Anant Vijai

Inspirational Children

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Anant Vijai

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बाई-साइकिल

बाई-साइकिल

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उसके चमचमाते रिम, इलेक्ट्रिकल हॉर्न, घुमावदार हैंडल, रैड-ब्लैक मैटेलिक शैड और मिडिल में नोरोको ब्रांड लोगो।

दरअसल मैं बात कर रहा हूँ शिखर के क्लासमेट, रघु की बाई-साइकिल की। जिसे देख शिखर भी चाहता है, कि उसके पास भी रघु जैसी एक स्टाइलिश बाई-साइकिल हो। ताकि वह भी रघु और अपने बाकी साथियों की तरह ट्यूशन बाई-साइकिल पर जा सके। अपने पैरेंट्स से उसकी यह पहली गुज़ारिश है, लेकिन उसकी मम्मी का कहना है कि साइकिल चलाने के लिये वह अभी छोटा है। कुछ चीज़ों के लिए सही वक्त का होना बहुत ज़रूरी है, और इस उम्र में रघु के लिए बाई-साइकिल खरीदना उन्हें बिल्कुल सेफ नहीं लग रहा था। पर चूँकि रघु की यह पहली गुज़ारिश है, तो उसके पैरेंट्स पर इस बात का दबदबा बनना बिल्कुल तय है। अब देखना ये है, कि शिखर को बाई-साइकिल मिलेगी या नहीं। और अगर मिली तो इसके क्या परिणाम होंगे। आइये देखते हैं उसके बाल जीवन की एक झलक।

सूरज डूब रहा था। मल्होत्रा जी हमेशा की तरह शाम छः बजे क्लीनिक से घर लौट आये थे। दवाओं से भरा सूटकेस और स्टेथोस्कोप सोफे के बायें तरह रखकर श्रीमती जी से कहने लगे-“ज़रा एक कप कॉफी बना दो और शिखर को मेरे पास भेजो।"

“मुँह फुलाये बैठे हैं साहब। एक तो पहले ही रघु की साइकिल का भूत सवार था, अब एक कार्टून और देख लिया है, जिसमें ग्यारह-बारह साल का एक लड़का साइकिल पर अपनी माँ को बैठाकर मार्किट ले जा रहा है। कहता है मैं भी आपको साइकिल पर बैठाकर मार्किट घूमाउँगा। भला ये भी कोई बात है।"

मल्होत्रा जी थोड़ा मुस्कुराए, फिर कहा-“ऐसी बात है तो दिला देते हैं एक साइकिल।"कम-से-कम तुम्हें मार्किट लाने और ले जाने का तो काम खत्म होगा।

“वैरी फनी! साइकिल का भूत उस पर सवार है, आप पर नहीं। आप भी उसकी बातों में आ गए।"

“आखिर पहली दफ़ा उसने हमसे अपने दिल की बात कही है।"

“आप फ़िज़ूल सोच रहे हैं। और वैसे भी ट्यूशन तो मैं छोड़ ही आती हूँ। माना कि साइकिल चलाना जानता है, लेकिन अभी इतना भी माहिर नहीं हुआ कि ऐसे भीड़-भाड़ इलाके में चला पाए। आगे आपकी मर्जी, जैसा ठीक लगे, कीजिये।"

माँ की चिंता जायज़ थी। दिल्ली जैसे भीड़-भाड़ इलाके में साइकिल चलाने के लिए मन हर बार गवाही देने से चूक रहा था। लेकिन मल्होत्रा जी को इस विषय पर कोई खास समस्या नहीं दिखाई दे रही थी। इसलिए शिखर को अपनी फेवरेट बाई-साइकिल मिल गयी। 

बाई-साइकिल मिलने का सबसे पहला इफ़ेक्ट यही था, कि शिखर का स्वभाव काफी बदल गया था। अक्सर जो वक्त शिखर को सबसे ज्यादा खलता था, अब वही वक्त शिखर को ‛हैप्पी टाइम'लगने लगा था।

वक्त जैसे-जैसे बीता, वैसे-वैसे मल्होत्रा जी और श्रीमती जी को अपना लिया फैसला ठीक लगने लगा। उनका मानना है कि किसी भी चीज़ का मिसयूज़ पहले तीस दिन में भीतर होने के चान्सेस ज्यादा होते हैं। तीस दिनों के बाद चीज़ें नॉर्मल होने लगती है। शिखर को साइकिल से ट्यूशन जाते तीस दिन हो चुके थे; बिना किसी मुसीबत और बिना किसी शिकायत।

एक दिन शिखर की नानी की तबियत काफी बिगड़ गयी थी। श्रीमती जी को जब इस बात की ख़बर लगी तो वह फॉरन शिखर को लेकर उनसे मिलने चली गयी। मल्होत्रा जी को अपने मरीज़ों से फुरसत नहीं मिल पाती थी। इसलिए अपने डेली रूटीन के हिसाब से आज भी क्लीनिक चले गए। 

इत्तेफाक कुछ ऐसा ही बनता था कि मल्होत्रा जी अपनी चेयर से उठने पर ही लंच करने का वक्त निकाल पाते थे। वर्ना उनके मरीज़ उन्हें सिर्फ सांस लेने की मोहलत देते थे। 

आज मल्होत्रा जी के लंच का वक्त था 3:00PM! हालाँकि मल्होत्रा जी दोपहर तीन बजे तक भी अपने लिए फुर्सत नहीं निकाल पाए। मल्होत्रा जी लगातार अपने मरीज़ों को देखने में खासा व्यस्त थे। इस बीच मल्होत्रा जी के सबसे ख़ास पड़ोसी गौसाइन बाबू, शिखर की इतला देने क्लीनिक आ गए-” डॉक्टर साहब! शिखर हाईवे पर साइकिल चला रहा है। दो-तीन बच्चें और भी हैं साथ। देख लीजियेगा ज़रा"

“शिखर?”

