सॉरी
सॉरी
सेशन का पहला दिन’
ज्ञानस्थल अकेडमी की मॉर्निंग असेम्बली में फर्क सिर्फ़ इतना था कि होशियारी के नाम पर पूछे जाने वाले ‛क्वेश्चन ऑफ द डे’ पूछने का सलिका बदल दिया गया।वज़ह साफ थी,स्कूल के मेधावी बच्चों की होशियारी का आजिज़ पड़ना। रंजन पढ़ाई की नही,गुंडागर्दी की चढ़ाई चढ़ने लगा था, विवेक को केमिस्ट्री अच्छी लगने लगी थी,दयाल सर की नहीं,बल्कि अपनी और तृष्णा की।
वॉर्निंग के नाम पर अभी तक ये तीनों सैकड़ों चेतावनियों के पहले हकदार बन चुके थे। मगर सुधार के नाम पर महज़ इतना ही मुमकिन हो पाया,कि अपनी खैरियत बनाये रखने के लिए टीचर्स की चूना-चपटी में इज़ाफ़ा डेढ़ गुना बढ़ा दिया गया।
निर्विवाद है: दूध से दही बनाना सरल है, लेकिन दही को पुनः दूध बनाना नामुकिन। टीचर्स स्टाफ़ ने भी इन तीनों को लेकर कुछ ऐसा ही समझ लिया और उन्हें उनके पेरंट्स को सूचित कर अपने हाल पर छोड़ने का फैसला किया।
चूंकि नया सेशन था इसलिए कुछ नए और पुराने स्टूडेंट्स का फेरबदल हुआ।कारणवश कुशल और प्रतिभावान स्टूडेंट्स की जुस्तजू शुरू होने को थी और इसमें कोई दो राय नहीं थी,कि पहला प्रभावी परीक्षण यही साबित होना था,कि ‛क्वेश्चन ऑफ द डे‘ के स्तर में थोड़ा इजाफ़ा कर स्टूडेंट्स के बीच प्रस्तुत किया जाए। हालाँकि नए सेशन का पहला दिन स्टूडेंट्स के इंट्रोडक्शन में बीता,वह बात अलग थी कि कुछ स्टूडेंट्स के नाम अभी भी सुलझ नहीं पाए थे।
‛सेशन का दूसरा दिन’
'क्वेश्चन ऑफ द डे' को पूछने का सलिका कुछ यूं बदला कि आज से कक्षाओं में न पूछकर मॉर्निंग असेम्बली में पूछने की मुहिम शुरू की गयी।
अकेडमी के युवा, प्रतिभाशाली पी. टी. आई. ‛विजय सिंह’ आज जब मंच पर आए, तो ‛क्वेश्चन ऑफ द डे‘ के साथ प्रस्तुत हुए―
“जिक्र थोड़ा बड़ा हैै;इतना बड़ा,कि इसके आगे लगभग सब छोटे पड़ जाते है।आप युवा है या फिर उम्र के धनी,ताउम्र इसका मतलब और मकसद नही समझ पाते।
‛सॉरी,’ एक ऐसा शब्द, जिसे समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। हम अक्सर गलतियाँ करते रहते है, गलतियाँ स्पष्ट भी नही हों पाती,उसके पहले ही हम अपनी जुबान से ‛सॉरी’ निकालकर सामने वाले को थेप दिया करते हैं।हम महसूस भी नही कर पाते, कि ग़लती करनें का उद्देश्य आखिर रहा क्या,बस एक फ़र्ज़ी सा ‛सॉरी’ कहकर मुद्दे पर अपनी पकड़ जमाने का प्रयास करने लगते है। इस मामूली सी ‛सॉरी’ की बदौलत हम अपनी सारी गलतियों की माफी की उम्मीद करने लगते है। आज का सवाल वाकई दिलचस्प है। जिसके जवाब की उम्मीद आप सभी स्टूडेंट्स से है।सवाल ये है कि सही मायने में सॉरी बोलना अच्छा होता भी है या नहीं ?”
इतना सुनते ही रंजन और विवेक अपनी पंक्ति से खड़े होकर आज के सवाल का जवाब देने की कोशिश करने लगे-
विवेक-"सर ‛सॉरी’ बोलना अच्छा होता है।”
रंजन-“हाँ सर, मेरा भी यही कहना है।”
"ठहरिये-ठहरिये! आप दोनों से हमे कोई प्रतिक्रिया नही चाहिये।आप दोनों किसी काम के नहीं रहे, सिवाय लड़की और लकड़ी के।(झगडों वाले लाठी-डंडे)
प्लीज़ सिट डाउन।”(सुनकर दोनो अपनी-अपनी जगह बैठ गए)
“हाँ तो.., बायें पंक्ति से एक-एक स्टूडेंट खड़ा होता जाए, और अपने -अपने जवाब देकर बैठता जाए।”
जैसे हर विषम संख्या के बाद एक सम संख्या आती है, वैसे ही एक के बाद एक बच्चा हाँ-ना में जवाब देता गया।किसी तिलिस्मयी जवाब का अभाव आज भी मौजूद था।फिर आखिरकार कुछ देर बाद सिलसिला बदला। एक स्टूडेन्ट,जिसने हाँ और ना के रट्टे को ठहराकर एक अलग जवाब देते हुए कहा-“ सर एक या दो बार ‛सॉरी’ बोलना बेहतर है लेकिन उसके ऊपर हरगिज़ नही।”
“शाबाश..! क्या नाम है तुम्हारा ?”
