अनोखी मदद
अनोखी मदद
रघु समुंदर किनारे बेहोश प़डा है. आधा जिस्म पानी . मे और आधा पानी के बाहर .. पानी की लहरें, उस से टकरा के वापस जा रही है...एक केकड़ा उस के मुँह के पास बढ़ रहा है और अपना डंक उस की आँखों की तरफ बढ़ाता है.. जैसे बहूत भूखा हो और अभी नोच के खा जाएगा.. रघु की आंखे अचानक खुल जाती है और हड़बड़ाहट मे वो पीछे हट जाता है.. जरा से देर होती तो आज रघु की आंखे जा चुकी होती..उसे होश आ जाता है और वो गहरी सासें भारत है.. आसपास देखता तो उसका सारा समान जैसे खाना कपड़े रस्सी बैग्स ट्रांसमीटर दूर एएन वगैरह बिखरे पड़े है और.. वो एक द्वीप पे है.. उस के एक तरफ जंगल और और दूसरी तरफ समुंदर ही समुंदर..दूर दूर तक कोई नहीं..
वो अपना फोन निकालता है तो पानी से फोन भी खराब हो गया.. और वो पूरी दुनिया से अलग हो चुका है... वो आसमान की तरफ देखता है. आखिर मेर ही साथ क्यु.. क्यु.. मैं ही क्यु.. अपने गले मे डाले भगवान का लॉकेट को निकाल के फेंक देता है... और ठिठक ठिठक के रोने लगता है..
थोड़ी देर बाद आंसू पोंछ के पीछे देखता है तो उसे पूरा जंगल ही जंगल दिखता है. और इधर आसमान मे देखता है तो शाम होने वाली है.. उसे रात का डर लगने लगता है... वो जंगल मे जाता है लकड़ी, झाड़ी और सुखी पत्तिया इकठ्ठा करता है और समंदर किनारे एक झोपड़ी बना लेता है... नाओ के टूटे फुटे सामान के जो कुछ इस्तेमाल का और खाने को मिलता है खुरच खुरच के खा लेता है.. उसे घर के खाने की याद आने लगती है.... वो जैसे तैसे वो खाना खा लेता है. और एक आड़ मे सो जाता है.. उस रात भर जंगली जानवर की अजीब से आवाजें आती रहती है.. वो घबराता है .. झोपड़ी मे से झाँक के देखता है तो उसे जंगल की घनी झाड़ियों मे से चमकती हुई आंखे देखाई पड़ती है... वो पूरी हिम्मत कर के एक लकड़ी ले के बाहर निकलता है.. और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला के जानवरों को भगाने लगता है. फिर पूरी रात लड़की का नोकदार हिस्सा झोपड़ी के बाहर कर के बैठा रेहता है और रेत मे पड़े किसी चमकदार
चीज को देखता रेहता है.. उसे पता ही नहीं लगता कि कब उस की आंख लाग जाती है..
सुबह तेज धूप उस के एक पैर पर पड़ती है.. वो जलन के मारे उसकी आंख खुल जाती है... वो घबरा के उठ जाता है... इधर उधर देखता है बाहर झांकता है तो सूरज सिर पे होता है. बहूत तेज धूप होती है. उसे फिर से रेत के बीच कुछ चमकता हुआ दिखता है वो तप्ती धूप मे भाग के वहां जाता है तो उसे वही लॉकेट मिलता है जो उसे ने कल फेंका था..
रघु लॉकेट उठा के अपने हाथ मे रखता है. जगल की तरफ देखता है..उसे समझ आता है कि जंगल के जानवरों से और अंदर के डर से उसे किस ने बचाया . वो लॉकेट को गले मे डाल लेता है..
अब उस के पास खाने को कुछ नहीं है, वैसे भी इधर किनारे पे धूप भी बहूत ज़ोर की है. .. वो सोचता है कि एक नोकदार लकड़ी को हथियार बना के जंगल मे जाया जाए. धूप से बचे और तो शायद कुछ खाने पीने को भी मिल जाए..रघु झोंपड़ी के पास एक पत्थर के उप्पर अपना लॉकेट रख के जंगल की तरफ निकल जाता है. कुछ घंटों मे खाने पीने की चीज इक्ट्ठा करता है.. जंगल में बह रही एक नहर मे पानी भी पीता है और. फल भी तोड़ता है
थोड़ी देर मे देखता है कि नहर के उस पार तेज धूप के कारण जंगल के एक हिस्से मे आग लाग गई...उसे अचानक अपनी झोपड़ी याद आती है.. वो फल का बाग छोड़ के तेजी से झोपड़ी की तरफ भागता है... और जैसे जंगल से बाहर आता है तो देखता है झोपड़ी मे भी धूप के कारण आंग लाग गई है.. वो जलती झोपड़ी देख वही बैठ के रोने लगता है और फिर वो पत्थर पे रखे भगवन जी के लॉकेट को देख कर सवाल करता है कि.. क्यु. आखिर में ही क्यु....
तभी उसे पीछे से के बड़े से जहाज़ की आवाज आती है.. वो घबरा के पीछे मुड़ता है तो.. किनारे पे एक बड़ा पानी का जहाज़ रुका रहता है.. उस में से एक आदमी उतरता है.. रघु उस के पास जाता है उसे गले लगा लेता है.. फिर उस से पूछता है.."तुम्हें कसे पता चाला की मैं यहाँ फसा हुआ हू..?“
वो जहाज का नाविक आश्चर्य से रघु को देखता है फिर कहता है, “ तुम ने ही तो मदद मांगी थी.. ये आग जला के.“वो झोपड़ी की तरफ इशारा करता है.
रघु समझ जाता है कि जिंदगी मे भगवान पे से भरोसा मत खो. वो जो भी करता है कही ना कहीं आप के भले के लिए ही करता है..
