हो रहा हो तब भी सब कुछ तात्कालिक तौर पर ही किया जाता है रस्मों की अदायगी सम्पन्न होते ही हटा भी दिया जाता है। मगर पहले जब नियमानुसार घर से ही होती थी शादियां, तो शादी के एक साल पूरे होने के बाद ही सवा साल पर शुभ तिथि और लग्न देखकर पांच सुहागिनें नियमपूर्वक भूखी-प्यासी रहकर उस कोहबर के गीतों को गाते हुए कोहबर को दूध और नए कपड़े के टूकडों से लिपती हैं। उसके बाद उस विवाह का कोहबर हटाया जाता है ताकि अगली शादी में फिर घर के जिस बेटे या बेटी की शादी हो उसका कोहबर पुनः उसी जगह पर लिखा जाए और ये सारी रस्में फिर से मनाई जाए। 


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