“दीपू।”
“ दीपू..! जवाब लगभग सही है, लेकिन शुद्धता गुम दिखी। मंच पर आकर समझाना चाहोगे ?”
इसके बाद का सार दीपू की मुह जुबानी मंच से सुनने को मिला-“सर सच कहूँ तो मुझे चोरी करने की बुरी लत लगी थी,अपने ही घर में चोरियाँ करने लगा था। हर सुबह जल्दी उठता और पापा की पॉकेट से पैसे चुरा लिया करता।
मुझे इस बात की इतनी समझ नही थी कि पापा एक -एक पाई का हिसाब रखने वालों में से हैं, इसलिए उन्हें पहले दिन से ही समझ आने लगा था कि मैं गलत रास्ते पर निकल गया हूँ। लेकिन उस वक़्त कुछ नही कहा,बल्कि मेरे लिए पहले जैसे ही बर्ताव रखा। पर फिर एक दिन पापा ने मुझे पॉकेट से पैसे निकालते पकड़ लिया, तब मैंने ओवर स्मार्ट बनते हुए बात को वैसे ही रमाना चाहा,जैसे गलियारे जादूगर नज़रो की सफाई करते है।लेकिन बात न बनने पर बिना देरी किये पापा को ‛सॉरी’ बोल दिया। पापा ने मुझसे कहा कि “ये ‛सॉरी’ पिछले एक महीने के लिए या बस आज के लिए ?” पापा से ये सब सुनकर मैं कुछ बोल ही नही पाया,लेकिन इतना ज़रूर समझ गया कि ये गलती नही है बल्कि अपराध है,जो माफी लायक नही।क्योंकि इस बात की समझ होते हुए भी,कि ये गलत है,मैं लगातार चोरी करता रहा।"(दीपू कुछ देर शांत दिखा लेकिन ज्यादा नही)
“फिर भी पापा से मुझे यही उम्मीद है, कि वो मुझे माफ़ कर दें और मेरे साथ पहले जैसे ही पेश आयें।”
रुआँसा दीपू जवाब देकर पुनः पंक्ति में जा बैठा और विजय सिंह ने पुनः मंच का दारोमदार संभालते हुए कहा-“मैंने एक बात हमेशा महसूस की,खुद की गलतियों से मिली सीख की बात ही कुछ अलग होती है।ख़ुद की गलती से मिली सीख हमे ताउम्र याद रहती है और हमे पुनः उस रास्ते पर चलने के लिए बाधित करती है।जैसा अभी दीपू ने बताया कि उसने लगातार एक महीने तक गलत...ओह! सॉरी,अपराध...एक महीने तक लगातार अपराध किया। अगर इनके पिताजी इन्हें मौके पर न पकड़ते,तो शायद दीपू भी अपना जवाब बाकी बच्चों की तरह ही दे रहा होता।उस अपराध से तुमने इतनी बेहतर सीख ली इसलिए तुम्हारा अपराध सचमुच माफी लायक है।अब दुआ यही है कि तुम्हारे पिताजी जल्द से जल्द तुम्हे माफ़ कर दें।”
मंच की चमकती कुर्सी पर बैठे प्रिंसिपल सर जो देख रहे थे वो शायद कोई और नही देख पा रहा था।वो दृश्य अकेडमी के मुख्य द्वार का था जहाँ एक आदिल व्यक्ति हाथ में टिफिन बॉक्स लिए विजय सिंह की बातों को शांतिपूर्वक सुन रहे थे।उनकी वाणी को विराम मिलते ही वह विजय सर के पास तुरन्त चले आये।कुछ देर फुसफुसाहट हुई,शायद किसी आपसी इत्तिहाद की ओर इशारा था,जब उन सज्जन को वार्तालाप हेतू मंच पर आने की इजाज़त मिली तब माहौल कुछ यूं बदला-“ऑफिस के लिए निकल रहा था।बेटा टिफिन बॉक्स घर भूल आया तो सोचा देता चलूँ। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि मेरा यहाँ मंच पर क्या काम।”
इतना सुनकर ग्राउंड में जमा स्टूडेंट्स ने ‛हाँ-हाँ’ का हाहाकार मचा दिया।
“मैं दीपू का पिता हूँ।(बच्चों का शोर आहिस्ता कम होते हुए लगभग समाप्त हुआ।)
“जब से दीपू से भूल हुई तब से मैंने उससे सीधे मुँह बात नही की। लेकिन संस्कारो को वो अपने जीवन मे इस तरह उतारेगा ये मैंने सोचा नही था,तुम्हारा जवाब बिल्कुल सटीक था बेटा। नाज़ है तुम पर।हो सके तो मेरे इस बर्ताव के लिए मुझे माफ़ कर देना।”
पंक्ति में बैठा दीपू मंच से आसानी से दिखाई दे रहा था। उसके चेहरे पर एक अदब-सी इब्तिसाम थी, मानो दुख ने बरसों पहले उसकी इस मुस्कान को बंधक बनाकर आज मुक्त किया था।
अब दौर एक नया मौड़ चाहता था।आज की असेम्बली ने रंजन,विवेक और तृष्णा को मिली सैंकड़ो चेतावनियों का हरजाना तलब करा लिया और उन्हें, उनके घर का इकलौता चिराग होने का वजूद याद दिला दिया। दीपू की तो बात ही अलग थी, अभी कुछ मिनटों पहले ही ज्ञानस्थल अकेडमी का चश्म-ओ-चिराग घोषित हुआ था।