Alka Nigam

Classics

4.5  

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अनुत्तरित प्रश्न अहिल्या के

अनुत्तरित प्रश्न अहिल्या के

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 आज अहिल्या का जीवन धन्य हुआ। वर्षों से त्याज्य और श्रापित उसकी देह ने राम की चरण रज पा पुनः अपना तेजस्वी रूप पा लिया था।  हाथ जोड़ अपने प्रभु का वंदन किया और बोली,

"हे शाश्वत! हे सनातन राम!, आपकी चरणधूलि से मेरा तन पावन हो गया,मेरी श्रापित देह आज तृप्त हो गई, पाषण पाश से मुक्त हो गई, किन्तु..."

"किन्तु क्या हे देवि?",पुरुषोत्तम तनिक विचलित हो बोले।

 "हे जनार्दन! मुझे क्षमा कीजिये परन्तु इस देह के भीतर जो मन है, वो अभी भी तिक्त है।कुछ प्रश्नों के उत्तर का स्थान अभी भी रिक्त है। यदि हो सके तो उत्तर दीजिए अन्यथा मुझ अकिंचन को पुनः पाषाण बना दीजिए।"

 "पूछिये देवि! मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ",शरण्यत्राणतत्पर बोले।

 अहिल्या बोलीं, " हे कौसलेय!आप तो स्वयं सत्यव्रत हैं, मैं सत्य कह रही हूँ, मैंने किसी को नहीं छला अपितु मैं तो स्वयं छली गई थी।"

 "मैं मतिमन्द नहीं थी, बस पतिप्रेम की प्यासी थी।कुछ देहजनित इक्षाएँ मेरे उर में भी बसती थीं। उस छलिये इंद्र के रूप से भ्रमित हो गई थी।""मेरे रोम रोम में सिर्फ ऋषिवर ही बसे थे।उनकी वामांगी बन मैं हर पग पर उनकी सहचरी बनी।"

 "हे धन्वी! एक ऋषि पत्नी का जीवन अत्यंत दुष्कर होता है,हर पग पर नियम और संयम का एक नया अध्याय रचा जाता है।ऐसे में ऋषिवर के रूपधारी उस छलिये के समक्ष जो समर्पित हुई वो पति के सामीप्य को प्यासी एक पत्नी थी।"

 "हे जितक्रोध! ऋषिवर तो त्रिकालदर्शी थे,फिर अपनी ही पत्नी के धवल चरित्र को क्यों नहीं देख पाए?"

" सृष्टि साक्षी है,हे सत्यवाक! न जाने कितनी ही उर्वशियों और रम्भाओं पर आसक्त हो ऋषि अपने तप और कर्तव्यों से विमुख हुए,क्या कभी किसी ऋषि पत्नी ने उन्हें पाषाण बनाया?"

"हे हरि! मैं मानती हूँ कि, इंद्र ने तृष्णा के वशीभूत हो मुझसे छल किया पर मेरा क्या,मैं तो सर्वथा अनभिज्ञ मन से निर्मल गंगा समान थी,फिर मुझे ये दण्ड क्यों?"

अहिल्या के प्रश्न सुन धरा,अम्बर,खग,विहग,विटप सभी मौन थे और त्रिकालदर्शी राम, वह भी मौन थे।  सम्भवतः उन्हें भी भविष्य में सीता की अग्निपरीक्षा और वनवास द्रश्यव्य हो रहा था।अधीर अहिल्या बोलीं,"सबकी नैय्या पार लगाने वाले हे पारग! संशय के सागर में डूबती उतराती मुझ अकिंचन की नैय्या भी पार लगाइए प्रभु।"

 पुरुषोत्तम ने नेत्र बंद लिए और धीर स्वर में बोले..., "हे धरा सी धीर! इस सृष्टि में जब तक पुरुष अपने पुरुषत्व के छद्म गुरुत्वाकर्षण में बंध,अपने अहम की परिधि में ही विचरण करता रहेगा, तब तक वो स्त्रीत्व की विस्तृत आकाशगंगा से सर्वथा अनभिज्ञ ही रहेगा और अपने अहम से उपजी स्वयंप्रभु होने की मिथ्या फसल को ही इस ब्रम्हांड का सत्य मान प्रफुल्लित होता रहेगा"

   "...और तब तक समस्त अहिल्याओं के प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे और जिस दिन आपको अपने उत्तर मिल गए उस दिन सही अर्थों में पुरुष पूर्णत्व को प्राप्त होगा।"


    अहिल्या के प्रश्न तब भी अनुत्तरित रह गए थे और आज भी अनुत्तरित ही हैं।



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