“जी! शिखर! थोड़ा खयाल रखिये, बच्चा है अभी।”

“जी मैं देखता हूँ, बहुत शुक्रिया बताने के लिए।"

लेकिन यह कैसे मुमकिन हो सकता है? शिखर तो अपनी मम्मी के साथ अपनी नानी से रूबरू होने के लिए गया था। फिर मल्होत्रा जी ने गौसाइन बाबू से ऐसा क्यों कहा?

सच कहूँ, तो मल्होत्रा जी भी सोच में पड़ गए थे। तुरंत श्रीमती जी को फॉन लगाया और उनसे उनकी करंट लोकेशन का पता लगाया। श्रीमती जी के अनुसार-वह शिखर की नानी के घर से निकल गयी थी और शाम सात बजे तक घर वापस लौटने वाली थी। शाम सात बजने में अभी चार घण्टे बाकी थे।

अब यह बात तो साफ थी, कि हाईवे पर साइकिल चलाने वाला लड़का शिखर नहीं था। शायद गौसाइन बाबू को कोई भूल हुई हो। लेकिन मल्होत्रा जी को ये कोई भूल नहीं दिख रही थी। उनके हिसाब से दाल में कुछ कालापन ज़रूर था, जो उनके लिए तराशना ज़रूरी था।

शाम सात बजे मल्होत्रा जी और श्रीमती जी, दोनो घर पहुँच गए। मल्होत्रा जी ने शिखर को आँखों के सामने पाया तो तुरंत सवाल-जवाब शुरू कर दिए-“शिखर! बेटा साइकिल चलाने हाईवे पर क्यों गए थे आज।"

“कैसी बात कर रहें हैं जी! नानी के घर से अभी-अभी तो लौटा है।” शिखर से पहले श्रीमती जी ने जवाब देते हए कहा।

“आज पड़ोस वाले गौसाइन बाबू क्लीनिक आये थे। कह रहे थे कि शिखर कुछ बच्चों के साथ हाइवे पर साइकिल चला रहा है।”

“डैडी! सर ने दो दिन पहले ट्यूशन से जल्दी छुट्टी दे दी थी। इसलिए रघु और मैं साइकिल चलाते-चलाते वहाँ पर पहुँच गए थे।”

“यानी बाबू जी की बात और मेरा शक सही था। मैं समझ गया था कि अगर बाबू जी इतनी बात कह रहे हैं, तो ज़रूर शिखर को साइकिल चलाते पहले कभी देखा होगा; वो बात अलग है कि आज वहम था उनका। उस वक्त उन्हें शिखर के यहाँ ना होने की जानकारी देता, तो यकीनन हम दोनों में दरारें आती। जुबान से नहीं, लेकिन मन-ही-मन कहते, कि हम लोग तो यहाँ लड़के की खबर देने आए हैं और ये हमें ही उल्टा ज्ञान बांटने लगे। बस इसलिए मैंने कुछ कहना ठीक नहीं समझा।"

शिखर-“सॉरी डैडी, दोबारा कभी ऐसी गलती नहीं होगी।"

श्रीमती जी शिखर को देखते हुए बोली- मैंने तो पहले ही कहा था आपसे, मत दिलाइये साइकिल, बिगड़ जाएगा। भगवान न करें, कुछ हो जाता तो? अभी इतना भी बड़ा नहीं हुआ है कि अच्छी तरह से साइकिल चला पाए और ना ही अभी इतनी अक्ल कि सही-गलत बातों की समझ हो। लेकिन तब आपने भी कहाँ सुनी, पछताइये अब बैठकर।"

मल्होत्रा जी कुछ देर चुप रहे और फिर शिखर की पीठ थप-थपाकर बोले-“ उम्र से भले ही छोटा है लेकिन संस्कारों को सीखने में काफी बड़ा हो गया है।" 

“अब ये क्या बचपना है?" श्रीमती जी ने हैरत से कहा।

“शिखर चाहता तो अपनी नानी के यहाँ होने का बहाना देकर अपना बचाव कर सकता था, बावजूद उसने ऐसा नहीं किया। बल्कि सच बताया कि वह दो दिन पहले वहाँ गया था। इस उम्र में इस सच्चाई से बड़ा कोई और संस्कार नहीं। ऐसे संस्कार और नैतिक गुणों को सीख जाना वाकई बड़े हो जाने जैसा है।"

मल्होत्रा जी की बातें सुनकर श्रीमती जी थोड़ी देर मुस्कुराती दिखी; मल्होत्रा जी की बातें समझ आने लगी थी। जवाब में शिखर का माथा चूमकर उसकी चुटकी लेते हुए कहने लगी-“साइकिल चलाने के लिए भी बड़ा हो गया है ना?"

इस बात पर सभी हँसने लगे। 


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