अंतिम इच्छा

अंतिम इच्छा

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'एक बार देख लूं बहू का चेहरा तो चैन की नींद सो जाऊं' .. जुबां पर ये शब्द आये तो नहीं, पर आंखे मानो हर पल यही कह रही थीं। शरीर जितना बाहर से जर्जर दिख रहा था, भीतर उससे कहीं अधिक खोखला हो चुका था। बेटे ने मां की अंदरूनी इच्छाओं को यथासम्भव पूर्ण करने में कोई कमी नही छोड़ी थी। आखिर डॉक्टरों ने छह माह का अल्टीमेटम जो दे दिया था।

रोग वही था कैंसर, जिसके नाम को सुनकर भी वो हमेशा थरथरा जाती थी, कहती थी ..भगवान दुश्मन को भी ये रोग न दें। लेकिन विधि का विधान रचने वाले ने तो पता नहीं कब हौले से, चुपके से उसकी झोली में इसे टपका दिया था, कोई आहट भी तो नही हुई थी।

हां, तो बेटे ने सबसे पहले मां की चिरप्रतीक्षित मनोकामना, एक सुंदर उच्च क्वालिटी की म्यूजिक सिस्टम, आनन फानन में पूरी कर दी। ये कैसी विडंबना थी, अब वो ही पुराने पसंदीदा नगमे कानों को सुकून देने में असमर्थ थे। इसी प्रकार और भी छोटे छोटे सपने, बेटा माँ के मन को पढते समझते पूरे करता जा रहा था। उसे माँ के मन मे दबी उसकी पत्नी देखने की ललक भी बिन कहे समझ में आ रही थी और वो इसे पूरी करने को तैयार भी था । वैसे भी एक सुंदर, स्मार्ट लड़के के लिए रिश्तों की कोई कमी तो थी नही। पर अड़चन तो विवाह के लग्न को लेकर आ रही थी इस वक़्त। पूस के महीने में भला कौन हिन्दू शादी करता है।

अचानक उसकी आशापूर्ण सोच के विपरीत एक दिन डॉक्टर ने बिल्कुल जवाब दे दिया। मानो बेटे की मुट्ठी से रेत फिसलने लगा। समाज की रुढ़िवादी सोच को नकारते हुए उसने निश्चय किया चाहे कोई पण्डित शादी कराने को तैयार हो या न हो, मैं अपनी माँ की अंतिम इच्छा जरूर पूरी करूँगा। कहने वाले कहते रहे भला खिचड़ी और खीर कहीं मिलायी जाती है, पर उसे तो माँ की बुझती आंखों के सामने उसकी बहू का चेहरा दिखाना था। हाय ईश्वर की अद्भुत लीला, इधर मां मृत्यु शैया पर, उधर बेटा हवन कुंड के फेरे विवाह स्वरूप लेता हुआ। पर इस अंतिम लालसा की ताकत देखिए, पति पत्नी बन दोनों सामने आ खड़े हुए मां के बिछे हुए चरण छूने और वो चमक, वो खुशी, जिसे किसी भी दौलत से खरीदी नहीं जा सकती, मां ने पाई। जी भर निहारा, दुलराया, आशीष दिया नव ब्याहता पुत्रवधू को और गहरी सांस ले सन्तुष्ट विदा हो गई।

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